मदर्स डे! हालांकि कुछ लोग अब भी यह कहते मिल जाते हैं कि मदर्स डे मनाना हमारी संस्कृति नहीं, पर वे भी इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि हमारे देश में भी इसे मनाने का चलन पिछले कुछ सालों में बढ़ा ही है. इस दिन हमारे देश में हर धर्म और मज़हब के लोग बाज़ार के दबाव में ही सही अपनी मां को याद कर लेते हैं, उनसे फ़ोन पर बात कर लेते हैं और कुछ तो उन्हें हैप्पी मदर्स डे कह कर विश भी कर देते हैं. लेकिन जिस तरह हमारे देश के सामाजिक तानेबाने में पिछले कुछ सालों में बदलाव आया है, जिस तरह अल्पसंख्यकों, बहुसंख्यकों के मुद्दे उठाए जा रहे हैं और जिस तरह की हिंसा देखने में आई है, आख़िर यह भी तो जाना जाना चाहिए कि आख़िर एक मां ऐसे में कैसा महसूस करती है? आज से आठ मई तक हम रोज़ाना इस मामले में एक मां से बात कर के जानेंगे उनके दिल की बात. जानेंगे कि आज के परिवेश में वो अपने बच्चों को बड़ा करते हुए कैसा महसूस करती हैं? आज इस क्रम में हमने बात की जयपुर की माधुरी उपाध्याय से.
माधुरी उपाध्याय आकाशवाणी जयपुर में समाचार वाचक हैं. साथ ही वे एक ऑडियो प्रोडक्शन कंपनी में कंटेंट हेड और वॉइस आर्टिस्ट हैं. विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में उनके कहानी और लेख प्रकाशित होते रहते हैं और रेडियो शो लेखन में काफ़ी सक्रिय हैं. बॉलिवुड और विज्ञान अक्सर उनके लेखन का केंद्र होता है. हमने उनसे भी देश के माहौल के लेकर सवाल किए और जाना क्या है उनके दिल की बात.
आज के समय, जब देश के सामाजिक तानेबाने को हिलाती हुई ख़बरें आती हैं. देश के माहौल पर असर पड़ रहा है बतौर एक मां आप अपने बच्चे की परवरिश को लेकर कैसा महसूस करती हैं?
सच बताऊं तो एक मां होने के तौर पर मैं तो चाहती ही नहीं कि उसे देश के माहौल के बारे में कुछ भी मालूम हो. एक परसेंट भी नहीं, हालांकि उसे मैं एकदम से अनछुआ नहीं रख सकती. डर लगता है कि वो एक ऐसे माहौल में बड़ा हो रहा है जो मेरे विचार में ज़हर के समान है. सबसे ज़्यादा डर उसके सवालों से लगता है कि उनका क्या जवाब दूं? अगर दूं भी तो मैं कहीं बायस्ड न हो जाऊं. पहले अख़बार पढ़ा करता था, दो-तीन साल पहले की बात है, एक रोज़ बोला,“ममा, ये संदिग्ध क्या होता है?”, “ नाथूराम गोडसे कौन था ?”, “ये जेएनयू क्या है?” ऐसे ही अनगिनत से सवाल थे. मुझे जहां तक समझ आता था, बिना राजनीति की बात करे समझा देती थी. मगर अब, क्यूंकि बड़ा हो गया है तो उसके सवाल कम हो गए हैं. वो नेट पर उन सवालों के जवाब ढूंढ़ता है. और यहां से मेरा डर और बढ़ जाता है. जाने क्या समझेगा, जाने क्या सोचेगा? चौदह साल का होने के बाद अब वो मेरे पास नहीं आता कुछ भी जानने को, वो दोस्तों से बात करता है. एक दिन कुछ राजनीतिक विषय पर उसके दोस्त बात कर रहे थे, आधी अधूरी जानकारी, आधी अधूरी समझ. जो उन्होने अपने मां-बाप, रिश्तेदारों को सुनकर बनाई है.
मुझे अपने बचपन से कुछ बातें याद हो आती हैं .बाऊजी (दादाजी) ज़रूर एक रुपए का सिक्का दे के हम बच्चों को अपनी पार्टी की तरफ़ कर लिया करते थे. इतने रुपए काफ़ी थे नारंगी चुस्की ख़रीदने के लिए सो आप ये समझ सकते हैं हम एक रुपए में भक्त बने. मौज-मस्ती उड़ाई उस एक रुपए की फिर अगले सिक्के का इंतज़ार फिर भक्ति में रजिस्ट्रेशन, फ़र्ज़ी एकदम.
दादी के घर में भगवा रंग, राम कथा भी होती, दादी बीजेपी से पार्षद भी बनीं. चुनाव के दौरान मेरी आवाज़ में कैसेट रिकॉर्ड करवा ली गयी, साईकल रिक्शा वाला दौड़ाता फिरता आवाज़ को. ये मानें कि पूरा ही परिवार कट्टर. ख़ैर,मुझे कोई ज़्यादा लेनादेना था नहीं. कॉलेज हुआ. पॉलिटिक्स जाने कहां चली गई. फिर आराम से देश चल ही रहा था इसलिए उस ओर ध्यान नहीं दिया. फिर अचानक जैसे लगने लगा पॉलिटिक्स तो होनी चाहिए,पढ़ना शुरू किया, जैसे मौक़ा मिला, जहां मिला. तब भी कच्ची कौड़ी ही रही इस विषय में. मुझको लगा ये बड़ा आसान है, सब कर सकते. हर चाय की गुमटी पर राजनीति होती है. कौन बड़ी बात है? फिर स्मार्ट फ़ोन आया, सोशल मीडिया आया. सुनने पढ़ने को ढेर विचार और ढेर लोग मिले. व्यू बनता गया. मुझे लगता है अब उसी आयु वर्ग में मेरा बेटा भी है मगर अब की बात अलग है. इस जातिवाद , सांप्रदायिकता और धर्म के चर्चे में उसकी विचारधारा कहीं खो ना जाए.
वही बात हो गई, आपने उसे बड़ा हो गया है ऐसा समझा उबाल कर दाल दे दी है. घी- मसाला दे दिया है. अब वो इसमें कैसा तड़का लगाएगा, कितना मसाला डालेगा उस पर ही निर्भर करता है.
आप आज के माहौल को देखते हुए अपने बच्चे को, इस देश के अन्य लोगों को और सरकार को क्या कहना चाहती हैं, ताकि अपने देश में हम सभी शांतिपूर्वक रह सकें?
विज्ञान कहता है दिमाग़ के भीतर कई खाने हैं, जिनमें अलग अलग जज़्बात रहते हैं. मैंने महसूस किया है कि हर आदमी के भीतर कई छोटे-छोटे आदमी रहते हैं. उसके क्लोन…प्यार वाला, ख़ुश वाला, दुःखी वाला, आक्रोश वाला. प्यार वाले को ख़ुद का सा कोई मिला तो वो प्यार बन जाता है, आंसू बहा लेता है, हंस भी लेता है, लेकिन जो सबसे उपेक्षित है, वो है ग़ुस्सा या आक्रोश. जो हमेशा पूरी शख़्सियत पर हावी होने को तैयार रहता है. पर फिर दबा लिया जाता है. ये आक्रोश संतुष्ट भी जल्दी हो जाता है, ख़ुश भी जल्दी हो जाता है. फिर जब भी बाहर ये आक्रोश दिखता है, कहीं भी किसी भी रूप में तब भीतर का आक्रोश उसे ही हीरो मान लेता है. हम वैसा ही बनना चाहते हैं. मगर कब तक… सवाल ये है? कब तक हम रात को आक्रोश लेकर सोएंगे, सुबह उठकर उसे गर्वित और हीरो से प्रेरित देखेंगे…?
मैं लोगों से कुछ कहना नहीं चाहती बस सवाल ही पूछना चाहती हूं कि आख़िर कब तक आक्रोश का ये तमाशा चलेगा? मैंने ऐसे ऐसे शांत लोगों को भी इन दोनों आग उगलते देखा है, जिन्हें मैं वर्षों से बहुत संवेदनशील और सुलझा हुआ मानती थी. उन्हें नहीं मालूम क्या हुआ, पर वे उलझ रहे हैं, भड़क रहे हैं. इसलिए हम सब की ज़िम्मेदारी सबसे बड़ी है हमारे बच्चों को सही दिशा देने की. उनको बिना पूर्वाग्रह के उनके सवालों का जवाब देने की. बच्चे पर अपनी किसी भी प्रकार की विचारधारा थोपने की. बच्चा अगर छोटा है तो उसके सामने राजनीतिक बातें करने से परहेज़ करके. अगर करें भी तो जाति और धर्म जैसी बातों से उसे दूर रखने की कोशिश करें. अगर उसके कोई भी सवाल हैं तो किसी भी पूर्वाग्रह में आए बिना एक बहुत सधा हुआ जवाब दें, क्यूंकि अगर आप अपना कोई भी विचार रखेंगे तो उनका मौलिक विचार कभी बन ही नहीं पाएगा. और एक विचारहीन व्यक्तित्व ही समाज और देश की इस हालत का ज़िम्मेदार बनता है. सरकार से कहना है यही कि व्यक्ति के भीतर आक्रोश का निष्क्रिय पुतला जो है, कृपया उसे न सुलगाएं. वरना ये आग सब कुछ ख़ाक कर देगी.
बच्चों से कहना है ख़ूब ज्योग्राफ़ी पढ़ो. देखो समंदर कितना बड़ा है, ज़मीन कितनी कम है. देखो छोटे छोटे देशों को, नाम याद रखो उनके. ग्लोब देखो , देखो कितना विस्तार है दुनिया का. मां-बाप और उनके दोस्तों से पूछ लो हमारे यहां दिन है तो धरती के आधे हिस्से में रात क्यूं है? आर्कटिक में क्यूं पिघल रहे हैं ग्लेशियर? उलझा दो उनको क्यूंकि ये उलझन कहीं ज़्यादा अच्छी है, बेहतर है.
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