देश के पहले इंजीनियर, आधुनिक भारत के शिल्पकार और विश्वकर्मा कहलाने वाले सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का मत था कि प्रत्येक व्यक्ति को इतना काम करना चाहिए, जिससे वह अपना तथा अपने परिवार का भलीभांति निर्वाह कर सके और दूसरों पर बोझ न बने. उसे इसके अलावा कुछ और नहीं कमाना चाहिए, बल्कि बाक़ी सब राष्ट्रहित में करना चाहिए. उनके जन्मदिवस को हमारे देश में राष्ट्रीय अभियंता दिवस के रूप में मनाया जाता है. सर्जना चतुर्वेदी हमें रूबरू करा रही हैं उनकी शख़्सियत से.
आधुनिक भारत के शिल्पकार और विश्वकर्मा कहलाने वाले सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया देश के पहले इंजीनियर थे. अपनी प्रतिभा से ब्रिटिश काल के गुलामी के दौर में भी राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 15 सितंबर 1860 को तत्कालीन मैसूर राज्य और वर्तमान कर्नाटक के कोलार ज़िले के मुद्देनहल्ली ग्राम में जन्मे मोक्षागुंडम विश्वेश्वरैया (एम विश्वेश्वरैया) मैसूर के दीवान भी रहे. यह पद वर्तमान में एक राज्य के मुख्यमंत्री के समकक्ष होता है. उन्हें किंग जॉर्ज पंचम द्वारा ब्रिटिश इंडियन एम्पायर की उपाधि भी दी गई थी. उनके सम्मान में उनके जन्म दिवस के ही दिन देश में इंजीनियर्स डे मनाया जाता है.
उनकी तकनीकी सोच के कारण देश में कई बड़े काम हुए. देशभर में बने कई नदियों के बांध, पुल और पानी से जुड़ी कई योजनाओं को कामयाब बनाने के पीछे एम विश्वेश्वरैया का बहुत बड़ा हाथ है. इन्हीं के कारण देश में पानी की समस्या दूर हुई थी. दक्षिण भारत के मैसूर, कर्नाटक को एक विकसित और समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में एम विश्वेश्वरैया का अभूतपूर्व योगदान है. तक़रीबन 55 वर्ष पहले जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन ऐंड स्टील वर्क्स, मैसूर संदल ऑयल ऐंड सोप फ़ैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ़ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां उनके ही कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई. इसीलिए एम विश्वेश्वरैया को कर्नाटक का भागीरथ भी कहते हैं.
ब्रिटिश अफ़सरों ने की तारीफ़: एम विश्वेश्वरैया जब 32 वर्ष के थे तो उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर क़स्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया, जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया. सरकार ने सिंचाई व्यवस्था दुरुस्त बनाने के लिए एक समिति बनाई, जिसके तहत उन्होंने एक नया ब्लॉक सिस्टम बनाया. उन्होंने स्टील के दरवाज़े बनाए, जो बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करते थे. इस सिस्टम की तारीफ़ ब्रिटिश अफ़सरों ने भी की. उन्होंने मूसा और इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी योजना बनाई. इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ़ इंजीनियर नियुक्त किया गया.
अपने वेतन से बनवाया इंजीनियरिंग कॉलेज: उन्होंने जीवन के शुरुआती साल कर्नाटक में बिताए. उनके पिता संस्कृत के विद्वान थे, जो कि सादगीभरे जीवन में ही विश्वास रखते थे. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पीड्ब्लूडी में काम किया और फिर भारतीय सिंचाई आयोग में काम करने लगे. एम विश्वेश्वरैया का निधन 101 साल की उम्र में 14 अप्रैल 1962 को हो हुआ. जब वे महज 12 वर्ष के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया था इसलिए उनका बचपन और शिक्षा दोनों ही आर्थिक विषमताओं के बीच पूरी हुई. अपनी पढ़ाई के साथ-साथ वह ख़र्च चलाने के लिए ट्यूशन भी पढ़ाया करते थे. बीए के बाद इंजीनियरिंग की पढ़ाई उन्होंने पुणे के इंजीनियरिंग कॉलेज से की, जिसमें परीक्षा में सर्वोच्च रैंक हासिल की. इस दौरान पढ़ाई में भी मैसूर रियासत के राजा ने उनकी मदद की. चूंकि राजा शिक्षा के महत्व को समझते थे इसलिए मैसूर में उन्होंने अपने कार्यकाल में स्कूलों की संख्या 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दी थी. उस दौर में मैसूर, मद्रास यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आता था, तब एम विश्वेश्वरैया ने मैसूर के राज के सहयोग से वर्ष 1916 में देश की पहली ऐसी यूनिवर्सिटी स्थापित की, जो पूरी तरह भारतीय लोगों द्वारा स्थापित थी. इसके अलावा उन्होंने कई कॉलेज भी खुलवाए, ताकि देश के नौजवान अच्छी शिक्षा पा सकें. उन्होंने अपने निजी एक लाख रुपए से बेंगलुरु में इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित किया. लोगों ने उन्हें इस कॉलेज का नाम अपने नाम पर रखने कहा तो भी विनम्रता से उन्होंने उसे मैसूर के महाराज के नाम पर ही स्थापित किया.
उद्योगों को किया विकसित: एम विश्वेश्वरैया उद्योगों का महत्व जानते थे इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया. धन की ज़रूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ़ मैसूर खुलवाया. इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को विकसित करने में किया जाने लगा. उन्होंने वर्ष1885 में नासिक, पूना और देश के बाक़ी हिस्सों में असिस्टेंट और एग्ज़ेक्यूटिव इंजीनियर के तौर पर काम किया. वर्ष 1909 में उन्होंने ब्रिटिश सर्विस से रिटायरमेंट ले लिया और मैसूर रियासत में चीफ़ इंजीनियर का पद संभाला. वर्ष 1913 में वे मैसूर के दीवान बने. वर्ष 1918 में एम विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए.
ग़रीबी और बेरोज़गारी के लिए काम: एम विश्वेश्वरैया मैसूर राज्य में व्याप्त अशिक्षा, ग़रीबी, बेरोज़गारी, बीमारी आदि आधारभूत समस्याओं को लेकर भी चिंतित थे. कारखानों की कमी, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता और खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण मैसूर राज्य का विकास नहीं हो पा रहा था. इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने काफ़ी प्रयास किए. सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की दूरदर्शिता के कारण मैसूर में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाया गया और लड़कियों की शिक्षा के लिए पहल की गई. वह इतने ईमानदार थे कि जब राजा को इस्तीफ़ा देने के लिए गए तो लौटते समय वह अपनी निजी कार से आए. उनका ध्यान शिक्षा, ग़रीबी और बेरोज़गारी से जुड़ी समस्याओं पर ज़्यादा रहता था. वे वर्ष 1927 से 1955 तक टाटा स्टील के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर भी रहे. एम विश्वेश्वरैया ने दक्षिण बेंगलुरु में जयनगर के पूरे क्षेत्र को डिज़ाइन और प्लान किया था. जयनगर की नींव वर्ष 1959 में रखी गई थी. उनके द्वारा डिज़ाइन किया गया इलाक़ा एशिया के सर्वश्रेष्ठ नियोजित लेआउट में से एक था. देश के लिए दी गई सेवाओं के चलते वर्ष 1955 में एम विश्वेश्वरैया को देश के प्रतिष्ठित सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया था.
100 साल की उम्र में मंगायी थी मॉडर्न इंग्लिश डिक्शनरी: रिटायरमेंट का मतलब लोग रेस्ट समझते हैं, लेकिन एम विश्वेश्वरैया वर्ष 1918 में स्वैच्छिक रुप से सेवानिवृत्त हो गए और रिटायरमेंट के बाद भी और 44 वर्षों तक वह काम करते रहे. वह इतने ईमानदार व्यक्ति थे कि स्टेशनरी से लेकर कार तक यदि वह शासकीय काम के अलावा प्रयोग करते थे तो वह अपने पैसे से करते थे. सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया अपने जीवन के अंतिम समय तक सीखने में विश्वास करते रहे. जब उनकी उम्र 100 वर्ष पार कर चुकी थी, तब एक बार उनसे उनके एक रिश्तेदार ने कुछ लाने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि मॉडर्न इंग्लिश डिक्शनरी की किताब लाकर दे दीजिएगा. वह वक़्त के इतने पाबंद थे कि दीवान रहते हुए सुबह 7 बजे अपना काम शुरू कर देते थे और दोपहर तक करते थे, उसके बाद दोबार दोपहर तीन बजे से रात के 8 बजे तक कार्य करते थे. हमेशा समय पर पहुंच जाते थे और अगर यदि कोई कुछ मिनट लेट हो जाए तो उसे भी वक्त का पाबंद बनने की सलाह देते थे.
जब समझ गए आने वाले रेल हादसे को: ब्रिटिश भारत में एक रेलगाड़ी चली जा रही थी, जिसमें ज़्यादातर अंग्रेज़ सवार थे. एक डिब्बे में एक भारतीय मुसाफ़िर गंभीर मुद्रा में बैठा था. सांवले रंग और मंझले कद का वो मुसाफ़िर सादे कपड़ों में था और वहां बैठे अंग्रेज़ उन्हें मूर्ख और अनपढ़ समझकर मज़ाक उड़ा रहे थे. पर वो किसी पर ध्यान नहीं दे रहे थे. लेकिन अचानक उस व्यक्ति ने उठकर गाड़ी की ज़ंजीर खींच दी. तेज़ रफ़्तार दौड़ती ट्रेन कुछ ही पलों में रुक गई. सभी यात्री चेन खींचने वालों को भला-बुरा कहने लगे. थोड़ी देर में गार्ड आ गया और सवाल किया कि ज़ंजीर किसने खींची. उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘मैंने.’ वजह पूछी तो उन्होंने बताया, “मेरा अंदाज़ा है कि यहां से लगभग कुछ दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है.’ गार्ड ने पूछा, “आपको कैसे पता चला?’ वो बोले, “गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर आया है और आवाज़ से मुझे ख़तरे का आभास हो रहा है.’ गार्ड उन्हें लेकर जब कुछ दूर पहुंचा तो देखकर दंग रह गया कि वास्तव में एक जगह से रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए हैं और सब नट-बोल्ट अलग बिखरे पड़े हैं. यह देखकर लोगों ने उनके बारे में जानना चाहा, तो उन्होंने बताया कि मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम डॉ एम विश्वेश्वरैया है.
वे इंजीनियर, जिन्होंने बदली देश की तस्वीर: आज के दिन उन इंजीनियरों को याद करना भी बनता है, जिनके प्रयासों से स्वतंत्रता के बाद उदीयमान होते भारत को दृढ़ नींव मिली.
प्रोफ़ेसर सतीश धवन: भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक डॉ विक्रम साराभाई की अचानक मृत्यु के बाद उनके सपनों और वैज्ञानिक कार्यों को संभालने का कार्य प्रोफ़ेसर सतीश धवन ने किया. 25 सितंबर, 1920 को श्रीनगर में पैदा हुए सतीश धवन ने पंजाब विश्वविद्यालय से गणित में बीए, अंग्रेज़ी साहित्य में एमए और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बीई किया. आज़ादी के बाद वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए अमेरिका चले गए. वहां उन्होंने अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में एमएस की डिग्री पूरी की. इसके बाद वे एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल करने के लिए कैलिफ़ोर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (कैल्टेक) गए. सतीश धवन के प्रयासों से ही संचार उपग्रह इन्सैट, दूरसंवेदी उपग्रह आईआरएस और ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी का सपना साकार हो पाया था.
डॉ एपीजे अब्दुल कलाम: देश के सर्वोच्च पद यानी 11वें राष्ट्रपति, मिसाइलमैन और एक लोकप्रिय शिक्षक के रूप में पहचाने जाने वाले आमजन के राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर, 1931 को तमिल नाडु के रामेश्वरम् के एक गांव में हुआ था. उनके परिवार में पांच भाई और पांच बहन थे और उनके पिता मछुआरों को बोट किराए पर देकर घर चलाते थे. उनके पिता ज़्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं थे, लेकिन उंची सोच वाले व्यक्ति थे. कलाम का बचपन आर्थिक तंगी में बीता. कलाम ने अपनी आरंभिक शिक्षा रामेश्वरम् में पूरी की. सेंट जोसेफ़ कॉलेज से ग्रेजुएशन की डिग्री ली और मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की. उनकी लिखी हुई प्रसिद्ध पुस्तकें हैं- विंग्स ऑफ़ फ़ायर, इंडिया 2020, इग्नाइटेड माइंड, माय जर्नी आदि. अब्दुल कलाम को 48 विश्वविद्यालयों और इंस्टिट्यूशन्स से डाक्टरेट की उपाधि मिली है.
वर्गीस कुरियन: दूध की कमी से जूझने वाले देश को दुनिया का सर्वाधिक दूध उत्पादक देश बनाने में अहम भूमिका वर्गीस कुरियन ने निभाई. उनका जन्म केरल के कोझिकोड में 26 नवंबर, 1921 को हुआ था. देश में उनके जन्मदिन को नेशनल मिल्क डे के रूप में मनाया जाता है. उनके द्वारा शुरू किया गया ऑपरेशन फ़्लड दुनिया का सबसे बड़ा डेरी डवलमेंट प्रोग्राम था, जिससे भारत में दूध उत्पादन को बढ़ावा मिला. ऑपरेशन फ़्लड कार्यक्रम वर्ष 1970 में शुरू हुआ था. ऑपरेशन फ़्लड ने डेरी उद्योग से जुड़े किसानों को उनके विकास को स्वयं दिशा देने में सहायता दी, उनके संसाधनों का कंट्रोल उनके हाथों में दिया. राष्ट्रीय दुग्ध ग्रिड देश के दूध उत्पादकों को 700 से अधिक शहरों और नगरों के उपभोक्ताओं से जोड़ता है. उन्होंने ही अमूल की स्थापना की थी.
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