डॉक्टर दीपक आचार्य, जो पेशे से साइंटिस्ट और माइक्रोबायोलॉजिस्ट थे, जिन्होंने मेडिसनल प्लांट्स में पीएचडी और पोस्ट डॉक्टरेट किया था. पिछले 22 वर्षों से वे हिंदुस्तान के सुदूर आदिवासी इलाक़ों से आदिवासियों के हर्बल औषधीय ज्ञान को एकत्र कर, उस पर वैज्ञानिक नज़रिए से शोध कर रहे थे. वे जितने ज्ञानी थे, उतने ही विनम्र और ज़िदादिल. यह बात उनसे जुड़ा हर व्यक्ति मानेगा कि वे बेहद सरल इंसान थे. उनकी शख़्सियत का एक पहलू, जिसे ओए अफ़लातून से उन्हें जोड़ने के दौरान मैंने जाना-समझा, उन्हें याद करते हुए आपके साथ साझा कर रही हूं.
‘‘आप चाहे जो भी ‘आचार्य’ हों, बंगाली, साउथ इंडियन या फिर हिंदी पट्टी वाले… शादी से पहले मेरा सरनेम भी ‘आचार्य’ था तो मैं मानकर चलती हूं कि आप मेरे मायके वाले हैं.’’ पहली बार फ़ोन पर हुई हमारी बातचीत के दौरान मेरे यह कहते ही वे हंस पड़े थे. यह वह रिश्ता था, जिसकी शुरुआत वर्ष 2021 के अगस्त महीने में हुई थी. बीते दो वर्षों में हमने शायद कुल जमा दो या तीन बार कोई घंटेभर तक फ़ोन पर बात की होगी और कुछ वॉट्सऐप मैसेजेस का आदान-प्रदान हुआ होगा. पर यही ख़ास बात है डॉक्टर दीपक आचार्य के बारे में कि उनसे किसी भी तरह जुड़ा हुआ व्यक्ति, उनसे बातचीत के दौरान इतनी ही गर्माहट महसूस करता था, जैसे वे उसके बहुत आत्मीय अपने हों. आमने-सामने उनसे कभी मुलाक़ात हुई ही नहीं और अब यह कभी न हो सकेगा, इस बात की कसक हमेशा मन में रहेगी.
अपनी वेबसाइट ओए अफ़लातून को लॉन्च किए चार महीने हुए होंगे. मैं हेल्थ के सेक्शन में कॉलम लिखने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में थी, जो सेहत पर आम लोगों को स्थानीय खानपान से जोड़ सकने से जुड़े आलेख लिखता या लिख सकता हो. इस दौरान मेरी लेखक मित्र इरा टाक ने मुझे दीपक आचार्य जी के बारे में बताया था और मैं फ़ेसबुक पर उनसे जुड़ी. उनके दो-चार आलेख पढ़ते ही मुझे यह समझ में आ गया कि जिस तरह के आलेख मैं वेबसाइट पर देना चाहती हूं, डॉक्टर आचार्य बिल्कुल वैसा ही लिखते हैं. उनके आलेखों की भाषा बेहद सहज और चुटीली थी और उसमें मौजूद ज्ञान बेहद गहरा, समझने में आसान और अमल में ला पाने जैसा होता था. यह केवल उसी व्यक्ति के साथ हो सकता था, जिसकी अपने विषय पर बहुत गहरी पकड़ हो. उनकी वॉल पर कुछेक आर्टिकल पढ़ने के बाद बिना कोई देर करते हुए मैंने उन्हें अप्रोच किया और बताया कि मैं उनके आलेख लेना चाहती हूं. उनका जवाब भी तुरंत आया कि बिल्कुल आप ले लें, यह ज्ञान जितना अधिक फैले उतना अच्छा होगा.
इसके बाद जब कभी उनके आलेख लिया करती, उनके साथ लिंक साझा करती और इस दौरान उनसे छोटी-मोटी बातचीत हो जाया करती. कई लोगों की शख़्सियत ऐसी होती है कि उनसे आपकी पहचान का अर्सा मायने नहीं रखता, बल्कि उनसे कई मामलों में मिलती-जुलती आपकी फ्रीक्वेंसी और एहसासात मायने रखते हैं. मैं उन्हें हमेशा कहती कि आपके आलेखों की हेडिंग ज़बर्दस्त होती है अत: मैं उन्हें लेते समय वैसा का वैसा ही रखती हूं. जवाब में वे मुस्कुरा देते या फिर वॉट्सऐप पर उनका स्माइली आ जाता. यूं ही छोटी-छोटी बातें, जैसे ग़ुलाम अली साहब की ग़ज़लों का मुरीद होना, देसी भाषा, देसी खानपान और जंगलों में रुचि होना भी हमें एक-दूसरे से सोशल मीडिया के ज़रिए जोड़े रखता.
दूसरी बार उनसे फ़ोन पर हुई बातचीत में मैंने पूछा था, ‘‘जिन लोगों के पास ज्ञान होता है, अक्सर वे इतने बड़े हो जाते हैं कि उन तक पहुंच बन ही नहीं पाती. और अक्सर वे लोग अपना ज्ञान बांटते ही नहीं हैं फिर आप अपने ज्ञान को इतनी अच्छी तरह सबके साथ बांट कैसे लेते हैं?’’ उन्होंने कहा था, ‘‘ज्ञान को यदि साझा नहीं किया, बांटा नहीं तो ज्ञान के होने का फ़ायदा ही क्या है?’’ जब उन्होंने बताया था कि पेंगुइन से उनकी किताब जंगल लेबोरेटरी आ रही है तो जैसे उनके जानने वाले सभी लोग उत्साहित थे, मैं भी थी. पहली बार जब मार्च 2023 में पुस्तक मेले में दिल्ली जाना हुआ तो जो किताबें साथ लिए लौटी थी जंगल लेबोरेटरी उनमें से प्रमुख थी. डॉक्टर आचार्य की यह किताब हर घर में होनी चाहिए, जो हमें हमारे किचन में मौजूद चीज़ों का सही इस्तेमाल सिखाती है, हमें देसी और पारंपरिक ज्ञान से रूबरू कराते हुए स्वस्थ बने रहने के तरीक़े बताती है.
यह जीवन बेहद अप्रत्याशित और क्षणभंगुर है. इस बात पर विश्वास करने का मन नहीं हो रहा है, लेकिन आज रात तक़रीबन ढाई बजे डॉक्टर आचार्य एक ऑटो इम्यून डिज़ीज़ के इलाज के दौरान हमारे बीच नहीं रहे. उनकी बताई सेहत संबंधी बातों को आज़माने और अपनाने के बाद मैं यह कहूंगी कि डॉक्टर दीपक आचार्य मेरे साथ मेरी उन आदतों में हमेशा रहेंगे, जो मैंने उनके आलेख पढ़ने के बाद अपनाईं. अपने देश के पारंपरिक ज्ञान को विज्ञान की कसौटी पर परखकर आम लोगों तक सरल भाषा में पहुंचाने का कार्य करने वाले डॉक्टर दीपक आचार्य को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम पारंपरिक ज्ञान का इस्तेमाल करें, उसे अपनाएं, उसे बांटें और प्राकृतिक व स्थानीय खाद्य पदार्थों के ज़रिए ख़ुद को सेहतमंद रखें. जड़ों की ओर लौटें और भटकें – कुछ इस तरह कि हमारी सेहत ‘टनाटन’ रहे.
(उन्हें याद करते हुए, उन्हें श्रद्धांजलि देते इस आलेख में ‘टनाटन’ शब्द डॉक्टर दीपक आचार्य के एक आलेख से जस का तस ले लिया गया है.)