बचपन में भाई और बहन के बीच नोकझोंक न हो तो वह बचपन ही क्या? भले ही बचपन में भाई-बहन एक-दूसरे को कभी-कभी शत्रु की तरह देखते हों, पर हर भाई-बहन के जीवन में एक समय आता है, जब वे बचपन की उस अदावत को मिस करते हैं. डॉ संगीता झा की कविता भाई दूज में एक मां, अपनी बेटी को भाई के साथ के इन हसीन लम्हों को जी लेने के लिए कहती है. मां जानती है, एक समय बाद बेटी-बेटे इस दिन के लिए तरसेंगे.
हुआ सबेरा अब जल्दी तुम उठ जाओ
नहा धो तैयार हो फिर तुरंत बाहर आओ
बाहर चहचहा रही है चिड़िया
अब तो उठ जाओ मेरी गुड़िया
आज है भाई-बहन के प्यार का दिन
साल के हर दिनों से होता है ये भिन्न
आज भाई साथ है जल्दी जा तू उठ
कल की लड़ाई पर ना उससे रूठ
बचपन की खट्टी-मीठी लड़ाई
जिसके योद्धा हैं केवल बहन भाई
बहन लगlती है आज भाई को टीका
भाई पास ना हो तो सबकुछ फीका
फिर न्योतती है उसकl हाथ
डालते हुए निरंतर हाथों में पानी
मांगती है यम से भाई की ज़िंदगानी
बोलती है सात बार डालते हुए पानी
जैसे गंगा जमुना यम के हाथ न्योते
मैं न्योतूं अपने प्यारे भाई के हाथ
ज्यों ज्यों गंगा जमुना की धारा बढ़े
ज़िंदगी में रहे हमेशा भाई का साथ
राखी कलाई पर बांधने पर जो भाई
खाता है जो बहन रक्षा की क़समें
आज हम मांगती है उसकी ज़िंदगी
ऐसी हैं भाई-बहन के प्यार की रस्में
ऐसा होता है भाई-बहन का प्यार
जिसके गुण गाता सारा संसार
मुझे देखो आज हाथ मेरे केवल
मिट्टी का बेजान नेगरवा कुमार
भाई मेरे जा बसे सात समुंदर पार
छोटी थी तो इठलाती थी
अकड़ भी मैं बहुत खाती थी
थी बड़ी बेवक़ूफ़ और नादान
जिंदगी के फ़लसफ़े से अनजान
बेख़बर कि रिश्तों में भी आती है दूरी
अब बेबस हूं सारी ख़ुशियां अधूरी
हाथ रह गई हैं वो यादें प्यारी
अब केवल देती गालियां ढेर सारी
फिर आयु दूज मैं देती जोड़
ये भी है ज़िंदगी का एक मोड़
इसलिए कहती हूं बेटी उठ जाग
इस अमोल ख़ुशी से ना भाग
फिर एक दिन तू भी मेरी तरह
हाथ मलते रह जाएगी
बचपन के भाई को ही
याद कर मन ही मन मुसकाएगी
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