इन दिनों ऐसे पैरेंट्स की कमी नहीं है, जिनका मानना है कि उनका बच्चा पढ़ाई या दूसरे कामों में ध्यान नहीं लगा पाता. उसकी एकाग्रता जल्द टूट जाती है. कहीं बच्चे का ज़रूरत से ज़्यादा ऐक्टिव होना अटेंशन डेफ़िसिट हाइपरऐक्टिविटी डिस्ऑर्डर (एडीएचडी) की निशानी तो नहीं है?
बच्चों में ऊर्जा का भंडार होता है. वे एक जगह टिककर बैठ नहीं सकते और न ही अपने माता-पिता को बैठने देते हैं. हम बच्चों के पीछे भाग-भागकर थकने के बाद उन्हें डांटकर भले ही शांत रहने कहें, पर हम सभी को हंसते-खेलते, उछलते-कूदते, दौड़ते-भागते बच्चे ही अच्छे लगते हैं. पर समस्या तब पैदा हो जाती है, जब आपको पता चलता है कि बच्चे का उछलना-कूदना उनकी ऊर्जा और बालसुलभ चंचलता की वजह से नहीं है, बल्कि वे हाइपरऐक्टिव हैं. इसी हाइपरऐक्टिविटी के चलते वे किसी भी काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते. चलिए, इस समस्या को समझते हैं. ताकि हम अपने बच्चे को बेहतर ढंग से समझ सकें.
क्या है यह समस्या?
किसी काम पर ध्यान केंद्रित न कर पानेवाले अतिसक्रिय बच्चे अटेंशन डेफ़िसिट हाइपरऐक्टिविटी डिस्ऑर्डर (एडीएचडी) नामक एक मानसिक गड़बड़ी से पीड़ित हो सकते हैं. इसके प्रमुख लक्षण हैं चीज़ों पर ध्यान न देना, अतिसक्रियता और उतावलापन. हमेशा हड़बड़ी में लगनेवाले ये बच्चे किसी भी काम को सही से नहीं कर पाते. सबकुछ गड़बड़ कर देने के कारण पहले जहां इस तरह के बच्चों को भुलक्कड़, पागल, मूडी या लापरवाह की कैटेगरी में डाल दिया जाता था, अब इस मानसिक अवस्था को लेकर जागरूकता बढ़ रही है. आमतौर पर सात से नौ साल के बच्चों में एडीएचडी के लक्षण स्पष्ट तौर पर नज़र आने लगते हैं. इन बातों पर ग़ौर करके एडीएचडी को पहचाना जा सकता है.
–बच्चा क्लासरूम में डीटेल्स पर ध्यान नहीं दे पाता. स्कूली पढ़ाई में छोटी-मोटी ग़लतियां करता है.
–खेलकूद में पीछे रहता है, क्योंकि उसे गेम के रूल्स ठीक से समझ नहीं आते.
–जब कुछ बताया जा रहा होता है, तो उसका ध्यान कहीं और रहता है.
–बहुत जल्दी और आसानी से उसकी एकाग्रता भंग हो जाती है.
–रोज़ाना की गतिविधियों को भूल जाता है.
–किसी भी काम को, ख़ासकर दिमाग़ी काम को करने में मुश्क़िल होती है.
–ये एक जगह बैठ नहीं पाते, यहां तक कि खाना खाते समय भी हिलते-डुलते रहते हैं.
–एक जगह से दूसरी जगह दौड़ते-भागते रहते हैं, चीज़ों से टकराते रहते हैं.
–एक जगह बैठे रहते हैं तो भी इनके हाथ-पैर हिलते-डुलते रहते हैं.
यदि आपके बच्चे में इनसे से पांच से छह लक्षण दिखें तो डॉक्टर को दिखाना ठीक रहेगा, ताकि यह पता लग सके कि बच्चे को वाक़ई कोई समस्या है या यह महज़ आपका भ्रम है. वैसे आजकल हम अपने बच्चों पर ज़्यादा ध्यान देने लगे हैं तो कई बार बेवजह की चिंता भी पाल लेते हैं. डॉक्टर को दिखाकर चिंता मुक्त हो जाना ज़्यादा अच्छा रहेगा.
समस्याएं, जिनका सामना एडीएचडी से जूझ रहे बच्चे या बड़े भी करते हैं
एडीएचडी का पहला प्रभाव स्कूली पढ़ाई पर पड़ता है, क्योंकि स्कूल में एकाग्रता की ज़रूरत होती है. चीज़ों को याद रखना होता है, ऑर्गनाइज़ यानी व्यवस्थित रखना होता है. वे अक्सर होमवर्क नहीं करते या उसमें ग़लतियां करते हैं. नोट्स लेने में उनसे ग़लतियां हो जाती हैं. वे सवालों के जवाब नहीं दे पाते. आमतौर पर यह देखा जाता है कि एडीएचडी वाले बच्चों को सोशलाइज़ेशन में समस्या नहीं होती. वे दूसरे बच्चों की तरह आसानी से दोस्त बना लेते हैं. पर अपने अधीर और अनस्टेबल स्वभाव के चलते दोस्ती निभाना उनके लिए थोड़ा कठिन होता है. चूंकि वे अपनी भावनाओं को कंट्रोल नहीं कर पाते, चीज़ों पर फ़ोकस पर पाना उनके लिए मुश्क़िल होता है, उनके लिए रोज़ाना के काम बिना गड़बड़ी के कर पाना कठिन होता है. माता-पिता और भाई-बहन को उनके लेकर शांत और संयमित होना पड़ता है.
कैसे मदद करें, एडीएचडी से लड़ रहे बच्चों की
एडीएचडी वाले बच्चों की ज़िंदगी को आसान बनाने के लिए कई थेरैपीज़ उपलब्ध हैं. बच्चे के काउंसिलर और डॉक्टर की सलाह और निर्देश पर इन्हें अपनाया जाना चाहिए.
उनके खानपान पर ख़ास ध्यान दें: यह बात साइंटेफ़िकली प्रूव हो चुकी है कि फ़ास्ट-फ़ूड और प्रोसेस्ड फ़ूड का लंबे समय तक सेवन करने से एडीएचडी की समस्या बढ़ती है. आपको अपने बच्चे के खानपान पर ख़ास ध्यान देना होगा. यह सुनिश्चित करें कि वे सेहतमंद चीज़ें खाएं. पैकेज्ड फ़ूड को उनके खानपान से बाहर ही रखें तो बेहतर होगा.
बच्चे को शांत रखने के लिए पहले ख़ुद शांत रहें: बेशक, आप कभी-कभी बच्चे की हरक़तों को देखकर झुंझलाहट से भर जाएंगे. उनपर चिल्ला देंगे. पर आपके इस व्यवहार से कोई मदद नहीं मिलनेवाली है. आपको बच्चे की हरक़तों पर रिऐक्टर करने से बचना होगा. ख़ुद को कंट्रोल करना होगा. ग़ुस्सा तो बिल्कुल भी न करें. कहने का मतलब है बच्चे को शांत रखने के लिए, पहले ख़ुद शांत रहना सीखना होगा.
बच्चे को एक्सरसाइज़ के लिए प्रेरित करें: चूंकि हाइपरऐक्टिव बच्चों में बहुत ज़्यादा ऊर्जा होती है, आपको उनकी ऊर्जा को बाहर निकालने का तरीक़ा सिखाना होगा. ऊर्जा को बाहर निकालने के लिए एक्सरसाइज़ से बेहतर भला और क्या होगा. आप ख़ुद भी बच्चे के साथ एक्सरसाइज़ करें. इससे बच्चे की हाइपरऐक्टिविटी कम होगी और आपका तनाव भी. आप बच्चे को किसी ऐसे खेल से भी जोड़ सकते हैं, जिसमें बहुत ज़्यादा शारीरिक ऊर्जा की ज़रूरत हो.
बच्चे को प्रकृति से जोड़ें: प्राकृतिक नज़ारों का हमारे मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. हम रिलैक्स्ड और फ्रेश महसूस करते हैं. प्रकृति का सानिध्य हाइपरऐक्टिव बच्चे को भी नई ताज़गी और शांति से भर देगा. इस दौरान आप बच्चे के साथ रहें और उसके साथ बातचीत करें. उसके मनोभावों को सुनें. उसके इमोशन को महसूस करें. आप दोनों बेहतर महसूस करेंगे.
मेडिकेशन: कई अभिभावकों को लगता है कि यह कोई ऐसी बीमारी नहीं है, जिसके लिए बच्चे को दवाइयां देनी पड़े. पर आपके कंसल्टिंग डॉक्टर समस्या के आधार पर दवाइयां प्रिस्क्राइब कर सकते हैं. ये दवाइयां ब्रेन के थिंकिंग और अटेंशन वाले हिस्से को स्टिम्युलेट यानी उत्प्रेरित करती हैं. इन दवाइयों का उद्देश्य होता है हाइपरऐक्टिविटी और जल्दबाज़ी/अधीरता वाली प्रवृत्ति को कम करना और बच्चों की एकाग्रता को बढ़ाना. पर यदि आप मेडिकेशन को लेकर संशय में हों तो किसी दूसरे एक्सपर्ट डॉक्टर से सेकेंड ओपीनियन लेने में कोई बुराई नहीं है.
बिहेवियर थेरैपी और ट्रेनिंग: हाइपरऐक्टिव बच्चों को बिहेवियर थेरैपी दी जाती है, जिसमें ट्रेनर उन्हें कुछ बेहद ज़रूरी सोशल स्किल्स सिखाते हैं, मसलन-अपनी बारी का इंतज़ार करना, दूसरों के चेहरे के हावभाव पढ़ना, अपनी चीज़ें शेयर करना, दूसरों से मदद मांगना, अपने इमोशन्स को कंट्रोल करना आदि. थेरैपिस्ट इन बच्चों के अभिभावकों को भी प्रशिक्षित करते हैं, ताकि वे अपने बच्चे को ठीक तरह से समझ सकें.
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