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ध्यानसिंह, जो बन गए हॉकी के जादूगर ध्यानचंद

मेजर ध्यानचंद की शख़्सियत के वे पहलू, जो आपको मालूम होने चाहिए

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 26, 2023
in ओए हीरो, ज़रूर पढ़ें, शख़्सियत
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ध्यानसिंह, जो बन गए हॉकी के जादूगर ध्यानचंद
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हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद ने तीन ओलंपिक खेलों में भारत को गोल्ड मेडल दिलाए थे. ये वह दौर था, जब देश गुलाम था. गुलाम देश के नागरिक होते हुए एक सैनिक का मेजर बनने का सफ़र उनकी क़ाबिलियत को दिखाता है. उनकी जन्मतिथि 29 अगस्त को प्रति वर्ष हमारे देश में राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है. आइए, आज मेजर ध्यानचंद की शख़्सियत से रूबरू होते हैं सर्जना चतुर्वेदी के इस आलेख के ज़रिए.

किसी भी खिलाड़ी का खेल के प्रति समर्पण और कड़ी मेहनत ही उसे ऊंचाई तक पहुंचाते हैं. देश के राष्ट्रीय खेल हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की लोकप्रियता के बारे में उनसे जुड़े कई क़िस्से-कहानियां हैं. हॉलैड में उनकी हॉकी स्टिक तुड़वाकर देखी गई कि कहीं इसमें चुंबक तो नहीं लगी है. जापान में लोगों को शक़ था कि उनकी हॉकी में गोंद लगी हुई है. उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी लगा सकते हैं कि विएना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है, जिसमें उनके चार हाथ और उनमें चार स्टिकें दिखाई गई हैं. जिस दौर में बिजली नहीं थी, उस वक़्त वे दिन में सूरज की रोशनी में खेलते थे, तो रात को चंद्रमा की चांदनी की रोशनी में भी घंटों अकेले प्रैक्टिस करते थे. हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद ने तीन ओलंपिक खेलों में भारत को गोल्ड मेडल दिलाए थे. ये वह दौर था, जब देश गुलाम था इसलिए ओलंपिक में जीत के बाद एक बार जब ब्रिटिश यूनियन का झंडा लहराते हुए देखा तो ध्यानचंद की आंखों में आंसू थे, किसी ने पूछा क्या हुआ तो उनका जवाब था कि आज मेरा देश आजाद होता तो यहां यह झंडा नहीं तिरंगा झंडा लहरा रहा होता. 29 अगस्त को मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन होता है, जिसे राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है. आइए, उनके जीवन और संघर्ष से जुड़े कुछ रोचक प्रसंग जानते हैं.

इस तरह हुई शुरुआत: गुलाम देश के नागरिक होते हुए एक सैनिक का मेजर बनने का सफ़र उनकी क़ाबिलियत को दिखाता है. मेजर ध्यानचंद का जन्म इलाहाबाद में 29 अगस्त 1905 में हुआ था. शुरुआत में उन्हें हॉकी के बजाय कुश्ती खेलने में रुचि थी. बचपन में परिवार के साथ वह रानी लक्ष्मीबाई की कर्मभूमि झांसी में बस गए थे. ध्यानचंद ने 16 वर्ष की उम्र में आर्मी जॉइन करने से पहले कभी हॉकी नहीं खेली थी. तब ध्यानसिंह एक सिपाही थे, जो साथी जवानों के साथ सुबह-सुबह परेड पर जाते थे. उस वक़्त आर्मी के जवानों का हॉकी और फ़ुटबॉल जैसे खेलों की ओर रुझान बढ़ रहा था. ध्यानसिंह भी साथी जवानों को हॉकी खेलते देखते थे, हालांकि ध्यानसिंह को हॉकी खेलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. इस बात का जिक्र किताब रचना भोला यामिनी द्वारा लिखित किताब ‘द लाइफ़ ऐंड टाइम्स ऑफ़ ध्यानचंद’ में भी है. इस किताब में बताया गया है कि, एक बार ध्यानसिंह ऐसे ही हॉकी लेकर बॉल को मार रहे थे, वहीं पास खड़े सूबेदार बाले तिवारी यह सब देख रहे थे. सूबेदार बाले ने ध्यानसिंह को बताया कि हॉकी कोई बच्चों का खेल नहीं, इसके बाद उन्होंने ध्यानसिंह को हॉकी की टेक्निक बताई. धीरे-धीरे समय गुज़रता गया, ध्यानसिंह हॉकी की कड़ी ट्रेनिंग लेते रहे. वह दिन-रात की परवाह किए बगैर, बस हाथ में हॉकी स्टिक लेकर मैदान में जुट जाते थे. यही नहीं, चांद की रोशनी में भी ध्यानसिंह हॉकी की प्रैक्टिस करना नहीं भूलते थे. ध्यानसिंह के इस खेल के प्रति जुझारूपन देखकर एक दिन बाले तिवारी ने हॉकी के जादूगर को अपने पास बुलाया और कहा आज से हम तुम्हें ध्यानचंद बुलाएंगे, क्योंकि ध्यान तुम्हारा नाम है और तुम चांद की तरह इस आकाश में चमकने वाले हो.

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जब हारने वाली टीम की तरफ़ से खेलने का निर्णय लिया: झांसी के सीपरी में स्थिति हीरोज़ ग्राउंड का उनके जीवन में अहम स्थान रहा है. यह आज उनका समाधि स्थल है. इस मैदान की उबड़-खाबड़ जमीन पर वह स्वयं हॉकी की प्रेक्टिस करते थे और साथी खिलाड़ियों को भी यह खेल सिखाते थे. उनका खेल इतना अच्छा था कि कपडे़ की गेंद मानो सिर्फ़ उनकी हॉकी स्टिक से ही चिपकी रहती थी. प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी उनसे गेंद छीन नहीं पाते थे. उनके खेल जीवन में निर्णायक मोड़ तब आया, जब वह अपने पिता के साथ श्री लक्ष्मी व्यायाम मंदिर इंटर कॉलेज में एक हॉकी मैच देखने गए. एक टीम जब हारने लगी तो ध्यानचंद ने हार रही टीम की ओर से खेलने की इच्छा जताई. इस दौरान वहां मौजूद आर्मी ऑफ़िसर ध्यानचंद को खिलाने के लिए राजी हो गए. इसके बाद ध्यानचंद ने मैदान में उतरने क बाद चार गोल किए और खेल की बाजी पलटते हुए हारती हुई टीम को जीत दिलाई. इसके साथ ही उनके हॉकी के स्वर्णिम करियर की शुरुआत हो गई. वर्ष 1926 में वह भारतीय हॉकी टीम में शामिल हुए. उन्होंने वर्ष 1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक, वर्ष 1932 के लॉस एंजलिस ओलंपिक और वर्ष 1936 के बर्लिन ओलपिंक में 39 गोल किए और अपनी टीम को विश्व हॉकी का बादशाह बना दिया. वह ऐसे अकेले हॉकी खिलाड़ी हैं, जिन्होंने लगातार तीन ओलंपिक में भारत को गोल्ड मेडल दिलवाए. मेजर ध्यानचंद के अंतरराष्ट्रीय मैचों में 400 और घरेलू हॉकी में एक हज़ार से अधिक गोल हैं.

आत्मकथा में किया इस हार का जिक्र: वर्ष 1936 के ओलंपिक खेल शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में भारतीय टीम जर्मनी से 4-1 से हार गई. ध्यानचंद अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखते हैं, “मैं जब तक जीवित रहूंगा इस हार को कभी नहीं भूलूंगा. इस हार ने हमें इतना हिला कर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाएर. हमने तय किया कि इनसाइड राइट पर खेलने के लिए आईएनएस दारा को तुरंत भारत से हवाई जहाज़ से बर्लिन बुलाया जाए.” दारा सेमी फ़ाइनल मैच तक ही बर्लिन पहुंच पाए. जर्मनी के ख़िलाफ़ फ़ाइनल मैच 14 अगस्त 1936 को खेला जाना था, लेकिन उस दिन बहुत बारिश हो गई इसलिए मैच अगले दिन यानी 15 अगस्त को खेला गया. मैच से पहले मैनेजर पंकज गुप्ता ने कांग्रेस का झंडा निकाला. उसे सभी खिलाड़ियों ने सेल्यूट किया (उस समय तक भारत का अपना कोई झंडा नहीं था, वो गुलाम देश था इसलिए यूनियन जैक के तले ओलंपिक खेलों में भाग ले रहा था). बर्लिन के हॉकी स्टेडियम में उस दिन 40,000 लोग फ़ाइनल देखने के लिए मौजूद थे. बड़ौदा के महाराजा और भोपाल की बेग़म, जर्मन तानाशाह एडॉल्फ़ हिटलर समेत कई प्रतिष्ठित लोग मौजूद थे. ताज्जुब ये था कि जर्मन खिलाड़ियों ने भारत की तरह छोटे-छोटे पासों से खेलने की तकनीक अपना रखी थी. हाफ़ टाइम तक भारत सिर्फ़ एक गोल से आगे था. इसके बाद ध्यानचंद ने अपने स्पाइक वाले जूते और मोज़े उतारे और नंगे पांव खेलने लगे. इस मैच में 6 से ज़्यादा गोल करके ध्यानचंद ने भारत को जीत दिलाई. बर्लिन ओलपिंक में ध्यानचंद के हॉकी के मैच को देखने के बाद वहां पर अख़बारों और पोस्टर में ध्यानचंद के हॉकी के जादू का जिक्र किया गया.

जब हिटलर ने बुलाया था मेजर ध्यानचंद को: वर्ष 1936 के ओलंपिक मैच में भारत ने जर्मनी को हॉकी के फ़ाइनल मैच में जब 8-1 की शिकस्त दी तो अपनी टीम को हारता हुआ देखकर हिटलर ने मैदान छोड़ दिया था. लेकिन मैच के बाद हिटलर ने मेजर ध्यानचंद को मिलने के लिए बुलाया. तानाशाह के बुलाने की ख़बर सुनकर ध्यानचंद बैचेन हो गए और सारी रात सो न सके. लेकिन जब हिटलर से मुलाक़ात हुई और हिटलर ने ध्यानचंद को जनरल का पद, जर्मन नागरिकता समेत कई सुविधाएं देने का ऑफ़र देते हुए जर्मनी की टीम जॉइन करने के लिए कहा. ध्यानचंद ने विनम्रतापूर्वक यह कहकर मना कर दिया कि मैं अपने देश में ख़ुश हूं और हमेशा अपने देश के लिए ही खेलूंगा. उनकी देशभक्ति ही थी कि उन्हें तीन बार विदेशों से कोच बनने का ऑफ़र मिला, पर उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि उनके बताए गुर सीखकर विदेशी भारत के ख़िलाफ़ ही उसका इस्तेमाल करेंगे.

हॉकी के जादूगर के नाम पर मनाया जाता है राष्ट्रीय खेल दिवस: हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद देश के पहले ऐसे खिलाड़ी है, जिन्हें वर्ष 1956 में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने पद्म विभूषण पदक से सम्मानित किया था. वहीं वर्ष 1994 में 29 अगस्त को भारत सरकार ने खेल दिवस घोषित किया था. देश के सभी खेल पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार, अर्जुन अवॉर्ड सभी पुरस्कार इस दिन दिए जाते हैं. वर्ष 1956 में भारतीय सेना से मेजर के पद से रिटायर होते समय ध्यानचंद की उम्र 51 साल थी. रिटायर होने के बाद भी उन्होंने हॉकी नहीं छोड़ी और कुछ वर्ष राजस्थान के माउंट आबू में कोचिंग देने के बाद पटियाला के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ स्पोर्ट्स में वे चीफ़ हॉकी कोच बन गए. दिल्ली के एम्स में उन्होंने 3 दिसंबर 1979 में हमेशा-हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया था.

जब सहगल ने गाए ध्यानचंद के लिए गाने: हॉकी प्लेयर ध्यानचंद और बॉलिवुड सिंगर केएल सहगल से जुड़ा एक रोचक क़िस्सा है. मशहूर फ़िल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर हॉकी के जादूगर के बड़े प्रशंसक थे. एक दिन पृथ्वीराज गायक सहगल को लेकर मुंबई में एक मैच देखने गए. इस मैच में ध्यानचंद और उनके भाई रूप सिंह भी खेल रहे थे. मैच शुरु हुए जब ज़्यादा वक़्त बीत गया तो सहगल ने कहा कि, ये कैसे नामी खिलाड़ी हैं अब तक एक गोल नहीं कर पाए. यह बात रूप सिंह को पता चली तो उन्होंने सहगल से शर्त लगाई कि हम जितने गोल करेंगे उतने गाने क्या आप गाएंगे, सहगल ने ‘हां’ कह दिया. बस फिर क्या ध्यानचंद और रूप सिंह ने मिलकर मैच में 12 गोल दागे. लेखक निकेत भूषण की किताब ‘ध्यानचंद द लीजेंड लिव्स ऑन’ में इस घटना का ज़िक्र है. तब तक सहगल घर जा चुके थे. अगले दिन सहगल ने अपने स्टूडियो आने के लिए ध्यानचंद के पास अपनी कार भेजी, लेकिन जब ध्यानचंद वहां पहुंचे तो सहगल ने कहा कि गाना गाने का उनका मूड नहीं है. ध्यानचंद बहुत निराश और नाराज़ हुए कि सहगल ने उनका समय ख़राब किया, लेकिन अगले दिन सहगल खुद अपनी कार में उस जगह पहुंचे, जहां उनकी टीम ठहरी हुई थी और उन्होंने उनके लिए 14 गाने गाए. न सिर्फ़ गाने गाए, बल्कि उन्होंने हर खिलाड़ी को एक-एक घड़ी भी भेंट की!

ध्यानचंद को दिए गए ये सम्मान: मेजर ध्यानचंद को उनके जीवन काल में जिन पुरस्कारों से नवाज़ा गया उनके बारे में तो हम आपको बता ही चुके हैं, लेकिन पुरस्कारों और सम्मानों से जुड़ी कुछ और बातें, जो आपको मेजर ध्यानचंद के बारे में मालूम होनी चाहिए, वे नीचे मौजूद हैं-

– मेजर ध्यानचंद के नाम पर भारत सरकार लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड देती है.

– भारत सरकार एवं कई राज्यों की सरकार उनके नाम पर खिलाड़ियों को पुरस्कार एवं सम्मान देती है.

– ध्यानचंद देश के पहले खिलाड़ी है, जिनकी फ़ोटो के साथ भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया.

– ध्यानचंद देश के प्रथम खिलाड़ी है, जिन्होंने लगातार तीन ओलंपिक खेलों में भारत को स्वर्ण पदक दिलाया.

– विएना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी मूर्ति लगाई गई है.

फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट

 

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