एआइ से जुड़ी बातों को समझने के लिए अशफ़ाक अहमद के नज़रिए के पहले दो आलेखों में हमने जाना कि आख़िर एआइ का असर आम आदमी पर कैसे पड़ता है और कहीं आपकी पसंद और नापसंद को भी एआइ ही तो संचालित नहीं कर रहा. इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी में हम उनसे जानेंगे कि क्या सोशल मीडियाई मंचों पर नज़र आने वाले हमारे व्यवहार को किसी तरह से नियंत्रित करके हम एआइ को चकमा दे सकते हैं? यह जानने के लिए आपको आलेख पढ़ना होगा…
हम आज सोशल मीडियाई मंचों में इस्तेमाल होने वाले एआइ के बारे में आगे बात करेंगे, जो लोगों के व्यवहार को, उनकी पसंद/नापसंद, उनके विरोध/समर्थन को नियंत्रित कर रहा है. इसमें सिर्फ़ कुछ तस्वीरों, लिखे हुए शब्दों, और वीडियोज़ के सहारे लोगों को एक ट्रैक पर लाया जाता है और उनमें एक विचार रोपा जाता है.
आगे इस विचार को धारणा में कनवर्ट करने के लिये लगातार उस तरह के कंटेंट से दो-चार कराया जाता है, जो उस धारणा की पुष्टि करता हो— फिर भले वह कंटेंट कोरे झूठ, भ्रामक आंकड़ों या सच-झूठ के मिश्रण पर आधारित हो. डेटा के इस महासागर में हर तरह का कंटेंट तो उपलब्ध है ही… लेकिन फिर भी किसी इंसान में एक विचार रोपकर, उस विचार को धारणा बना पाने का सफ़र केवल तब संभव है, जब उस इंसान में किसी भी तरह की (धर्म/पंथ/नेता/सेलिब्रेटी/वाद आदि) आस्था, निष्ठा या भक्ति मौजूद हो.
अगर यह फ़ीचर इंसान में मिसिंग है तो उसे टार्गेट करके उसके दिमाग को अपनी फ्रीक्वेंसी पर चला पाना दुनिया के सबसे मुश्किल कामों में से एक है… लेकिन आप ग़ौर करेंगे तो पाएंगे कि ऐसी एक आस्था, निष्ठा दुनिया के लगभग हर इंसान में मौजूद है. ख़ुद आप में भी— न समझ में आए तो अपनी ज़िंदगी में मौजूद कोई धार्मिक कैरेक्टर/महापुरुष, समाज सुधारक, सेलिब्रिटी, नेता को याद कीजिए, जिसकी आलोचना या अपमान पर आप उबल जाते हैं और रिऐक्ट करने से ख़ुद को नहीं रोक पाते.
तो मूल मंत्र यह है कि इससे बचने का अकेला रास्ता अप्रत्याशित होने में है यानी अनप्रिडिडेक्टिबल होने में. कोई इंसान या तकनीक, जल्दी यह अंदाज़ा न लगा पाए कि किसी बात पर आपका क्या रिऐक्शन होगा. मुश्किल यह है कि इस मशीनी दौर में लोग इतने प्रिडेक्टिबल हैं कि चतुर लोग इनके दिमागों से बच्चों की तरह खेल रहे हैं और यह सब जानते-बूझते भी हम मोहरा बने रहते हैं.
एक-दो उदाहरण मुसलमानों और वर्तमान सत्ता समर्थक हिंदुओं के ले लीजिए. इन दोनों से कैसे प्रतिक्रिया लेनी है, यह किसी विशेषज्ञ को तो छोड़िए, आपको भी पता होगा. यह इतने ऑब्वियस और प्रिडेक्टिबल हैं कि वर्तमान सत्ता एक अरसे से इन्हें मनमाने तरीके से कंट्रोल करते हुए अपनी उंगलियों पर नचा रही है.
अब सवाल ये कि यह चीज़ पोस्टकर्ता यानी मुझ पर क्यों प्रभावी नहीं रही— उल्टा मैं इसके सहारे इच्छित सूचनाएं निकाल कर इसे अपने फ़ेवर में ही यूज़ कर लेता हूं. इसकी मुख्य वजह है कि मैंने इसे कभी यह समझने ही नहीं दिया कि मेरी पसंद या नापसंद का पैमाना क्या है. एक दिन मैं बड़ी दिलचस्पी से माननीय को देखता हूं, उनसे सम्बंधित पोस्टों को देखता हूं तो दूसरे दिन उन्हें पूरी तरह इग्नोर कर देता हूं. फिर यह मुझे देर तक सत्ता समर्थक के तौर पर कंटेंट उपलब्ध कराता रहता है.
एक दिन मैं स्क्रीन पर किसी तरह के कंटेंट पर टिकता हूं तो दूसरे दिन उस तरह के कंटेंट को पूरी तरह इग्नोर करके कोई दूसरा टाइप पकड़ लेता हूं. मैं दो फ़ोन और एक लैपटॉप इस्तेमाल करता हूं और यह तीनों आज तक यह डिसाइड नहीं कर पाए हैं कि मुझे राजनीति में सत्ता पक्ष पसंद है या विपक्ष, या भूतपूर्व/वर्तमान महापुरुषों में कौन पसंद है या फिर ऐक्टर/क्रिकेटर कौन पसंद है. रील्स में मैं महिलाओं का मेकअप तक बड़ी दिलचस्पी से देखता हूं तो अगले कुछ दिन मेरे फ़ोन मुझे उसी से सम्बंधित कंटेंट और विज्ञापन दिखाते रहते हैं.
मेरे फ़ोन और लैपटॉप मिलकर कई सालों के बाद भी यह नहीं तय कर पाए हैं कि मेरे मूल विचार क्या हैं और सपोर्टिंग कंटेंट/विज्ञापन के सहारे मेरी विचारधारा को किस दिशा में मोड़ना है. मेरे लेखन के चलते होने वाली हज़ार तरह की सर्च हिस्ट्री गूगल के ऐल्गरिदम को भी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचने देती. इनके कन्फ़्यूज़न के चलते मेरे फ़ोन/लैपटॉप में पूरी डायवर्सिटी बनी रहती है और मेरे ऐसा कर पाने की सबसे मुख्य वजह मेरी कोई आस्था या निष्ठा का न होना है.
आप ख़ुद को देखिए, धर्म से लेकर कोई महापुरुष, खेल/मनोरंजन से जुड़े किसी सेलिब्रिटी से लेकर राजनीति या समाज सेवा से जुड़ा कोई तो होगा, जिससे आपका जुड़ाव होगा, जिससे आपकी आस्था जुड़ी होगी, जिसमें आपकी निष्ठा होगी, जिसकी आप भक्ति में होंगे… जिनके खिलाफ़ आप कुछ पढ़/सुन/देख नहीं पाते और फौरन अपनी आपत्ति ज़ाहिर करते हैं. ऐसा कुछ भी है तो आप एक पोटेंशियल शिकार हैं इस खेल के और आपका इस्तेमाल होना तय है.
मेरी ज़िंदगी में ऐसी कोई आस्था, निष्ठा नहीं— ऐसा कुछ भी नहीं, जिसकी आलोचना या अपमान मैं सह न सकता होऊं या कर न सकता होऊं. ईश्वरीय जैसा कुछ होता नहीं और दुनिया में पैदा हुए हर इंसान को मैं अच्छाई और बुराई का कंबाइंड मॉडल मानता हूं, यह फ़ीचर उसमें कम या ज्यादा हो सकते हैं. यह कारण है कि मैं किसी को पसंद भी करता हूं तो उसकी खामियों के साथ.
मसलन, मुझे सलमान खान पसंद है, लेकिन मुझे यह स्वीकारने में कोई दिक्कत नहीं कि वह एक घटिया ऐक्टर है. मुझे क्रिकेटर के तौर पर सबसे पसंदीदा सौरव गांगुली रहा, लेकिन मैं मानता हूं कि वह तकनीकी रूप से राहुल द्रविड़ से कमज़ोर था और पुल शॉट में वह लचर साबित होता था. मुझे नेताओं में राहुल गांधी पसंद है, लेकिन मानता हूं कि राजनीतिक परिपक्वता का उसमें अभाव है और अक्सर जिन बातों का वह मंच से विरोध करता है, राज्यों में उसकी सरकारें वही काम कर रही होती हैं.
जब अपनी पसंद के लोगों की कमी को मान ही रहा हूं तो भला उनकी आलोचना या अपमान से मुझे क्या दिक्कत होगी. आप धर्म के सहारे मुझे हिट करना चाहो तो सबसे मुख्य मुहम्मद साहब थे, उस धर्म के संस्थापक जिसमें मैं पैदा हुआ, मानता हूं कि अरब के बद्दू समाज को एकीकृत कर एक राजीनीतिक ताक़त बनाने में उनका बड़ा योगदान था और उस नज़रिए से उन्हें समाज सुधारक का दर्जा भी दिया जा सकता है, लेकिन इंसान ही थे. आप मुझे हर्ट करने की कोशिश में उनकी कमियां और बुराईयां लेकर मेरे पास आओगे तो हर्ट होने की बजाए मैं उनकी चार और खामियां बता दूंगा.
तो कुल जमा जोड़ यह कि अगर आपका ख़ुद पर इतना कंट्रोल है कि आप स्क्रीन पर अपनी दिलचस्पी तय न होने दें और हर्ट या उत्तेजित होने के लिये आपमें किसी भी तरह की आस्था या निष्ठा का घोर अभाव है— तब तो आप इस एआइ के खेल से इस फ़ील्ड में सुरक्षित हैं कि यह आपकी विचारधारा को नियंत्रित नहीं कर सकता. बाकी चूंकि इससे आपकी सारी बायोमेट्रिक/नॉन-बायोमेट्रिक/फ़ाइनेंशियल इन्फ़र्मेशन जुड़ी है तो बाकी जगहों पर आप तब भी इसके निशाने पर हैं और यह कभी भी आपका अहित कर सकता है, किसी हैकर का टूल बन कर या आपसे आँख टेढ़ी करने वाली सत्ता का टूल बन कर.
फ़ोटो साभार: फ्रीपिक