यदि आप भी हिंदी भाषा की पत्रकारिता करना चाहते हैं/करते हैं और पुस्तकों की आलोचना या समीक्षात्मक आलोचना का काम आपके ज़िम्मे है तो ज़ाहिर है कि किताबें, ढेर सारी किताबें पढ़ना आपकी प्राथमिकता होनी चाहिए. तभी तो आप जिस किताब की अलोचना करना चाहते हैं, उसे पढ़ने के बाद उसे दूसरी किताबों/संदर्भों/जीवन के पहलुओं के समकक्ष किसी कसौटी पर परख सकते हैं. जानेमाने लेखक व पत्रकार प्रियदर्शन पुस्तकों की अलोचना के गुर सिखा रहे हैं, जो आलोचना में आपको सिद्धहस्त करने का काम कर सकते हैं.
आलोचना करते समय सबसे पहले ध्यान में रखने वाली बाती यह है किआलोचक का काम किताब के प्रचार में मददगार होना नहीं है. उसका काम रचना के मर्म तक पहुंचना, उसके अधिकतम संभव अर्थों या अनर्थों को उद्घाटित करना है. रचना को कायदे से सीधे पाठक तक पहुंचना चाहिए. महान रचनाएं पहुंचती भी हैं. आलोचक बस इतना कर सकता है कि वह कई बार उनके अंधेरे में छुपे अर्थों को प्रकाशित कर देता है.
जॉनाथन स्विफ़्ट की ‘गुलीवर ट्रैवेल्स’ सबने पढ़ रखी है. लिलिपुट से निकलने के बाद अपनी दूसरी यात्रा में गुलीवर ब्रॉब्डिंगनैंग के लोगों के हाथों में पड़ जाता है, जो उससे कई गुना लंबे-चौड़े हैं. एक लड़की गुलीवर को हथेलियों पर रख कर खेलती रहती है. जब वह नहा रही होती है तो गुलीवर उसकी देह का, उसके रोम छिद्रों का वर्णन करता है जो कहीं से सुंदर नहीं हैं. इस बात की तरफ़ आलोचक ध्यान खींचते हैं कि किसी भी चीज़ को ठीक से देखने के लिए उचित दूरी का परिप्रेक्ष्य आवश्यक होता है. अगर आप सबकुछ खुर्दबीन से देखने पर तुल जाएं तो सुंदर देह भी असुंदर लगने लगती है.
शेक्सपियर ने महान नाटक लिखे. लेकिन यह उनके आलोचक थे, जिन्होंने उनके छुपे अर्थ खोजे. चरित्रों में ‘फ़ेटल फ़्लॉ’ (सांघातिक गड़बड़ी) की अवधारणा ने उनकी ट्रैजेडीज़ का रंग गाढ़ा किया- बताया कि उनके बेहद मज़बूत, हौसले वाले, किसी से न हारने वाले क़िरदार अपने भीतर की कमज़ोरी से हारते गए. त्रासदी यह नहीं है कि वे मारे गए- मरना तो हर किसी को है- त्रासदी यह है कि उनकी एक कमज़ोरी की वजह से एक संभावनापूर्ण जीवन का अंत हो गया.
आलोचक की एक भूमिका रचना का युगीन या समकालीन पाठ तैयार करने की है. कृतियां एक बार लिखी जाती हैं- व्याख्याएं बार-बार होती हैं. हर युग की अपनी व्याख्या होती है. हमारे समय में सीता के साथ अपने व्यवहार के लिए राम निंदित किए जाते हैं, तुलसी की तो पूरी सीवन टूट जाती है, प्रेमचंद और निराला पर सवाल उठते हैं (बेशक़ उनके औचित्यपूर्ण जवाब भी आते हैं), और पुरानी रचनाओं में निहित मर्दवाद को उजागर किया जाता है.
यही वजह है किआलोचक का काम बड़ा होता चलता है. देशकाल की अचूक समझ उसके लिए अपरिहार्य होती है. मानव मन की थाह लेखक लेता है, लेकिन उसकी विडंबनाओं को आलोचक पहचानता है. वह इस बात की भी पड़ताल करता है कि कई बार बहुत ईमानदारी और मनोयोग से किए गए काम भी अपने लक्ष्य के ख़िलाफ़ चले जाते हैं, क्योंकि उनमें दूरगामी या बहुआयामी समझ नहीं होती.
आलोचक का एक वैचारिक पक्ष तो अपरिहार्य है, मगर आलोचना को लाठी की तरह इस्तेमाल करना ठीक नहीं. इससे रचना का सांप नहीं मरता, आलोचना की लाठी टूट ज़रूर जाती है. मगर आलोचक का यह अधिकार होता है कि वह अपने विवेक से किसी रचना को ख़ारिज करे. उसे किसी भय या दबाव से बचे बिना यह करना होता है. अंततः किसी लेखक या आलोचक के पास उसका अर्जित विवेक ही इकलौती कसौटी हो सकता है. संभव है दुनिया इस कसौटी को स्वीकार न करें, लेकिन वह इसकी परवाह करेगा तो रचना से भी बेईमानी करेगा और अपनी आलोचना से भी.
आलोचक को नव्यता के प्रति भी उदार होना चाहिए. इस राह में कई बार वैचारिक अभ्यास आड़े आते हैं, कई बार आस्वाद का पारंपरिक अभ्यास भी रुकावट बनता है. लेकिन इसके पार जाना होता है. मगर बड़ी रचनाएं अपनी आलोचनाओं के पार चली जाती हैं. वे नई व्याख्याओं को न्योता देती हैं और अपने आलोचकों को चुनौती कि वे देखें और यह जानने की कोशिश करें कि रचना कहां-कहां और कैसे-कैसे पाठक का मर्मस्थल छू पा रही है.
फ़ोटो: फ्रीपिक, पिन्टरेस्ट