जब हमें अपने ऊपर पूरा भरोसा होता है तो कोई भी हमारे इरादों को डिगा नहीं सकता, फिर चाहे परिस्थितियां कितनी भी कठिन क्यों न हों, हम उससे पार पा ही लेते हैं. इसके अलावा कई बार सदियों की कंडिशनिंग को धीरे-धीरे हटाने से ही कुछ मानसिकताएं बदली जा सकती हैं. पढ़ें यही संदेशा देती हुई कहानी.
भुनभुनाती हुई त्वरा ने एक झटके में सिद्धार्थ को परे धकेल दिया. अपमानित क्रोध से बिलबिलाता सिद्धार्थ अपने पुरुषत्व पर ऐसी करारी चोट से बौखला गया था. पर जिस तेज़ी से त्वरा उसे धक्का देकर बाहर निकली, वो समझ ही नहीं पाया. लगभग भागते हुए ही त्वरा ने होटल की लॉबी के दूसरे कोने पर अपने कमरे में प्रवेश किया. हाथ में पकड़ी चाबी घुमाकर जब अन्दर आई तो अन्दर से अच्छी तरह दरवाज़ा बंद करके आश्वस्त होने के बाद पलंग पर ढह गई थी. जाने कहां से रोना फूट पड़ा था, वो हारी नहीं थी, टूटी नहीं थी, कमज़ोर भी नहीं थी, पर स्त्रीगत विवशता को महसूस कर जाने क्यों वो रोए ही जा रही थी… सिसक-सिसक कर, फूट फूट कर. मन हो रहा था चिल्ला-चिल्ला कर अपने जले हुए मन के फफोले सबको दिखा दे.
लेकिन विवश थी वो. कभी ख़ुद पर चिढ़ मचती तो कभी पुरुषों की सोच पर. हर क्षेत्र में कितना कुछ बदल गया, पर नहीं बदली तो पुरुष मानसिकता कितना भी पढ़े-लिखे, कितना भी कल्चरर्ड दिखे, स्वयं को आधुनिक दिखाने के कितने ही झूठे स्वांग रच लें, पर वो वही होते हैं- आदिम संस्कारों से ग्रस्त सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुष… जो सब पर हावी होना चाहता है. जो भी उसके पास है उसे वो सहज सुलभ समझ भोगना चाहता है. क्यों नहीं बदल पाते पुरुष स्त्री को लेकर अपनी मानसिकता?
वो बचपन से लेकर अभी तक को-एड में पढ़ी. उसे याद आ रहे थे वे सब बचपन के दोस्त जब वे स्त्री-पुरुष की परिभाषा से अनभिज्ञ थे. कितने अच्छे पाक, साफ़ रिश्ते थे. जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, वो रिश्ते बदलते गए.
हर जगह स्त्री-पुरुष के बीच संबंधों में जिज्ञासा, शंका, कुछ होने की खदबदाहट झलकती ही रही. कभी उसके परिवार ने पुरुषों से मित्रता या संबंधों को लेकर न तो बंधन लगाए, न वर्जनाओं के प्रतिबंध रखे. वो सहज तरीक़े से बढ़ती गई. लेकिन कॉलेज आते-आते लगने, लड़के दोस्ती का अलग नज़रिया रखते हैं, जहां कॉलेज में उसे लगता कोई अच्छा दोस्त बन रहा है, वहीं वो उसे अपने गर्लफ्रेन्ड साबित करने लगता. वो समझ नहीं पाती थी फ्रेन्ड और गर्लफ्रेन्ड के बीच का अन्तर. जब गाहे-ब-गाहे दोस्त उस पर सबके सामने अपना हक़ जताने लगता तब लगता कि अगले को कुछ ग़लतफ़हमी हो रही है. ऐसे जाने कितने रिश्ते वो छोड़ती चली गई. हर उस साफ़-सुथरे रिश्ते में जिससे से वो मन से भावनात्म रूप से जुड़ने का प्रयास करती, कुछ ही दिनों में गंदला दिखने लगता.
पहले-पहले इन सब बातों पर उसने बहुत ग़ौर नहीं किया, लेकिन सालों तक लगातार दोस्त छूटते गए तब लगा कहीं कुछ तो ग़लत है, पर ग़लत क्या है? यह समझ से परे रहा. वो आज तक नहीं समझ सकी कि पुरुषों की मानसिकता ऐसी क्यों होती है.
दिन गुज़रते गए कॉलेज, डिग्रियों का जमावड़ा होता गया और वो स्वयंसिद्धा बन अपने पैरों में भी खड़ी हो गई. घर वाले भी इधर-उधर से रिश्ते सुझाने लगे थे. शादी की उम्र हो गई थी, पर अभी कुछ दिन अपनी नौकरी को और अच्छे से समझ उस पर पूरा अटेंनशन देना चाह रही थी, फिर शादी को सोचेगी.
इसी बीच अभी सात महीने के जॉब में ही उसके सिद्धार्थ से अच्छी बनने लगी थी. दिल्ली शहर में पला बढ़ा और पुणे जैसे महानगर में तीन साल से रह रहा सिद्धार्थ देखने में जितना हैंडसम था, उतना ही व्यवहार में अच्छा. दोनों की शुरू से ही ख़ूब बनती थी. शुरू-शुरू में ऑफ़िस में उससे ग़लतियां हो जाती, वो हड़बड़ा उठती, घबरा जाती, ऐसे वक़्त में सिद्धार्थ उसका बहुत बड़ा सहारा बनता. उसे समझाता, उसके टूटते आत्मविश्वास को बहुत आहिस्ता से संभालता. हर उस जगह जहां उसे किसी दोस्त की ज़रूरत थी, वो खड़ा नज़र आता.
धीरे-धीरे सिद्धार्थ में भी उसे अधिपत्य वाला अधिकारिक भाव दिखने लगा था. किसी ऑफ़िशल फ़ंक्शन और कई बार कुछ कॉमन दोस्तों के यहां भी दोनों साथ ही जाते. ऐसे में हर जगह वो उसका रक्षक बना नज़र आता. त्वरा को उसके इन भावों को समझते देर नहीं लगी थी. उसने कई बार स्पष्ट कह दिया था कि वो अपने माता-पिता की इच्छा से ही शादी करेगी और किसी रिलेशनशिप में उसकी दिलचस्पी नहीं है, पर जाने क्यों सिद्धार्थ के कानों में ये शब्द उतरते ही नहीं थे या वो सुनकर भी अनजान बना रहता.
उसका व्यवहार उसे दिन-ब-दिन ज़्यादा परेशान करता जा रहा था. उसे खीज मचने लगी थी. इस महानगर में नई-नई नौकरी, रोज़ की जद्दोजहद, अकेलापन था. पहले-पहल उसे सिद्धार्थ को पाकर इतना अच्छा लगा था कि कोई उसका दोस्त है, पर उसका इस तरह का व्यवहार उसे असहज कर रहा था. कई बार वो सोचती कहीं उसने उसे ग़लतफ़हमी पालने में मदद तो नहीं की? पर फिर अपने पूरे हाव-भाव पर ध्यान देती तो यही पाती कि पहले दिन से ही उसने किसी तरह के रिलेशनशिप की सहमति नहीं दी थी, फिर क्यों ये इस तरह व्यवहार कर रहा है? उसने सोच लिया था अब वो उससे दूरियां बना लेगी.
तभी दोनों को एक साथ एक कॉन्फ़रेंस में जाना पड़ा. त्वरा ने बहुत चाहा कि टाल दे, पर नहीं हो सका और अंतत: उसे जाना ही पड़ा. रूम भी उसने रिशेप्सन से कहकर थोड़ा दूर ही लिया था. दिन भर सब ठीक ही था. कॉन्फ़रेंस भी अच्छी थी. दोनों जब वहां से लौटे तो साथ घूमने भी निकल गए. ख़ूबसूरत शहर, बहुत अच्छा सा मौसम. मौसम के ख़ुशगवार होने से दिनभर की थकान उतर गई थी. सिद्धार्थ का व्यवहार दि नभर तो ठीक रहा पर शाम होते-होते, वही सनक दिखने लगी.
त्वरा ने ख़ुद को संभाल कर रखा. वो सिर दर्द बताकर जल्दी लौट आई. डिनर दोनों ने बाहर साथ ही किया. जब वो अपने कमरे की तरफ मुड़ने लगी तो सिद्धार्थ ने रोक लिया, ‘‘मैंने कॉफ़ी ऑर्डर की है. स्ट्रॉन्ग कॉफ़ी पी लोगी तो सिर दर्द ठीक हो जाएगा.’’
न चाहते हुए उसके कमरे में जाना पड़ा. दोनों बातें करते रहे, जब तक कॉफ़ी आई सिद्धार्थ फ्रेश होकर भी आ गया. दोनों ने कॉफ़ी पी और जब त्वरा वहां से चलने लगी तो सिद्धार्थ ने जबरन बिठा लिया, ‘‘बैठो न. इतनी जल्दी सो जाओगी क्या?’’
‘‘सिर दर्द हो रहा है, सिद्धार्थ. सो ही जाऊंगी.’’
‘‘लाओ मैं दबा देता हूं.’’ यह कहते हुए सिद्धार्थ जबरन उसकी चेयर के पास आकर उसके माथे पर दबाव बनाने लगा.
त्वरा असहज हो गई. उसने सिद्धार्थ का हाथ हटा दिया, ‘‘प्लीज़ यार मत करो.’’
पर सिद्धार्थ जाने किस मिट्टी का बना था हटा ही नहीं, बल्कि हाथ माथे से होते हुए कंधों पर आने लगा, उसका स्वर बदल रहा था. वो वहां से भाग जाना चाह रही थी, पर सिद्धार्थ की गिरफ़्त मज़बूत होती गई.
‘‘रुको ना… रुको त्वरा.’’ उसका अनुनय, आदेश में परिवर्तित होने लगा, ‘‘मैं नहीं जाने दूंगा.’’
त्वरा जिसे बचपन से किसी का आदेश मानने की आदत नहीं थी, उसके लिए इस प्रकार का हठ योग असहनीय था. फिर भी ख़ुद को भरसक संयत करते हुए वो बोली थी, ‘‘सिद्धार्थ, मैंने तुम्हें शुरू से बता दिया था कि मैं किसी रिलेशनशिप में नहीं रहना चाहती. तुम ग़लत दिशा में जा रहे हो, हम सिर्फ़ दोस्त हैं.’’
अब सिद्धार्थ बदल रहा था. उसने मुट्ठियां भींच लीं.
‘‘ग़लत दिशा? माई फ़ुट यार! यदि साथ हैं तो साथ रहने में क्या बुराई है, मैं तुम्हें पसंद करता हूं और तुम मुझे फिर प्रॉब्लम कहां है?’’
‘‘एक सेकेंड रुको. मैं तुम्हें पसंद करती हूं मैंने तो तुमसे ऐसा तो कभी नहीं कहा.’’
‘‘कहने की क्या ज़रूरत है? हम हर जगह साथ हैं तो उसका मतलब तो वही हुआ ना?’’
‘‘न… न… सिद्धार्थ तुम्हें ये परिभाषा किसने सिखाई कि लड़की यदि किसी के साथ घूम रही बातें कर रही तो उसका मतलब उसकी हर बात की सहमति है?’’
‘‘सिखाई का क्या मतलब? यदि हम साथ हैं तो साथ हैं. इसमें कहने वाली क्या बात? तुम फालतू में बात को उलझा रही हो, मैं इस तरह तुमसे दूर नहीं रह सकता.’’ कहते हुए सिद्धार्थ उसके एकदम नज़दीक आ गया,
उसके शरीर से उठती तेज़ डिओ की ख़ुशबू त्वरा के लिए अब असहनीय होने लगी. उसकी छठीं इन्द्रिय जाग चुकी थी. वो जान गई थी कि अब तीर कमान से निकल चुका है. उसने पूरी ताक़त से सिद्धार्थ को परे धकेला. सिद्धार्थ सामने पड़े पलंग पर गिर चुका था. वो भागकर दरवाज़े तक पहुंच गई और चीखकर बोली, ‘‘सिद्धार्थ, मुझे शर्म आती है तुम्हारी सोच पर. मुझे लगा तुम खुले विचारों के सुलझे हुए इन्सान हो, पर तुम भी वहीं सदियों पुरानी मानसिकता रखने वाले आदिम पुरुष हो. तुम्हारी नज़र में स्त्री पुरुष के बीच एक ही रिश्ता संभव है. मुझे घिन आती है ऐसे लोगों से. मुझे तुम्हारा साथ नहीं चाहिए जो हर सम्बन्ध को खींच-तान कर शरीर पर लाकर ख़त्म करते हैं. भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारी दोस्ती. मैं अकेली सक्षम हूं. आज के बाद से मुझसे बात भी मत करना.’’ भड़ाक से दरवाज़ा खोलकर वो अपने कमरे की ओर चली आई.
काफ़ी देर रो लेने के बाद उसकी भड़ास निकल चुकी थी. अब उसे रोना नहीं आ रहा था, बल्कि वो स्वयं को स्वतंत्र महसूस कर रही थी कितने दिनों से सिद्धार्थ से ये सब कहना चाह रही थी. उसके अन्दर एक वितृष्णा भर रही थी.
क्यों नहीं पढ़ा-लिखा, तथाकथित आधुनिक मर्द, ये बात अपने गले से नीचे उतार पाता कि स्त्री के साथ घूमने-फिरने, बातें करने का अर्थ उसके साथ हर रिश्ते की सहमति नहीं है. मन ही मन उसने स्वप्रतिज्ञा कर ली थी कि अब वो पुरुष साथियों से मित्रता की उम्मीद ही नहीं रखेगी.
बार-बार वह यह सोच रही थी कि सिद्धार्थ जैसे अत्याधुनिक पुरुष की भी मानसिकता में परिवर्तन कैसे संभव है? शायद, जड़ों में जाकर जहां बचपन से ही मां को, जो एक स्त्री होगी उसे पोषित करना होगा. घुट्टी की साथ ये संस्कार डालने होंगे कि स्त्री मात्र उपयोग की वस्तु नहीं है. उसके देह, आत्मा, संवेदना से जुड़े तार, उसकी अपनी इच्छा, अनिच्छा का भी महत्व है. उसकी तय की गई सीमाओं को पुरुषों को मानना होगा, उसे सम्मान देना होगा. तभी उनकी मानसिकता और जीवनशैली में परिवर्तन संभव है. उसने दृढ़ निश्चय किया कि आने वाले कल में वो सिद्धार्थ को स्पष्ट दृढ़ता से अपनी सीमाएं बताएगी. उसे पता है कल से सिद्धार्थ का व्यवहार बहुत अलग होगा, हो सकता है उसकी बदनामी भी करे, पर वो निर्भीक है. उसमें वो आत्मविश्वास बचपन से ही कूट-कूट कर भरा गया है कि ग़लत के सामने सिर नहीं झुकाए. वो मात्र एक स्त्री देह नहीं है, एक मनुष्य है. जिसकी अपनी इच्छा-अनिच्छा, सहमति-असहमति है. वो अपने निज में प्रवेश की किसी को भी अनुमति नहीं देगी, फिर कोई उसका दोस्त रहे या न रहे. वो अपने मूल्यों से समझौता नहीं करेगी. दृढ़ प्रतिज्ञा और विश्वास के साथ वो सुबह की प्रतीक्षा करने लगी.
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रेनू श्रीवास्तव
साहित्यिक उपलब्धियां: विगत 15 वर्षों से आकाशवाणी में कविताओं और कहानियों का प्रसारण
निम्नांकित पुस्तकों में रचनाओं का प्रकाशन: ख़्वाहिशें और भी हैं, नई लेखनी के नए सृजन, राष्ट्रीय स्तर का साझा काव्य संकलन ‘नव सृजन’, काव्य प्रसून में कविताओं का प्रकाशन, यक्ष प्रश्न व्यक्तिगत कहानी संकलन
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