पहाड़ों की एक मासूम-सी दादी कहती है, टॉर्च में उजाले के साथ आग भी होनी चाहिए…दादी के माध्यम से कवि मंगलेश डबराल की यह कविता कह रही है, कविता में शब्दों की सुंदरता के साथ-साथ गहराई और सरोकार भी होने चाहिए. आज के दौर की कविता पर सटीक टिप्पणी.
मेरे बचपन के दिनों में
एक बार मेरे पिता एक सुंदर-सी टॉर्च लाए
जिसके शीशे में गोल खांचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों कि हेडलाइट में होते हैं
हमारे इलाक़े में रौशनी की वह पहली मशीन
जिसकी शहतीर एक चमत्कार की तरह रात को दो हिस्सों में बांट देती थी
एक सुबह मेरी पड़ोस की दादी ने पिता से कहा
बेटा इस मशीन से चूल्हा जलाने कि लिए थोड़ी-सी आग दे दो
पिता ने हंसकर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ़ उजाला होता है
यह रात होने पर जलती है
और इससे पहाड़ के उबड़-खाबड़ रास्ते साफ़ दिखाई देते हैं
दादी ने कहा बेटा उजाले में थोड़ी आग भी रहती तो कितना अच्छा था
मुझे रात को भी सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
घर-गिरस्ती वालों के लिए रात में उजाले का क्या काम
बड़े-बड़े लोगों को ही होती है अंधेरे में देखने की ज़रूरत
पिता कुछ बोले नहीं बस ख़ामोश रहे देर तक
इतने वर्ष बाद भी वह घटना टॉर्च की तरह रोशनी
आग मांगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है
हमारे वक्त की कविता और उसकी विडम्बनाओं तक
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