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ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब कविताएं

एक ज़माने की कविता: आलोक धन्वा की कविता

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
August 29, 2022
in कविताएं, बुक क्लब
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Alok-Dhawa_Kavita
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बचपन की यादें जब बाहर निकलती हैं तो एक ऐसा तिलस्मी संसार रचती हैं कि कई बार हम ख़ुद आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि यह हमारी कहानी थी! मशहूर कवि आलोक धन्वा की कविता हमें एक ऐसे ही जादुई सफ़र पर ले चलती है.

वहां डाल पर फल पकते थे
और उनसे रोशनी निकलती थी

हम बहुत तेज़ दौड़ते थे
मैदान से घर की ओर
कभी तो आगे-आगे हम
और पीछे-पीछे बारिश

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ऊंची घास की जड़ों के बीच
छोटे-छोटे फूल खिलते थे
किसी और ही पौधे से
घास के अंदर झांकने पर
ही दिखते थे

कभी जब अचानक मेघ घिर आते
और शाम से पहले शाम हो जाती
मां हमें पुकारती हुई
गांव के बाहर तक आ जाती

अगर हम देर तक जगे होते
तो अंधेरे में कई तरह की आवाज़ें सुनते
जिन्हें दिन में कभी नहीं सुन पाते
कुएं में डोल डुबोने की आवाज़
जानवरों की भारी सांस
कोई अकेला पक्षी ऊपर तारों के बीच
बोलता जाता हुआ

फ़सल की कटाई के समय
पिता थके-मांदे लौटते
तो मां
कितने मीठे कंठ से बात करती

काली रात बहुत काली होती थी
एक ज़माने की कविता बहुत सफ़ेद होती थी

बहन की सहेली थी सुजाता
पोखर के घाट पर गाती थी
एक लड़का था घुंघराले बाल वाला दिवाकर
छिपकर उसका गाना सुनता
एक दिन सुजाता चली गई बंगाल
उसका परिवार भी
और दिवाकर रह गया बिहार में

कई लोग गांव छोड़कर चले जाते
फिर कभी वापस नहीं आते

बरसात में चलती पुरवाई
बहन के साथ हम
बाग़ीचे में भटकते
बहन दिखाती कि एक पेड़ कैसे भीगता है
ऊपर पत्तों से चू रहा होता पानी
जबकि भीतर की शाख़ें
बिल्कुल कम गीली
और नीचे का मोटा तना तो
शायद ही कभी पूरा भीगता
वहां छाल पर हम गोंद छूते
बाग़ीचे में हर ओर एक महक होती
ख़ूब अच्छी लगती

मां जब भी नई साड़ी पहनती
गुनगुनाती रहती
हम मां को तंग करते
उसे दुल्हन कहते
मां तंग नहीं होती
बल्कि नया गुड़ देती
गुड़ में मूंगफली के दाने भी होते

जब मां फ़ुरसत में होती
तो हमें उन दिनों की बातें सुनाती
जब वह ख़ुद बच्ची थी
हमें मुश्क़िल से यक़ीन होता
कि मां भी कभी बच्ची थी

दियाबाती के समय मां गाती
शाम में रोशनी करते हुए गाना
उसे हर बार अच्छा लगता

मां थी अनपढ़
लेकिन उसके पास गीतों की कमी नहीं थी
कई बार नए गीत भी सुनाती
रही होगी एक अनाम ग्राम-कवि

शाम की रोशनी के सामने वह गाती
हम सभी भाई-बहन उसके बदन से लगकर
चुप हो उसे सुनते
वह इतना बढ़िया गाती कि लगता
वह कोई और काम न करे
लेकिन तभी उसे जाना पड़ता रसोई में

आंचल की ओट में दीप की लौ को
हवा से बचाती
वह आंगन पार करती
गोधूलि में नीम के नीचे से
हम उसे देखते रसोई में जाते हुए
जैसे-जैसे रात होती जाती
हम मां से तनिक दूर नहीं रह पाते

आज सालों बाद भी मैं नहीं भूला
मां का शाम में गाना
चांद की रोशनी में
नदी के किनारे जंगली बेर का झरना
इन सबको मैंने बचाया दर्द की आंधियों से

Illustration: Pinterest

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