होली भले ही गुज़र चुकी हो, पर हमारे यहां तो रंग पंचमी तक सभी पर इसका ख़ुमार चढ़ा ही रहता है. होली के पकवान भी इतने बनाए जाते हैं कि आठ-दस दिन तो चलें ही. अब आप पूछेंगे रंग पंचमी की बात क्यों? क्योंकि वह आज है और दही वड़े की बात इसलिए कि होली और रंग पंचमी से दही वड़े का ऐसा सम्बन्ध है, जैसा जल और मछली का, हवा और तितली का, बादल और बिजली का… अरे घबराइए नहीं होली पर भांग नहीं पी थी, बस मस्ती में ऐसे ही काफ़िया मिलाने लगी थी.
आज हम जिस दही वड़े की बात कर रहे हैं, उसे पंजाब में लोग दही भल्ला कहते हैं तो बंगाल में दोई भोल्ला. वैसे दही भल्ला और दोई भोल्ला एक ही चीज़ है. बस वो जैसे रसगुल्ला वहां रोशोगुल्ला होता है वही फ़र्क़ है. भारत के दक्षिण क्षेत्र में इसे दही वडा कहा जाता है और मेंदू वडा की तरह ही इनमें बीच में छेद होता है. वहीं उत्तर और मध्य भारत में इसे बड़े गोल भजिए के आकर में बनाया जाता है और खट्टी-मीठी चटनी, जिसे सौंठ भी कहते हैं, के साथ और कहीं-कहीं हरी चटनी डालकर खाया जाता है.
मुख्य रूप से दही वड़ा उड़द दाल से बने वड़ों को दही में भिगोकर बनाया जाता है, पर बदलते समय के साथ मूंग दाल के दही वड़े, ब्रेड के दही वड़े, सूजी के दही वड़े ,स्प्राउट्स से बने दही वड़े और यहां तक किओट्स के दही वड़े जैसे कई आधुनिक रूप आपको देखने और खाने मिल जाएंगे. हालाँकि मूंग दाल के दही वड़े सुपाच्य होते हैं और उन लोगों के लिए वरदान हैं, जो उड़द की दाल से परहेग़ करते हैं तो आजकल कई घरों में आपको मूंग दाल के दही वड़े ही मिलेंगे.
दही वड़े के कुछ दूसरे मिलते-जुलते से वर्शन भी भारत में आपको मिलेंगे जैसे कांजी वड़ा, जिसमें वड़ा वही होता है, पर उन्हें दही की जगह पानी में कई मसाले और हर्ब्स मिलकर बनी कांजी में डुबोया जाता है. ये भी दही वड़े की तरह ही बेहद प्रचलित और पसंद किया जाने वाला व्यंजन है.
इतिहास दही वड़े का: ऐतिहासिक रूप से दही वड़े के बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी आपको कहीं नहीं मिलेगी, पर 12वीं सदी के सोमेश्वर तृतीय द्वारा लिखित संस्कृत ग्रन्थ मानसोल्लास में “क्षीरवटा” के नाम से दही वड़े का उल्लेख है. वहीं 500 इस्वी पूर्व भी कुछ साहित्यिक कृतियों में दही वड़े जैसे व्यंजन और उसे बनाने की विधि का उल्लेख मिलता है.
और जैसा कि ज़्यादातर सभी चाट जैसे व्यंजनों को मुग़लों के साथ जोड़ा जाता रहा है, वैसा ही एक कृत्रिम क़िस्म का इतिहास आपको कई जगह पढ़ने मिल सकता है, जिसकेअनुसार दही वड़े का आविष्कार 18वीं सदी में मुग़ल खानसामों ने किया. क़िस्सा कुछ ऐसा है कि मुग़लई खाना क्योंकि बहुत गरिष्ठ होता था तो उसे पचाने के लिए ऐसे व्यंजनों की ज़रूरत होती थी, जो सुपाच्य हों तो मुग़ल खानसामों ने दही बड़ों का आविष्कार किया. माना जाता है कि यमुना नदी का पानी भारी हुआ करता, पचने में मुश्क़िल था तो कोशिश ये थी कि व्यंजनों में पानी की जगह दही का प्रयोग किया जाए.
दही वड़ा रेसिपी की ट्रिक्स: आपको इन्टरनेट पर दही वड़े की विभिन्न तरह की रेसिपीज़ मिल जाएंगी, पर कुछ ट्रिक्स हैं, जो इन्हें बेहतर बनाती हैं. मैं यहां उन्हें आपके साथ साझा कर रही हूं:
1. दही वड़ा के लिए दाल को पूरी रात न गलाएं. इसकी दाल चार से छह घंटे के बीच आराम से गल जाती है.
2. दाल बहुत ज़्यादा पानी डालकर न पीसें और जितना बारीक़ ग्राइंड कर सकती हों, करें. (दाल पीसते समय बाक़ी मसाले, जैसे- अदरक, जीरा आदि के साथ इसमें ज़रा-सी हींग डाल दें, दही वड़े अधिक सुपाच्य बनेंगे.)
3. तैयार घोल को चम्मच से एक ही तरफ़ घुमाते हुए फेंटें और जब आपको लगे कि यह हल्का हो गया है तो कटोरी में पानी लें थोड़ा-सा घोल उसमे डालें, अगर वह पानी पर तैरने लगे तो समझ जाइए कि घोल वड़ा बनाने के लिए तैयार है.
4. दही वड़े के दही में हो सके तो थोड़ा पुदीना पाउडर डालें. हालांकि ये ज़रूरी नहीं है, पर यह स्वाद को बेहतर बनाता है. इसे एक दिन पहले भी आराम से बनाकर रखा जा सकता है तो उसी वक़्त बनाकर खाने की होड़ न करें.
क़िस्सा दही वड़े का: इंदौर के प्रसिद्ध जोशीजी के दही बड़े के जितने क़िस्से मशहूर हैं, वो तो आपको कोई भी इन्दौरी सुना देगा कि किस तरह जोशीजी दही वड़े का दोना उछाल-उछालकर उसमें चुटकियों से मसाले डालते हैं. और जब वो ये करते हैं तो आसपास के लोग रुक जाते हैं, कौतूहल से ये सब देखने के लिए. पर मैं आपको अपना क़िस्सा सुनाती हूं- मैं बचपन से दही कम ही खाती रही हूं. आज भी दही बस छाछ के रूप में ही लेती हूं तो अपने बचपन में सारे दही वड़े मैंने बस वड़ा और चटनी रूप में ही खाए हैं, पर अब दही वड़े में थोडा दही खाने लगी हूं. ख़ैर, दही वड़े का ये मज़ेदार क़िस्सा तब का है, जब मैं बैंक में काम करती थी. हमारे बैंक मैनेजर को डॉक्टर ने किसी वजह से रोज़ दही खाने को कहा. उन्हें दही वड़े बहुत पसंद थे. पर समस्या ये थी कि से दही बड़े बनवाकर लाते तो गर्मियों की दोपहर में दही ग़ज़ब खट्टा हो जाता. तो वो क्या करते कि घर से टिफ़िन में दही जमवा लाते और अलग डब्बे में वड़े ले आते. दोपहर में जब खाना खाने बैठते तो दही जम चुका होता, फिर तो साहब दही वड़े की महफ़िल जमती. पेंट्री में से मसाले निकाले जाते, दही फेंटा जाता. वे ख़ुद तो खाते ही दूसरों को भी बड़े चाव से दही वड़े खिलाते.
तो ये था दही वड़े का मेरी यादों का झरोखा. होली पर न बनाए हों तो कोई बात नहीं, रंग पंचमी पर दही वड़े बनाएं और आनंद से खाएं. हां, आपकी यादों में भी दही वड़े से जुड़ा कुछ हो तो हमें ज़रूर बताइए, इस आईडी पर: [email protected]
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