स्वतंत्रता दिवस केवल एक दिन मना लेना ही काफ़ी नहीं है. स्वतंत्रता के सही मायने समझने हैं तो हमें चाहिए कि हम अपनी आज़ादी के नायकों को जानने-समझने में भी अपना समय बिताएं, ताकि आज़ादी की लड़ाई और उसके महत्व को समझ सकें. आज़ादी की लड़ाई में शामिल हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के स्वतंत्रता के बारे में विचार बेहद परिपक्व थे. उन विचारों को जानने के लिए आपको उनके लिखे और कहे को पढ़ना होगा, उनके भाषण के हिस्से सुनने होंगे. यही वजह है कि हम उनके कुछ भाषणों के हिस्से यहां पेश कर रहे हैं, ताकि आप उनके विचारों की गहराई से रूबरू हो सकें और स्वतंत्रता के असल मायने समझ सकें.
आज़ादी के पहले दिन यानी 15 अगस्त, 1947 के दिन रेडियो पर प्रसारित राष्ट्र के नाम संदेश में नेहरू कहते हैं, “आज एक शुभ और मुबारक दिन है. जो स्वप्न हमने बरसों से देखा था, वह कुछ हमारी आखों के सामने आ गया. चीज़ें हमारे क़ब्ज़े में आईं. दिल हमारा ख़ुश होता है कि एक मंज़िल पर हम पहुंचे. यह हम जानते हैं कि हमारा सफ़र ख़त्म नहीं हुआ है, अभी बहुत मंज़िलें बाक़ी हैं. लेकिन फिर भी एक बड़ी मंज़िल हमने पार की और यह बात तय हो गई कि हिंदुस्तान के ऊपर कोई ग़ैर-हुक़ूमत अब नहीं रहेगी.
आज हम एक आज़ाद लोग हैं, आज़ाद मुल्क हैं. मैं आप से आज जो बोल गहा हूं, एक हैसियत, एक सरकारी हैसियत मुझे मिली है. जिसका असली नाम यह होना चाहिए कि मैं भारत की जनता का प्रथम सेवक हूं. जिस हैसियत से मैं आपसे बोल रहा हूं, वह हैसियत मुझे किसी बाहरी शख़्स ने नहीं दी है, आपने दी है और जब तक आपका भरोसा मेरे ऊपर है. मैं इस हैसियत पर रहूंगा और उस खिदमत को करूंगा.”
आज़ादी के पहले दिन आज़ादी के मायने समझाते हुए वे कहते हैं, ‘‘हमारा मुल्क आज़ाद हुआ, सियासी तौर पर एक बोझा जो बाहरी हुक़ूमत का था, कह हटा. लेकिन, आज़ादी भी अजीब-अजीब ज़िम्मेदारियां लाती है और बोझे लाती है. अब उन ज़िम्मेदारियों का सामना हमें करना है और एक आज़ाद हैसियत से हमें आगे बढ़ना है और अपने बड़े-बड़े सवालों को हल करना है. सवाल बहुत बड़े हैं. सवाल हमारी सारी जनता का उद्धार करने का है, हमें गरीबी दूर करना है, बीमारी दूर करना है, अनपढ़पने को दूर करना है और आप जानते हैं कितनी और मुसीबतें हैं, जिनको हमें दूर करना है. आज़ादी महज एक सियासी चीज़ नहीं है. आज़ादी तभी एक ठीक पोशाक पहनती है, जब जनता को फ़ायदा हो. ’’
आपको बता दें कि लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के भाषण की परंपरा 15 अगस्त, 948 में शुरू हुई. लाल क़िले से अपने पहले ही भाषण में नेहरू ख़ुद आज़ादी को लेकर वे वही सवाल उठा रहे हैं, जिन्हें उनके समय से लेकर आज तक रह रहकर उठाया जाता है. नेहरू ने कहा, ‘‘जो लोग आज़ादी चाहते हैं, उनको हमेशा अपनी आज़ादी की हिफाज़त करने के लिए, अपनी आज़ादी को बचाने के लिए और रखने के लिए, अपने को न्योछावर करने को तैयार रहना चाहिए. जहां कौम गफ़लत खाती है, वह कमज़ोर होती है और गिर जाती है. इसलिए हमें हमेशा तैयार रहना है, लेकिन इतना कह कर, मैं यह भी आपसे कहना चाहता हूं कि हमारा मुल्क इसलिए अपनी फ़ौज और लड़ाई का सामान तैयार नहीं करता कि किसी को गुलाम बनाए, बल्कि इसलिए कि अपनी आज़ादी की बचा सके और अगर ज़रूरत पड़े तो दुनिया की आज़ादी में मदद कर सके. बहुत दिन तक हम गुलाम रहे, उससे हममें गुलामी से नफ़रत हुई, तो भला हम कैसे किसी और को गुलाम बना सकते हैं.’’
इसी भाषण में नेहरू उन सब चीज़ों से आज़ादी की बात कर रहे हैं, जिनके बारे में कई छात्र आज भी मांग करते हैं. नेहरू को कहते हैं, ‘‘हमने और आपने ख़्वाब देखे. हिंदुस्तान की आज़ादी का ख़्वाब उन ख़्वाबों में क्या था! वह ख़्वाब ख़ाली यह तो नहीं था कि अंग्रेज़ कौम यहां से चली जाए और हम फिर एक गिरी हुई हालत में रहें. जो स्वप्न था वह यह कि हिंदुस्तान में करोड़ों आदमियों की हालत अच्छी हो, उनकी ग़रीबी दूर हो, उनकी बेगारी दूर हो, उनकी बेकारी दूर हो, उन्हें ख़ाना मिले, रहने को घर मिले, पहनने को कपड़ा मिले, सब बच्चों को पढ़ाई मिले और हर एक शख़्स को मौक़ा मिले कि हिंदुस्तान में वह तरक़्क़ी कर सके, मुल्क की खिदमत करे, अपनी देख-भाल कर सके और इस तरह से सारा मुल्क उठे.’
फिर यहीं नेहरू समझाते हैं कि असली “जय हिंद’’ क्या है? वे बताते हैं, ‘‘थोड़े से आदमियों के हुकूमत की ऊंची कुर्सी पर बैठने से मुल्क नहीं उठते हैं. मुल्क उठते हैं, जब करोड़ों आदमी ख़ुशहाल होते हैं और तरक़्क़ी कर सकते हैं. हमने ऐसा स्वप्न देखा और उसी के साथ सोचा कि जब हिंदुस्तान के करोड़ों आदमियों के लिए दरवाज़े खुलेंगे या उनमें से लाखों ऐसे दरजे के लोग निकलेंगे, जो नाम हासिल करेंगे और दुनिया पर असर पैदा करेंगे. वे बातें अभी दूर हैं, क्योंकि हम झगड़ों-फ़सादों में मुब्तला हो गए, फंस गए, लेकिन उस काम को हमें पूरा करना है. जब तक हमारा वह काम पूरा नहीं होता, तब तक हमारी आज़ादी भी पूरी नहीं होती, उस वक़्त तक हम दिल खोल कर ‘जय हिंद’ भी नहीं बोल सकते.’’
आज़ादी के नारे उछालने वाले लोगों को वे आज़ादी से मिली ज़िम्मेदारी के बारे में भी बताते हैं, “लेकिन अगर आप आज़ाद कौम हैं, तो ख़ाली ऐतराज करने से काम नहीं चलता. उस बोझे को उठाना है, सहयोग करना है, मदद करनी है और अगर हम सब इस तरह से करें, तो बड़े-से-बड़े मसले हल हो सकते हैं.”
वे उस ज़माने के नौजवानों को समझाते हैं, ‘‘अगर हम यह समझ लें कि यह सारी ज़िम्मेदारी कुछ अफ़सरों की है, हुकूमत की कुर्सी पर जो लोग बैठे हैं, उनकी है, तो यह ग़लत बात है. आज़ाद मुल्क इस तरह से नहीं चलते. गुलाम मुल्क इस तरह से सोचते हैं और इस तरह से चलाए जाते हैं. जब गैर-मुल्क के लोग हुकूमत करें तो वे जो चाहे सो करें, लेकिन आज़ाद मुल्क में अगर आप आज़ादी के फ़ायदे चाहते हैं, तो आज़ादी की ज़िम्मेदारियां भी ओढ़नी पड़ती हैं, आज़ादी के बोझे भी ढोने पड़ते हैं, आज़ादी का निजाम और डिसिप्लिन भी आपको उठाना चाहिए. पुरानी आपकी आदतें जो गुलामी के ज़माने की रथ, उन्हें हम पूरे तौर से अभी तक भूले नहीं हैं और हम समझते हैं कि बगैर हमारे कुछ किए ऊपर से सब बातें हो जानी चाहिए. मैं चाहता हूं आप इस बात को समझें कि आप अगर आज़ाद हुए तो फिर एक आज़ाद कौम की तरह हर एक को चलना है और उस ज़िम्मेदारी को ओढ़ना है, उस बोझ को उठाना है.’’
इसके आगे वे युवाओं से कहते हैं, ‘‘आख़िर में यह आप याद करें कि हम लोगों ने एक ज़माने से, जहां तक हम में ताक़त थी और कुव्वत थी, हिंदुस्तान की आज़ादी की मशाल को उठाया. हमारे बुजुर्गों ने उसको हमें दिया था, हमने अपनी ताक़त के मुताबिक उसको उठाया, लेकिन हमारा ज़माना भी अब हल्के-हल्के ख़त्म होता है और उस मशाल को उठाने और जलाए रखने का बोझा आपके ऊपर होगा, आप जो कि हिंदुस्तान की औलाद हैं, हिंदुस्तान के रहने वाले हैं, चाहे आपका मजहब कुछ हो, चाहे आपका सूबा या प्रांत कुछ हो. आख़िर में उस मशाल को शान से उठाए रखने का आपका एक फ़र्ज़ है और वह मशाल है आज़ादी की, अमन की और सच्चाई की. याद रखिए लोग आते हैं, जाते हैं और गुज़रते हैं. लेकिन मुल्क और कौमें अमर होती हैं, वे कभी गुज़रती नहीं, जब तक उनमें जान है, जब तक उनमें हिम्मत है. इसलिए इस मशाल को आप कायम रखिए, जलाए रखिए और अगर एक हाथ कमज़ोरी से हटता है तो हज़ार हाथ उसको उठाकर जलाए रखने को हर वक़्त हाजिर हों.’’
इनपुट्स साभार पुस्तक: नेहरू मिथक और सत्य, संवाद प्रकाशन
लेखक: पीयूष बबेले
फ़ोटो साभार: गूगल