हाल ही में उत्तर प्रदेश से एक ख़बर सामने आई है कि एक महिला के चतुर्थ श्रेणी कर्मी पति ने उन्हें शादी के बाद पीसीएस देने के लिए तैयारी करने को कहा और वे एसडीएम बनीं. अब वे अपने से ओहदे में निचले स्तर पर काम करने वाले पति के साथ जीवन नहीं बिताना चाहती हैं. इस मामले ने मुझे यह सोचने पर विवश कर दिया है कि महिलाएं और पुरुष दोनों ही पितृसत्ता से पीड़ित भी हैं और उसके वाहक भी. हालांकि ऐसे मामले में बहुत सी बातें अंतर्निहित होती हैं, जिससे चीज़ें जटिल हो जाती हैं, लेकिन यदि महिलाएं और पुरुष संवदनशीलता के साथ साझा प्रयास करें तो ही बात बन सकती है.
बात की शुरुआत मैं अपने घर से करना चाहूंगी. मेरे नानाजी एक सरकारी विभाग में तृतीय श्रेणी कर्मचारी थे. जैसा कि मुझे पता है कि जब उनकी शादी हुई तब नानीजी महज़ दसवीं पास थीं. शादी के बाद नानाजी ने उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे ग्राम सेविका के पद के लिए आवेदन दें. नानीजी ने पहले इनकार किया, फिर राज़ी हो गईं. उन्होंने आवेदन दिया और उनका चयन हो गया. अपनी समझ से मुझे लगता है कि ये आज़ादी यानी 1947 के आसपास की बात होगी. इस बीच मेरी मां ने भी जन्म ले लिया. कुछ ही सालों में मेरी नानी का प्रमोशन हो गया और नानाजी उसी पद पर थे, जिस पर अब तक रहे आए थे. नानाजी को थोड़ी असुरक्षा होने लगी तो उन्होंने नानीजी से नौकरी छोड़ने को कहा. लेकिन नानीजी को ख़ुदमुख़्तार होना एक अलग ही तरह का आत्मविश्वास दे रहा होगा अत: उन्होंने नौकरी नहीं छोड़ी, बल्कि नौकरी के साथ-साथ बीए भी कर लिया.
कुछ ही सालों में वे प्रमोशन पाकर द्वितीय श्रेणी की अधिकारी बन गईं और इस प्रक्रिया में नानाजी-नानीजी के बीच के संबंध बिगड़ने लगे. जिसका ख़ामियाज़ा उनकी बेटी यानी मेरी मां ने भुगता. उनका बचपन माता-पिता के बीच कलह देखते हुए बीता, जो किसी भी बच्चे के लिए बहुत दुखद होता है. अंतत: यह झगड़ा इतना बढ़ा कि नानाजी और नानीजी अलग-अलग रहने लगे और मेरी मां एक बरस अपने अभिभावकों में से एक के पास रहतीं तो दूसरे बरस उन्हें रखने की ज़िम्मेदारी उनका दूसरा अभिभावक निभाता. इसका असर मेरी मां पर इतना ज़्यादा पड़ा कि वे बहुत इमोशनल हो गईं और अपनी शादी के बाद उम्र के चौंथे दशक में वे डिप्रेशन का शिकार हो गईं.
कभी-कभी मैं सोचती हूं कि क्या होता यदि नानाजी ने नानीजी को नौकरी के लिए प्रेरित न किया होता? शायद उनका परिवार भी आम परिवारों की तरह होता और मां डिप्रेशन में न जातीं. फिर लगता है क्या होता यदि नानीजी आगे बढ़ रही थीं तब नानाजी ख़ुद को समझा लेते कि मेरी ही तो पत्नी है, आगे बढ़ रही है तो मेरा ही तो मान बढ़ रहा है. फिर लगता है कि क्या होता यदि नानाजी ओहदा बढ़ने के बाद भी नानाजी के साथ ही रहतीं, क्योंकि आख़िरकार तो एक परिवार एक पति-पत्नी के साथ रहने से ही बनता है. लेकिन कुछ अहंकार और कुछ पितृसत्तात्मक सोच इन दोनों के घालमेल ने न उन्हें साथ रहने दिया और न ही मेरी मां को एक सामान्य बच्चे का सा जीवन मिल पाया. जब हमारी मां डिप्रेशन में चली गईं तो उनके बच्चों यानी हमें भी बहुत सामान्य सा जीवन नहीं मिला. कहने का मतलब ये कि पितृसत्ता का असर एक परिवार पर ही नहीं, कई पीढ़ियों पर भी पड़ता है.
अब बात आज के दौर की करती हूं एक दिन सोशल मीडिया स्क्रॉल करते हुए किसी का लिखा हुआ पढ़ा, जिसका सार था: जब केवल पुरुष पढ़ते थे और महिलाओं को पढ़ने का मौक़ा न के बराबर मिला करता था, तब पढ़े-लिखे, कमाऊ पुरुष अनपढ़ या नौकरी/व्यापार न करने वाली महिलाओं के साथ विवाह करते और घर बसाया करते थे. लेकिन अब जबकि महिलाएं पढ़ रही हैं तो वे अपने से कम कमाने वाले या कम पढ़े-लिखे पुरुष के साथ घर बिल्कुल नहीं बसाना चाहतीं. यह पढ़कर मेरे चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान आ गई- आख़िर पढ़ी-लिखी, कमाऊ लड़की अपने से कम पढ़े, कम कमाने वाले व्यक्ति के साथ घर न बसाना चाहे तो यह उसका चुनाव है, इससे किसी को कोई आपत्ति क्यों लेनी चाहिए? और ऐसी बकवास पोस्ट आख़िर डाली ही क्यों गई?
लेकिन बाद में जब इस बात को गहराई से सोचा तो दो बातें सामने आईं. पहली ये कि मैं हमेशा से सोचती और मानती हूं कि महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होना चाहिए, क्योंकि इससे उन्हें निर्णय लेने की स्वतंत्रता मिलती है. आप लाख नकारें, लेकिन सच्चाई यही है कि इस संसार में जो आर्थिक रूप से मज़बूत होगा, उसकी बात सुनी जाती है फिर चाहे बात घर-परिवार की हो या समाज की. और कमाने के मामले में भी तो यह बात सही है कि जो ज़्यादा कमाएगा, उसकी ज़्यादा चलेगी. तो पहली बात यह सोचने में आई कि यदि कोई महिला यह चाहती है कि उसका पति उससे ज़्यादा कमाए (ग़ौर करने पर आप भी पाएंगे कि यह पितृसत्ता की सोच और देन है) तो कमाने या अर्थोपार्जन की गणना के हिसाब से वह और उसका पति (पढ़े-लिखे हैं तो) यह बात जानते हैं कि ऐसे में चलेगी तो ज़्यादा कमाने वाले की ही. यानी जाने-अनजाने अपने से ज़्यादा कमाने वाले पुरुष की चाहत रखकर महिला ने पितृसत्ता के पोषण में भागीदारी ही की. और बजाय इसके यदि महिला अपने परिवार में वह ज़्यादा कमाने वाली है तो ज़ाहिरतौर पर उसके परिवार में उसकी बात को तरजीह मिलेगी. लेकिन यहां भी एक पेंच है, जब महिला ज़्यादा कमाने लगती है तो पुरुष की पितृसत्तात्मक सोच उस पर हावी हो जाती है और वह चाहता है कि ज़्यादा कमाने पर भी पत्नी अपने पति की ही बात सुने और इस कुंठा में वह अपनी पत्नी के साथ सख़्ती या किसी तरह की ख़ब्त के साथ पेश आने लगता है. जिसके नतीजे में घर में कलह होने लगती है.
और दूसरी बात ये कि यह सच्चाई हमने-आपने भी देखी होगी कि हमारी दादियां/नानियां, हमारे दादा/नाना की तुलना में कम पढ़ी-लिखी ही हुआ करती थीं, बावजूद इसके उनके पतियों ने उनके साथ घर बसाया, परिवार बढ़ाया. हालांकि हुआ यह भी पितृसत्ता के चलते ही, लेकिन इस मामले में पुरुषों को (पितृसत्ता के बावजूद) थोड़ा उदार तो माना ही जाना चाहिए. मैं यह नहीं कह रही कि उन्होंने अपनी पत्नियों का दमन नहीं किया होगा या कहीं और रिश्ते नहीं बनाए होंगे, लेकिन वो एक अलग ही मसला है. और जो मसला मैं यहां उठाना चाहती हूं, वह ये है कि पितृसत्ता ने पुरुषों को कठोर बनाकर, उनकी जो कंडिशनिंग की है, उसके साथ ही साथ महिलाओं की भी कंडिशनिंग होती चली गई कि पुरुष उससे ज़्यादा कमाऊ हो, ज़्यादा पढ़ा-लिखा हो, उससे अधिक उम्र का हो, उससे लंबा हो वगैरह. यानी देखा जाए तो आज की महिलाएं भी पितृसत्ता के एक हिस्से की (अपने फ़ायदे की बातों में) वाहक तो बन ही गईं.
ये बातें महिलाओं और पुरुषों की कंडिशनिंग का इतना गहरा हिस्सा बन गई हैं कि पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुष भी इस कंडिशनिंग से उबर नहीं पाते हैं. यदि इस कंडिशनिंग से कुछ अलग हो तो वे मुखर होकर इसका विरोध दर्ज करते हैं. उदाहरण के लिए आज भी यदि कोई पुरुष अपने से बड़ी उम्र की महिला से शादी करे, अपने से लंबी महिला से शादी करे या फिर अपने से ज़्यादा कमाने वाली महिला से शादी करे तो लोग उस जोड़े को लानत-मलामत भेजने या उनका मज़ाक उड़ाने से नहीं चूकते. और इसलिए आप पाएंगे कि अधिकतर लोग इन आज भी इन पितृसत्तात्मक मापदंडों से परे विवाह नहीं करते हैं.
यहां मेरे मन में अक्सर एक सवाल आता है कि सभी फ़ेमिनिस्ट्स (सूडो-फ़ेमिनिस्ट्स नहीं!) चाहते हैं कि महिलाओं और पुरुषों को बराबर माना जाए, उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार हो, है न? पर अक्सर पितृसत्ता ने महिलाओं को जो नुक़सान पहुंचाया है, उस पर तो बहुत सी बातें सुनाई देती हैं, लेकिन पुरुषों को जो नुक़सान पहुंचाया है, उस पर क्यों बात नहीं होती? आख़िर बराबरी की ही बात चल निकली है तो पुरुषों को भी यह पूछने का हक़ होना चाहिए कि आख़िर क्यों ज़रूरी है कि मेरी आय मेरी पत्नी से ज़्यादा हो? दरअसल तो एक परिवार में किसकी आय कितनी है, इस बात से किसी को कितना सम्मान मिलेगा या किसकी कितनी चलेगी जैसी बातों पर कोई असर ही नहीं पड़ना चाहिए. न पहले पड़ना चाहिए था, न अब पड़ना चाहिए. लेकिन व्यावहारिक तौर पर पड़ता तो है! तो जब बात बराबरी की निकले तो पितृसत्ता के कुछ बिंदु जो सीधे ही महिलाओं के विरोध में थे, उनसे लड़ने के साथ ही, हमें अपनी कंडिशनिंग बदलने की कोशिश करते हुए उन कुछ मुद्दों पर भी चर्चा करना चाहिए, जिनकी वजह से पितृसत्ता ने पुरुषों के साथ भेदभाव किया.
इस मुद्दे पर इतनी सारी बातें इसलिए, क्योंकि हाल ही में उत्तर प्रदेश के बरेली ज़िले में तैनात एक महिला एसडीएम के बारे में एक ख़बर सामने आई है कि उनके चतुर्थ श्रेणी कर्मी पति ने उन्हें शादी के बाद पीसीएस देने के लिए तैयारी करने को कहा और वे एसडीएम बनीं. अब वे अपने से ओहदे में निचले स्तर पर काम करने वाले पति के साथ जीवन नहीं बिताना चाहती हैं. जिसके बाद पति ने ख़ुद को अपनी पत्नी और उनके प्रेमी से जान का ख़तरा बताते हुए पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई है. इस बात में क्या और कितनी सच्चाई है यह तो वह महिला और उनके पति ही जानते हैं और बाक़ी की जानकारी भी पुलिस की जांच के बाद ही सामने आएगी. अत: उस पर हम चर्चा नहीं करेंगे, लेकिन इस मामले ने इस मुद्दे को तो प्रकाश में ला ही दिया है कि पितृसत्ता की कंडिशनिंग यदि अधिकांश पुरुषों के मन से नहीं निकल पाई है तो अधिकांश महिलाएं भी कहीं न कहीं इसकी वाहक बन ही हुई हैं.
मैं यह बिल्कुल नहीं कहना चाहती हूं कि यदि आपका विवाह अच्छा नहीं चल रहा हो तो आप तलाक़ न लें, अपने पति/पत्नी से अलग न हों, बल्कि यह कहना चाहती हूं कि इस बात पर भी ध्यान दें कि अक्सर पितृसत्तात्मकता के अन्याय का भुक्तभोगी महिलाओं को ही माना जाता है, लेकिन पुरुष भी पितृसत्ता की मार के शिकार हुए हैं, जैसे- उन्हें मर्द होने के नाम पर जबरन कठोर बनना, हिंसा करना, संवेदनशील न बनना, घर के लिए आजीविका कमाना और उसका रौब गांठना जैसी चीज़ें अनजाने ही सिखाई गईं, जो उनके व्यवहार का हिस्सा बनती चली गईं. जिसका ख़ामियाज़ा पुरुष ख़ुद भी उठाते रहे हैं! सबसे ज़्यादा इस रूप में कि उनकी इसी कंडिशनिंग के चलते वे अपने परिवार के सदस्यों पर न तो खुलकर प्रेम लुटा सके और न ही उनका प्रेम पा सके. परिवार के मुखिया बनकर, रौब गांठकर भी अंतत: उन्होंने ख़ुद को अक्सर अकेला ही पाया.
तो अब, जबकि हम पितृसत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं, इसमें शामिल सभी पीड़ितों की बात संवेदनशीलता से उठाई जानी चाहिए, फिर चाहे वो महिलाओं के साथ-साथ इससे पीड़ित पुरुष ही क्यों न हों. पितृसत्ता की हज़ारों बरस की कंडिशनिंग को बदलने पर पुरुषों को ही नहीं महिलाओं को भी ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इकतरफ़ा कोशिश से नहीं, बल्कि साझा प्रयासों से ही कुछ बात बन सकती है.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट