अपने जीवन में शादी जैसा बड़ा बदलाव आने के बाद अक्सर महिलाएं अपनी पुरानी सखियों और दोस्तों से संपर्क खो देती हैं. वे दोस्त जिनके बिना एक समय जीवन अधूरा लगता है, सालों-साल बात नहीं करते. पर जब कभी उनमें से कोई मिल जाए तो बीती यादों का पिटारा भी खुलता है और सबसे बातें करने की इच्छा भी जागती है. इस बात को ख़ूबसूरती से बयां करती है, यह कहानी.
शाम को चाय के वक़्त जैसे ही युविका ने फ़ोन हाथ में लिया स्क्रीन पर मैसेज नज़र आया- हाय! मिस चुलबुली. कैसी हो?मैसेज देखते ही शरीर में ख़ून का दौरा बढ़ गया. यह तो उसके स्कूल के दिनों का नाम था दोस्तों द्वारा दिया गया. उसने तुरंत मैसेज पर क्लिक किया. रेनू यादव का मैसेज था.
‘रेनू यादव’- नाम पढ़ते ही एक छवि आंखों की गैलरी पर उतर आई. फ़ेसबुक पर प्रोफ़ाइल चेक किया तो वही थी, जिसका होना वह मन ही मन चाह रही थी. रेनू , उसके स्कूल के दिनों की बहुत अच्छी दोस्त.
रियली? वह विस्मय और प्रसन्नता के मिश्रित भाव से फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर मौजूद रेनू की फ़ोटोज़ को बार-बार ऊपर नीचे कर उनमें अपनी रेनू तलाश रही थी. पहचानना थोड़ा मुश्क़िल हो रहा था, क्योंकि उम्र और वक़्त के साथ सीरतें ही नहीं, सूरतें भी बहुत कुछ बदल जाती हैं. उसने देखा फ्रेंड रिक्वेस्ट भी आई हुई थी और वह ऑनलाइन भी थी. तुरंत एक्सेप्ट की और बातों का सिलसिला बढ़ाया.
‘‘मैं ठीक हूं रेनू. तुम कैसी हो?’’
सामने वाली भी शायद इंतज़ार में ही थी तुरंत रिप्लाई आया- ‘‘एकदम बढ़िया. तुम तो भूल ही गई थी. है ना?’’
‘‘अरे नहीं.’’
‘‘नहीं, क्या? इतने सालों तक कोई खो- ख़बर भी नहीं ली? नंबर भी नहीं लगता तेरा.’’
‘‘सॉरी यार. मेरा नंबर बदल गया था शादी के बाद और फिर सोचा सबको बताऊंगी नए नंबर के बारे में, लेकिन शादी ने ऐसा व्यस्त किया कि कुछ याद न रहा,’’ उसने अपनी सफ़ाई दी.
‘‘हम्म्म्म, मुझे भी यही लगा था इसलिए बड़ी कोशिश के बाद फ़ेसबुक पर खोजा तुझे.’’
‘‘अच्छा सुन, ये मेरे फ़ोन नंबर है. सेव कर ले और अपने बता दे. कॉल करती हूं. अभी इतने सालों की बातचीत चैटिंग से नहीं होगी यार, मुझसे…’’
‘‘ओके.’’
जैसे ही रेनू ने अपना नंबर दिया युविका ने तुरंत नंबर सेव किया और रेनू को कॉल किया.
‘‘हेलो, रेनू?’’
‘‘हेलो. तेरी आवाज़ कितनी बदल गई है यार!’’
‘‘आवाज़ तो तेरी भी बदल गई है,’’ फिर एक लंबी सांस ले कर युविका ने कहा, ‘‘यार, सब कुछ ही तो बदल गया है.’’
‘‘हां, सो तो है.’’
‘‘क्या करती है आजकल रेनू तू?’’
‘‘क्लर्क हूं एक बैंक में. और तू?’’
‘‘मैं पढ़ाती हूं बी.एड. कॉलेज में.’’
‘‘गुड युविका…और बता तेरे पति, बच्चे कैसे हैं?’’
‘‘सब अच्छे हैं और तेरे?’’
‘‘वो सब भी बढ़िया है और सुना कुछ?’’
‘‘क्या सुनाऊं, रेनू? तू ही बता ना कुछ. कुछ है ही नहीं सुनाने को. बस एक नॉर्मल सी लाफ़फ और वही रोज़ का रूटीन.’’
‘‘सबका यही हाल है, यार!’’
कुछ मिनट ख़ामोशी पसरी रही दोनों के बीच फिर रेनू ने पूछा, ‘‘हेलो? युविका,क्या हुआ? आवाज़ आ रही है?’’
‘‘हम्म… कुछ नहीं. आ रही है आवाज़… मैं बस सोचने लगी थी.’’
‘‘क्या?’’
‘‘यही कि जब सामने थे तो इतनी बातें थी कि दिन के छह घंटे भी कम लगते थे और आज जब पूरे ग्यारह सालों बाद बात हो रही है तो हम शब्द ढूंढ़ रहे हैं बात करने को, क्योंकि ज़्यादा कुछ है ही नहीं बताने के लिए.’’
‘‘होता है यार. ज़िंदगी की बढ़ती ज़रूरतें अक्सर बातों की लंबाई कम कर देती हैं.’’
‘‘अरे वाह रेनू! बड़ी समझदार हो गई तू तो,’’ युविका के यह कहते ही दोनों सहेलियां साथ-साथ हंस पड़ीं.
‘‘अच्छा ये बता तू फ़िलहाल स्कूल की किसी भी दोस्त के साथ संपर्क में नहीं है क्या?’’
‘‘कॉलेज के शुरुआती सालों में तो रही थी तुम लोगों के ही साथ. फिर धीरे-धीरे ये साथ बिनचाहे, बिनकहे ही दरक गए. और तू, तू है किसी के संपर्क में?’’
‘‘नहीं युविका. मेरा भी ज़्यादा किसी से संपर्क नहीं रहा शादी के बाद. हां , लेकिन अब कभी कभार कोई याद आ जाती है तो ढूंढ़ लेती हूं सोशल मीडिया पर. मिल जाती है तो अच्छा लगता है और नहीं मिलती तो सब्र रखती हूं.’’
‘‘वाह! तेरा यह तरीक़ा अच्छा है. ये बता माया, मोनिका, नीरजा और मानवी वो सब कैसी हैं? तुम लोगों के तो घर आसपास ही थे, मिलती तो होगी कभी एक दूसरे से?’’
‘‘माया और नीरजा की भी शादी हो गई थी. माया टीचर है और नीरजा होममेकर. मोनिका का परिवार कॉलेज के दिनों में दिल्ली शिफ़्ट हो गया था. उसके बाद कुछ ख़ास संपर्क रहा नहीं. अभी कुछ दिन पहले फ़ेसबुक पर ढूंढ़ कर बात की थी. कोरोना ने उससे उसके पति और बेटी को छीन लिया, यार. ज़िंदगी को फिर से पटरी पर बैठाने की कोशिश में है वो.’’
‘‘ओह माइ गॉड! इतना सब कुछ हो गया मोनिका के साथ और मुझे पता ही नहीं था.’’
‘‘हम्म्म… हमें कितना कुछ पता होकर भी बहुत कुछ पता ही नहीं होता यार!’’
‘‘सच कह रही है… और मानवी? वो कहां रहती है?’’
रेनू ने एक गहरी लंबी सांस ली और बोली, ‘‘उसका पता बदल गया है आजकल. इस दुनिया में नहीं रहती वो अब.’’
‘‘मतलब?’’ युविका अधीर हो उठी.
‘‘शी इज़ नो मोर.’’
युविका अविश्वास से भर उठी, ‘‘क्या? क्या कह रही हो?’’
‘‘हां युविका, सच कह रही हूं.’’
‘‘कब? कैसे?’’
‘‘कोई पांच साल पहले एक कार ऐक्सिडेंट में. ड्यूटी से घर आ रही थी पीछे से ट्रक ने टक्कर मार दी और मौके पर ही…,’’ रेनू के यह कहते ही दोनों ओर ख़ामोशी पसर गई. फिर रेनू ने धीरे से कहा, ‘‘हमेशा मौक़ों से चूकने वाली मौक़े पर ही चल बसी.’’
यह सुनते ही जैसे शब्द युविका के गले में अटक गए और आंसू आंखों की दहलीज़ पर ही सिमट कर बैठे गए. उसने कांपती आवाज़ में कहा, ‘‘रेनू, मैं कल बात करती हूं. अभी संभाल नहीं पा रही हूं मन को… ओके.’’
रेनू उसकी मनोस्थिति समझ गई थी. उसने भी फ़ोन ओके कह कर फ़ोन रख दिया.
फ़ोन रखने के पन्द्रह मिनट तक युविका लगभग भावशून्यता की स्थिति में ही रही. जब उसकी सास ने उसे चाय के लिए आवाज़ दी, तब उसे लगा जैसे वह एक लंबी थकानभरी नींद के बीच में से जागी हो. वह अनमने भाव से उठी और चाय बनाने लगी. चाय बनाते समय भी उसका मन यादों के उपवन में टहल रहा था. वो छह सहेलियां थीं, जो अक्सर साथ रहा करती थीं- माया, मोनिका, नीरजा, मानवी, रेनू और वह. सभी ख़ूब बातूनी और पढ़ने में अच्छी भी. क्या दिन थे वो? जीवन के सुनहरे दिन.
चाय गैस पर उबाल खा रही थी और विचार उसके दिमाग़ में. सब कुछ कैसे बदल जाता है हमारी प्राथमिकताएं, स्वभाव, रुचियां, आदतें कभी एक जैसे नहीं रहते. जिस तरह हर मौसम में वायु अपना मिज़ाज बदलती है, ऐसी ही ज़िंदगी भी है. कुछ भी तो स्थाई नहीं है सिवाय ज़रूरतों के. जहां हमारी ज़रूरतें होती हैं, वहीं हम होते हैं. इसके अलावा सब जीने के बहाने भर हैं.
एक वक़्त हमें लगता है कि इस इंसान या चीज़ के बिना हम कभी नहीं रह पाएंगे, मगर सालों बाद उस इंसान या चीज़ का होना या ना होना एक तरह से महत्वहीन हो जाता है. अगर है तो बस है, और नहीं है तो क्या फ़र्क़ पड़ता है, सिवाय यादों के बाग में एक पौधा और रोप दिए जाने के?
जीवन को लेकर दार्शनिक होते उसके विचारों पर विराम तब लगा, जब गैस पर रखी चाय पतीले से बाहर आ उसके पैरों पर गिरी. हल्की सी चीख़ के साथ वो संभली. गैस बंद कर, चाय छान कर सास को दी और अपने कमरे में आ बेड पर पसर गई.
मानवी जो इतने सालों से कहीं नहीं थी उसकी दुनिया में, इस समय उसके चारों और जैसे बस गई थी. उसने आंखें बंद की तो मानवी का प्यारा, भोला चेहरा, दो लंबी चोटियां सब आंखों के सामने आ गया. अब पलकों की दहलीज पर सिमटे बैठे आंसुओं के लिए आंखों में ठहरने की जगह नहीं बची. वो चुपचाप बाहर आ लुढ़के और लुढ़कते रहे.
जब तक भीतर की ग्लानि पिघल न गई वह रोती रही. जब मन का आंगन पीड़ा के नीर से धुल-पुंछ कर साफ़ हो गया तो वह उठी अपना फ़ोन उठाया और बालकनी की ओर चल पड़ी.
फ़ोन हाथ में लेकर उसने फ़ेसबुक ओपन किया और सर्च करने लगी. एक के बाद एक उसके हाथ इन नामों को टाइप करते रहे- माया… नीरजा… मोनिका…
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट, dribbble.com