‘इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला’ गुलज़ार साहब का लिखा ग़ैरफ़िल्मी गीत है, जिसमें बीच-बीच में उनकी कमेंट्री भी है. कहते हैं कश्मीर के हालातों पर लिखा गीत है. हाल के दिनों में कश्मीर में जिस तरह नब्बे के दशक वाला आतंकवाद लौटा है, यह गीत बिल्कुल सामयिक हो गया है. दशकों बाद वाक़ई वहां कुछ भी तो नहीं बदला है.
इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला
सदियों से गिरी बर्फ़ें
और उनपे बरसती हैं
हर साल नई बर्फ़ें
इन बूढ़े पहाड़ों पर….
घर लगते हैं क़ब्रों से
ख़ामोश सफ़ेदी में
कुतबे से दरख़्तों के
ना आब था ना दानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गईं जानें
कुछ वक़्त नहीं गुज़रा नानी ने बताया था
सरसब्ज़ ढलानों पर बस्ती गड़रियों की
और भेड़ों की रेवड़ थे
ऊंचे कोहसारों के
गिरते हुए दामन में
जंगल हैं चनारों के
सब लाल से रहते हैं
जब धूप चमकती है
कुछ और दहकते हैं
हर साल चनारों में
इक आग के लगने से
मरते हैं हज़ारों में!
इन बूढ़े पहाड़ों पर…
चुपचाप अंधेरे में अक्सर उस जंगल में
इक भेड़िया आता था
ले जाता था रेवड़ से
इक भेड़ उठा कर वो
और सुबह को जंगल में
बस खाल पड़ी मिलती
हर साल उमड़ता है
दरिया पे बारिश में
इक दौरा-सा पड़ता है
सब तोड़ के गिराता है
संगलाख़ चट्टानों से
जा सर टकराता है
तारीख़ का कहना है
रहना चट्टानों को
दरियाओं को बहना है
अब की तुग़यानी में
कुछ डूब गए गांव
कुछ बह गए पानी में
चढ़ती रही कुर्बानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गई जानें
फिर सारे गड़रियों ने
उस भेड़िए को ढूंढ़ा
और मार के लौट आए
उस रात इक जश्न हुआ
अब सुबह को जंगल में
दो और मिली खालें
नानी की अगर माने
तो भेड़िया ज़िन्दा है
जाएंगी अभी जानें
इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला…
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