दो सहेलियां, जब लंबे अंतराल बाद मिलें तो गुज़रे हुए समय को सहेजना कितना मुश्क़िल हो जाता है, लेकिन सचमुच की मुश्क़िलों को हल करना उतना ही आसान हो जाता है. यक़ीन नहीं आता तो ये कहानी पढ़ लीजिए.
रात का एक बज रहा था, लेकिन बातों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था. इतने वर्षों का फ़ासला महज़ चंद घंटों में सिमट सकता है क्या? फिर भी मेरा और रितु का प्रयास जारी था. ज़्यादा से ज़्यादा अपनी बातें और भावनाएं शेयर कर रहे थे हम दोनों. आज सुबह सात बजे जैसे ही रितु का फ़ोन आया कि वह शाम तक पूना से मुंबई मेरे घर पहुंच जाएगी, मेरे मन में जलतरंग सी बज उठी थी.
चाय हाथ में लेते हुए जतिन बोले,‘‘श्रुति,आज तो सुबह-सुबह ही ताज़े गुलाब-सी खिली हुई हो. कोई ख़ास बात है क्या?
‘‘ख़ास नहीं बहुत ख़ास. आज मेरी दोस्त रितु आ रही है.’’
‘‘रितु… कौन रितु?’’
जतिन के चेहरे पर असमंजस के भाव देख मेरे माथे पर बल पड़ गए,‘‘अरे, आप रितु को भूल गए. आज तक अपनी एक ही दोस्त का ज़िक्र तो मैंने आपसे किया है.’’
‘‘अच्छा वह तुम्हारी कॉलेज वाली दोस्त, जिसने अब तक शादी नहीं की?’’
‘‘हां, वही. जतिन, आज आप जल्दी घर आ जाइएगा.’’
‘‘जल्दी? आज शाम को तो मैं घर ही नहीं आ पाऊंगा. बताया नहीं था तुम्हें परसों कि आज ऑफ़िस से सीधे दिल्ली निकल जाऊंगा. वहां एक ज़रूरी मीटिंग है.’’
‘‘अरे…? हां, मैं ही भूल गई, पर वह पहली बार हमारे घर आ रही है. वह भी एक दिन के लिए. कल वह चली भी जाएगी…’’ मैं मनुहार करती सी बोली.
‘‘श्रुति, मीटिंग ज़रूरी न होती तो ज़रूर कैंसल कर देता, पर कोई बात नहीं तुम उसे अच्छी तरह से अटेंड करना और डिनर के लिए मैं होटल हार्मनी में तुम दोनों की टेबल बुक करा दूंगा.’’
जतिन ऑफ़िस चले गए और मैं यंत्रचालित-सी काम में जुट गई, लेकिन मन का पंछी, वह तो इतने वर्षों का फ़ासला तय करके अतीत के गलियारों में चक्कर काट रहा था.
रितु से मेरी दोस्ती बीकॉम सेकेंड ईयर में हुई थी. सभी क्लासमेट्स हमारी दोस्ती पर आश्चर्य करते थे. कारण ये था कि हम दोनों के स्वभाव में ज़मीन-आसमान का अंतर था. मैं गम्भीर स्वभाव की अल्पभाषी लड़की थी. हर बात को बहुत सीरियसली लेती थी, वहीं रितु चंचल हिरणी-सी, शोख़ और मदमस्त. हर बात पर मुस्कुराते रहना उसकी आदत थी, बावजूद इसके स्वभाव की यह विभिन्नता हमारी दोस्ती में कभी आड़े नहीं आई. कॉलेज के दिन कब पंख लगाकर उड़ गए, हमें पता ही नहीं चला. एमबीए करने के बाद रितु ने एक कंपनी में जॉब जॉइन कर लिया और मेरा विवाह जतिन के साथ हो गया. गृहस्थी के दायित्वों में मैं ऐसी उलझी कि रितु के साथ सम्पर्क नहीं रह पाया. अब जबकि आज रितु आने को है सारा दिन यादों की दहलीज़ पार कर मन के एक-एक कोने में मैं विचरती रही.
शाम पांच बजे ज्योंहि डोरबेल बजी, कुलाचें भरती-सी मैं बाहर की ओर लपकी. मुस्कुराती रितु को देख कुछ क्षण ठिठकी. मन में भावनाओं का एक ज्वार-सा उमड़ पड़ा और हम एक-दूसरे के गले लग गए. हमारे चेहरों पर मुस्कान थी और आंखों में ख़ुशी के आंसू भी.
‘‘ओह रितु, कितने वर्षों बाद देख रही हूं तुझे.’’
‘‘मैंने भी तुझे बहुत मिस किया श्रुति. शुक्र है कि तेरी दीदी से पूना में मुलाक़ात हो गई और उनसे तेरा फ़ोन नम्बर मिल गया अन्यथा आज भी हम न मिल पाते.’’
हाथ में बैग थामे रितु अंदर आई. ऊपर से नीचे तक उस पर एक प्रशंसात्मक नज़र डाल मैंने कहा, ‘‘यार रितु, उम्र तो जैसे तुझे छूकर ही निकल गई है. यह रिवर्स गेयर कैसे लगा लिया तूने अपनी एज पर.’’
वह खिलखिलाई और स्नेह से मेरा हाथ थाम लिया,‘‘पर तूने यह क्या हाल बना लिया अपना? तबियत तो ठीक है न?’’
‘‘अरे तबियत को क्या होना है, बिल्कुल ठीक हूं. मेरी छोड़, तू पहले फ्रेश हो जा. तब तक मैं चाय बनाती हूं. फिर ढेर सारी बातें करेंगे.’’
हाथ-मुंह धोकर रितु ड्रॉइंगरूम में आई. टेबल पर समोसों की प्लेट देख वह चहकी,‘‘अरे वाह श्रुति, तुझे अभी तक याद है मेरी पसंद?
‘‘याद क्यों नहीं होगी. समोसों के साथ तो कितनी यादें जुड़ी हुई हैं हमारी. कॉलेज कैन्टीन में बैठकर चाय और समोसों के साथ गप्पों का दौर चलना, कभी-कभी क्लास बंक करके पिक्चर चले जाना, वो बातें भूली जा सकती हैं क्या कभी…!’’
‘‘सच कह रही है तू. वो दिन ही कुछ और थे. बेफ़िक्री के साथ घूमना-फिरना, मौज-मस्ती. पढ़ाई के अतिरिक्त कोई दूसरी चिन्ता नहीं थी. याद है श्रुति, एक बार जैसे ही पिक्चर हॉल में घुसे, मेरे भइया भाभी आगे की सीट पर बैठे नज़र आए थे…’’
यह सुनते ही मैं हंस पड़ी और कहा,‘‘तू कैसे डर के कारण सीट के नीचे ही घुस गई थी,’’ रितु भी खिलखिलाई.
‘‘हां यार, उस दिन तो बस भगवान ने बचा लिया था श्रुति, भइया देख लेते तो अच्छी चटनी बनती मेरी.’’
‘‘और वह अमित उर्फ़ सलमान खान, उसकी याद है तुझे?’’
‘‘हां, याद है.’’
‘‘कितना हैंडसम था, कितनी डैशिंग पर्सनैलिटी थी उसकी. इसीलिए तो हमने उसका नाम सलमान खान रख दिया था. सच रितु, पूरे कालेज की लड़कियां उसपर मरती थीं और वह तेरा दीवाना था. तुझसे बात करने के लिए तेरे आसपास मंडराता रहता, नित नए बहाने खोजता. कभी नोट्स मांगता तो कभी कॉफ़ी पीने के लिए आमंत्रित करता, लेकिन तूने तो कभी अपनी नाक पर मक्खी ही नहीं बैठने दी. कभी उसे बढ़ावा नहीं दिया. यार, काश तू उसमें इन्टरेस्ट लेती… मुझे पूरा विश्वास है, शादी वह तुझ से ही करता. तू उसके साथ बहुत सुखी रहती.’’
‘‘इतने यक़ीन के साथ कैसे कह रही है तू? रितु ने पूछा.
‘‘यार वह मिला था मुझे.’’
‘‘अच्छा, कब, कहां?’’
मैं मुस्कुराई और बोली,‘‘करीब छह महीने हो गए. मैं आर्किड मॉल में शापिंग कर रही थी तभी पीछे से मेरा नाम लेकर किसी ने मुझे पुकारा. मुड़कर देखा तो सहसा आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. सामने अपने सल्लू मियां खड़े मुस्कुरा रहे थे.’’
‘‘फिर’’
‘‘फिर क्या? मुझसे पूछा कैसी हो, कहां हो. फिर बोला-तुम्हारी वह सहेली रितु कहां है? सच कह रही हूं रितु, मेरे यह कहने पर कि न तो मुझे रितु के बारे में कुछ पता है और न ही उसका कान्टैक्ट नम्बर है, उसके चेहरे पर निराशा की ऐसी बदली छाई कि कोई अंधा भी बता देता कि वह तुझे चाहता है. तब मुझे क्या पता था कि तूने अब तक शादी नहीं की है, वरना उसका कॉन्टैक्ट नम्बर ले लेती.’’
‘‘धत् पागल है तू. अच्छा चल, अब अपनी फ़ैमिली की फ़ोटोज़ तो दिखा.’’
रितु को मैं देर तक जतिन और बच्चों की फोटोज़ दिखाती रही. बातों ही बातों में कब नौ बज गए, पता ही नहीं चला. फिर हम दोनों होटल हार्मनी में डिनर करने चले गए. डिनर के बाद आइस्क्रीम खाकर लौटे तो रात के 11 बज रहे थे. मैं रितु को लेकर बेडरूम में आ गई.
निश्चिंतता से पलंग पर पसरते हुए वह बोली,‘‘हां, अब बता श्रुति, कैसी गुज़री यह ज़िन्दगी?’’
‘‘ठीक ही गुज़र गई, बिल्कुल किसी फ़ैमिली सीरियल की तरह.’’
मैंने उससे शादी के ख़ुशगवार दिनों से लेकर मां और सास बनने तक के अपने सफ़र के हर पड़ाव का ज़िक्र किया.
‘‘हम्म्म, तो इतने क़िरदार निभाते-निभाते तुम ख़ुद को भुला बैठीं.’’
‘‘मेरी छोड़ रितु, मैं तेरे बारे में जानने के लिए उत्सुक हूं.’’
‘‘यार, मेरी ज़िन्दगी में इतने मोड़ नहीं हैं. एक सीधी, सपाट सड़क की तरह गुज़र रही है मेरी लाइफ़. अपना जॉब, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती बस.’’
‘‘दीदी से पता चला कि तूने शादी नहीं की. सुनकर मुझे दुख हुआ.’’
‘‘अरे, इसमें दुख करने जैसा कुछ नहीं है. दुनिया में हज़ारों लोग अविवाहित रहते हैं.’’
‘‘फिर भी रितु, तू इतनी सुन्दर है, स्मार्ट है. कोई तो मिला होगा, जिससे मन के तार झंकृत हुए होंगे,’’ मेरी प्रश्नवाचक निगाहें उसके चेहरे पर टिक गईं.
सिर के नीचे अपने दोनों हाथ रख वह छत को ताकती रही फिर बोली,‘‘मिला था एक. एक पार्टी में उससे मुलाक़ात हुई थी. पहली मुलाक़ात में ही हमने एक दूसरे को पसंद कर लिया था. लगभग छः माह हम दोनों बहुत घूमे-फिरे. उसके इंटेलिजेन्स और सेंस ऑफ़ ह्यूमर की मैं कायल थी.’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’ मैंने पूछा,
‘‘मम्मी-पापा उस पर जल्द शादी का दबाव बना रहे थे, लेकिन वह इस मसले को टाल रहा था. और एक दिन यकायक वह कुछ कहे सुने बिना चला गया. कुछ दिनों तक मैं उसकी प्रतीक्षा करती रही मगर उसको न आना था, न वह आया.’’
‘‘फिर?’’
‘‘फिर क्या, कुछ दिन अवसाद में रही. तब सोचा, एक अवसरवादी, धोख़ेबाज़ इंसान के लिए दुख मनाना क्या मूर्खता नहीं? अपने को ख़ुश रखना किसी और का नहीं हमारा ख़ुद का दायित्व है. श्रुति, एक बार इंसान के मन में दृढ़ता आ जाए तो आगे की राह सरल हो जाती है. मैं अपनी जॉब में, घरवालों और फ्रेंड्स के साथ व्यस्त रहने लगी.’’
‘‘उसके बाद घर बसाने के बारे में नहीं सोचा तूने?’’ मैं अचम्भित थी.
‘‘नहीं. घरवालों ने बहुत दबाव बनाया, लेकिन मुझे लगने लगा, क्या अविवाहित रहकर हम ख़ुश नहीं रह सकते? जीवन का उद्देश्य मात्र शादी तो नहीं हो सकता. ज़िन्दगी को भरपूर जीना, ख़ुद ख़ुश और सन्तुष्ट रहकर दूसरों को ख़ुश रखना भी तो एक उद्देश्य है. ज़रूरतमंदों के काम आना भी एक उद्देश्य है. श्रुति, कितने सालों से हरि काका हमारे घर का काम कर रहे हैं. उनकी छोटी बेटी दीया बहुत इंटेलिजेन्ट है. उसकी पढ़ाई का दायित्व मैंने अपने उपर ले रखा है. अभी वह 12वीं में है. डॉक्टर बनना चाहती है. उसके सपने को पूरा कर पाऊं तो मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा.’’
‘‘और अपना परिवार, पति, बच्चे इनका जीवन में क्या कोई महत्व नहीं? अपनी गृहस्थी के सुख से क्या तू वंचित नहीं रही?’’ मैं जैसे अपने तर्कों से उसे एहसास दिलाना चाहती थी कि उसने अपने जीवन का ग़लत फ़ैसला लिया था, लेकिन रितु के चेहरे पर तनिक भी मलाल नहीं था.
बेहद शांत स्वर में उसने कहा,‘‘पति और बच्चे तृप्ति और सुरक्षा का एहसास कराते हैं. मां बनकर स्त्रीत्व को पूर्णता मिलती है. गृहस्थी की व्यस्तताओं में समय कब गुज़र जाता है, पता नहीं चलता. इन सब बातों से मुझे इनकार नहीं, लेकिन इन सबका होना भी सुख की गारंटी तो नहीं है. गारंटी तो किसी भी अवस्था में नहीं है. न तो शादी करने में और न अकेले रहने में. सब कुछ हमारी सोच और जीवन जीने के ढंग पर निर्भर करता है पूना में मैं भइया-भाभी के साथ रहती हूं. भइया का एक ही बेटा है, जो अमेरिका में बस गया है. दीया को पढ़ाने के अतिरिक्त मैं और भाभी सोशल एक्टिविटीज़ में बिज़ी रहते हैं. वर्ष में दो बार छुट्टी लेकर हम लोग घूमने निकल जाते हैं और ख़ूब एन्जॉय करते हैं. यूरोप, अमेरिका मैं सब घूम चुकी हूं. ज़िन्दगी की आपाधापी से दूर फ़ुरसत के ये लम्हे जीवन की बैटरी को रिचार्ज करके मुझे ख़ुशियों से लबरेज़ कर देते हैं. जीवन के प्रति मेरा हौसला, मेरी सकारात्मकता और बढ़ जाती है. गृहस्थी के सुख़ से मैं वंचित हूं माना, लेकिन इसके बदले में मैंने ज़िन्दगी को अपने हिसाब से जिया है और ख़ूब एन्जॉय किया है. अपने फ़ैसले से मैं पूरी तरह ख़ुश और संतुष्ट हूं और संतुष्टि का भाव ही तो सुख होता है न!’’’
कुछ पलों के लिए वह ख़ामोश हो गई फिर एक खोजती-सी निगाह मेरे चेहरे पर डाल बोली,‘‘श्रुति, सच बता… तू खुश तो है न!’’
‘‘हां रितु, मैं खुश हूं…’’
’‘फिर तेरी आंतरिक ख़ुशी तेरे चेहरे से क्यों नहीं झलक रही? तू इतनी कमज़ोर और थकी-थकी क्यों लग रही है?’’ मैं खामोश ही रही तो रितु ने स्नेह से मेरा हाथ थाम लिया,‘‘मुझे नहीं बताएगी?’’
उसकी सहानुभूति पाकर मेरी आंखें छलछला आईं. रुंधे गले से मैं बोली,‘‘जतिन सारा दिन काम में व्यस्त रहते हैं. सुबह के घर से गए देर रात तक लौटते हैं. उनके साथ रहते हुए भी मैं एकदम अकेली हूं, बिल्कुल तन्हा. अपने मन की भावनाएं किससे शेयर करूं? उनके पास समय ही नहीं है. जब तक बच्चे हमारे पास थे, समय का पता नहीं चलता था, लेकिन उनके अपनी दुनिया में व्यस्त हो जाने के बाद जीवन का सूनापन काट खाने को दौड़ता है.’’
‘‘बस इतनी सी बात, श्रुति? जतिन जी से खुलकर अपनी बात कह. उन्हें समझा कि उम्र के इस पड़ाव पर आकर हम एक-दूसरे के साथ समय व्यतीत नहीं करेंगे तो कब करेंगे? सारी ज़िम्मेदारियां अब पूरी हो चुकी हैं. अभी तो समय आया है कि हम अपनी ज़िन्दगी जिएं. एकदूसरे के साथ समय बिताएं. ख़ूब घूमें-फिरें. दूसरी बात, सारी ज़िन्दगी तू गृहस्थी की जिम्मेदारियों में घिरी रही, अब समय आया है कि तू अपने हिसाब से जीवन जिए. ख़ुशियां हमारे अंदर छिपी होती हैं. ज़रूरत है उन्हें तलाशने की. तू योग की क्लास जॉइन कर. सकारात्मकता बढ़ने के साथ साथ घर से बाहर निकलने पर नए फ्रेन्ड्स भी बनेंगे. अपने अधूरे छूटे शौक़ को पूरा कर. मुझे याद है, तुझे पेन्टिंग का शौक़ हुआ करता था. उसमें अपना मन लगा. तू देखना, जीवन में आया यह बदलाव कितना सुखद होगा. तू ख़ुद ही कितना एनर्जेटिक महसूस करने लगेगी.’’
मैंने स्नेह से रितु का हाथ थाम लिया. उसका पुनः मेरे सम्पर्क में आना शीतल सुगन्धित बयार के समान था. उसने मेरे निराश मन में उम्मीद की किरण जगा दी थी. नींद से अब मेरी और रितु दोनों की पलकें बोझिल हो रही थीं. लाइट ऑफ़ करके हम दोनों लेट गए.
अगली सुबह सात बजे रितु जाने के लिए तैयार हो गई. चाय पीते हुए मैंने उससे कहा,’’रितु, तेरे साथ गुज़ारे फ़ुरसत के इन चंद घंटों ने मुझे जैसे नया जीवन दे दिया है. प्रॉमिस कर कि तू फिर आएगी.’’
‘‘मैं तो आऊंगी ही श्रुति, लेकिन पहले तुझे और जतिन जी को पूना आना है. मैंने रात में ही सोच लिया है, तुम दोनों के साथ एक टूर प्लान करना निहायत ज़रूरी है, ताकि जतिन जी समझ जाएं कि काम के अलावा जीवन का आनंद लेना भी बहुत ज़रूरी है,’’यह कहते हुए रितु ने स्नेह से मुझे गले लगाया और लिफ़्ट की ओर बढ़ गई.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट