देश के वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए क्या आपको लगता है कि क़ानून के सामने सभी लोग बराबर हैं? संविधान की धारा 14, जो हर व्यक्ति को विधि के समक्ष समता और विधियों के समान संरक्षण का मौलिक अधिकार देती है, क्या उसका पालन हो रहा है? पंकज मिश्र का यह नज़रिया इसी बात की पड़ताल करता है.
संविधान की धारा 14 में संशोधन होना चाहिए. धारा 14 व्यक्ति को, विधि के समक्ष समता और विधियों के समान संरक्षण का मौलिक अधिकार देती है. इसके अनुसार, क़ानून के सामने राजा और रंक, मंत्री और संतरी सब बराबर है. सुनने और पढ़ने में यह धारा न्याय और क़ानून के राज के अत्यंत उच्चतम मानदंडों को स्थापित करती दिखती है, परंतु क्या सच्चाई भी यही है? यह सवाल आप सब लोग अपने आप से करें कि क्या मंत्री और संतरी क़ानून के सामने बराबर हैं?
जो समाज अनेक आधारों पर बंटा हुआ है, अनेक संस्तरों में बंटा हुआ है, वह समाज, क़ानून के सामने किस चमत्कार से बराबर हो सकता है? हालिया उदहारण आपके सामने है ही, यौन हिंसा तो बहुत दूर की बात है, जिस तरह मंच पर माननीय ने एक किशोर पहलवान को तमाचे लगाए, क्या उसे न्याय मिला? फ़र्ज़ करें वह किशोर यदि माननीय को तमाचा मार देता तो क्या होता? बहुत हल्का उदाहरण दे रहा हूं, लेकिन चूंकि इसे सबने टीवी पर देखा है लिहाज़ा सब इससे वाक़िफ़ हैं.
राहुल गांधी ने यौन हिंसा से पीड़ित महिलाओं द्वारा साझा किए दुःस्वप्नों का ज़िक्र किया तो पुलिस इतनी संवेदनशील हो गई कि उन महिलाओं और घटना के डिटेल लेने पहुंच गई. इसके बरक्स, जो महिलाएं चीख़-चीख़ कर यौन हिंसा की शिकायत कर रही हैं, उसे दर्ज तक नहीं किया जा रहा. एक सेंगर साब हैं, एक साल तक उनके भी ख़िलाफ़ कुछ नहीं हुआ था, जब पीड़िता ने विधानसभा के सामने ख़ुद को आग लगा ली (सौभाग्य से बच गई!) तब कान पर जूं रेंगी. यह तो अब याद भी नहीं कि उस परिवार में उसके बाद कितने लोग मारे गए और घायल हुए.
आज माननीय टीवी में इंटरव्यू दे रहे हैं, क्या किसी अन्य पॉक्सो (pocso) के आरोपी को यह सुविधा मिल सकती है? बिलकिस के रेपिस्ट हो या आंनद मोहन सिंह, यदि आप इनमें से नहीं हैं तो क्या आपको रिहाई मिल सकती थी? राम रहीम को खेती करने के लिए पेरोल मिल जाती है, इस आधार पर तो जेल में बन्द हर आदमी को पेशेगत कारणों से पेरोल मिल जानी चाहिए, कम से कम जेलें तो ख़ाली हो जाएंगी.
न्याय के लिए न्यायलय अंतिम दरवाज़ा है और सर्वोच्च न्यायलय तो डेड एंड है. वरना न्याय सुनिश्चित करने के लिए क़ानून का शासन है, जिसे कार्यपालिका (executive) द्वारा होना है. हाल ये है कि अंतिम द्वार ही पहला द्वार बनता जा रहा है. इस तरह तो सुप्रीम कोर्ट पागल हो जाएगा, क्या उसका काम एफ़आईआर दर्ज करवाने का निर्देश देना है? क्या उसका काम जुलूस निकालने, धरना देने की परमिशन देना है?
यदि सुप्रीम कोर्ट के जज अपने बाल न नोचने लगें तो यह अचरज है! यह कौन सी व्यवस्था है? फिर कितने लोग सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच सकते हैं? सम्भवतः 0.000001 प्रतिशत भी नहीं… तो बाक़ियों पर किसका रहमोकरम होगा?
इसलिए असमान समाज में क़ानून के समक्ष समता एक छलावा है. बाहुबल, धनबल, रसूख, ज़िम्म्मेवारी, नैतिकता आदि के आधार वर्गीकरण होना चाहिए कि किन वर्गों पर क़ानून सख़्त होगा और समाज के किन कमज़ोर लोगों पर क़ानून लचीला होगा. जिनके ऊपर क़ानून बनाने, उसका पालन कराने, न्याय करने की संवैधानिक ज़िम्मेवारी हो, समाज के इन ब्रह्मा, विष्णु और महेश पर क़ानून लागू करने का पैमाना क्या ग़रीबों और कमज़ोरों से ज़्यादा सख़्त नहीं होना चाहिए?
कतवारू और राजा कौशलेंद्र जब किसी भी पैमाने पर समान नहीं हैं तो क़ानून के सामने कैसे हो सकते हैं? उन्हें विधियों का समान संरक्षण क्यो मिले भला?
फ़ोटो: फ्रीपिक