कविताएं मुश्क़िल समय में संबल देने का काम करती रही हैं. आज के इस कठिन संक्रमण काल में कवि हूबनाथ पांडे की यह कविता अपने सामर्थ्य पर, अपनी शक्ति पर भरोसा करने यानी दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मनिर्भर होने की बात कर रही है. आख़िरकार हम सभी की ज़िंदगी में वह पल भी आता है, जब हमें लगता है कि हमारी आवाज़ ईश्वर भी नहीं सुन रहा है.
जब कोई न सुने
तुम्हारी आवाज़
ईश्वर भी नहीं
तो अपने आप से बात करो
तुमसे ज़्यादा अपना
कोई और नहीं
शक्ति के सारे स्रोत
जब चुक जाएं
अंधेरे के समक्ष
सब झुक जाएं
तब अपने भीतर झांको
एक दिया वहां
अब भी जल रहा है
आस्था का कण
करुणा संग पल रहा है
आस्था
अपने सामर्थ्य पर
करुणा
समूची सृष्टि के प्रति
बाहर
चाहे जितने अकेले लगो
भीतर
हमेशा अपने साथ हो
अपने सामर्थ्य
अपनी करुणा के साथ
यहां सुनी जाएगी
तुम्हारी हर बात
हर पीड़ा
प्रत्येक संवेदना
और हर बार उत्तर मिलेगा
कि अकेले नहीं हो तुम
अशक्त नहीं हो तुम
असमर्थ नहीं हो तुम
संकट कितना भी गहराए
अंधेरा जितना बढ़ता जाए
भीतर की रौशनी पर
भरोसा कभी न डगमगाए
ऐसी असंख्य रौशनियों से
घिरे हो तुम
रौशनी बची रही
तो बचा रहेगा सब कुछ
भीतर भी और बाहर भी
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