जब किसी एक समूह, जाति, देश या धर्म के लोग ख़ुद को श्रेष्ठ समझने लगते हैं, तब वे जाने अनजाने कट्टरता की ओर क़दम बढ़ा रहे होते हैं. ऐसा ही कुछ उन लोगों के साथ भी होता है, जिन्हें लगता है कि उनके समूह, उनकी जाति, धर्म या देश के साथ ज़्यादती की गई है, उनके साथ अन्याय हो रहा है. दुनिया तेज़ी से इस तरह की भावनाओं में बंट रही है. आख़िर कौन है इसका कारण? फूट डालो और राज करो की भावना से काम करनेवाले राजनेता? या ख़ुद को एक-दूसरे से पवित्र, महान और सही समझनेवाले तमाम धर्म? या इसमें पैसे की भूमिका है, जो जाति-धर्म से परे स्वयं में एक शक्तिशाली सत्ता है? चिंतक, लेखक और चिकित्सक डॉ अबरार मुल्तानी समाज में तेज़ी से घुल रही इस कट्टरता के कारणों की तलाश कर रहे हैं.
दुनिया बदल रही है और लोग भी. लोग बदलते ही हैं, महीनों में, सालों में, युगों में, सदियों में, और सहस्त्राब्दियों में. लेकिन 21वीं सदी में परिवर्तन बहुत तेज़ी से हो रहे हैं. हम देख रहे हैं कि लोगों की सोच और उनका व्यवहार दोनों ही बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं. कोई भी विशेषज्ञ यह नहीं बता पा रहा है कि लोग, समाज, देश, दुनिया आने वाले समय में किस दिशा में आगे बढ़ेंगे. जो भविष्यवाणियां कर रहे हैं, उन सभी की भविष्यवाणियां ग़लत साबित हो रही हैं.
दुनिया में एक बात जो आजकल देखने में आ रही है, वह है कि लोग आजकल बहुत कट्टर हो रहे हैं. वे समूहों में संगठित हो रहे हैं-धर्म, नस्ल, जाति क्षेत्र और भाषा के आधार पर. इन सब बातों और कट्टरता के लिए लोग नेताओं को दोष दे रहे हैं. मुझे लगता है कि नेताओं का दोष तो है, लेकिन इतना ज़्यादा भी नहीं. नेता लोगों की धारणाओं और भावनाओं के आधार पर अपनी नीतियां और भाषण तैयार करते हैं. लोग जो सुनना चाहते हैं नेता उन्हें वह सुनाते हैं, वह नहीं जो लोगों को सुनना चाहिए.
धर्म, पैसा और नेता नहीं, तो फिर दोषी कौन?
मेरे दृष्टिकोण से लोगों के बदलने की या उनके व्यवहार में परिवर्तन आने की मुख्य वजह है-सोशल मीडिया साइट्स का विस्फोट. लोग अपनी बातें रख रहे हैं, लोगों से जुड़ रहे हैं और सबसे बड़ी बात वे अपनी पहचान बनाने के लिए बेताब हैं. वे भीड़ का हिस्सा तो बनना चाहते हैं या भीड़ इकट्ठा तो करना चाहते हैं, लेकिन भीड़ में सबसे अलग भी देखना चाहते हैं. वह सुदूर बैठे किसी व्यक्ति से फ़ॉलोवर्स की या लाइक बढ़ाने की प्रतियोगिता करते हैं या फिर अपने पड़ोस के ही व्यक्ति के फ़ॉलोअर्स की तुलना में ख़ुद के पास बहुत कम फ़ॉलोवर्स होने से दुखी है. इसके चलते वे सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्ट डालते हैं जिसपर उसे बहुत सारे लाइक मिलते हैं, उसके फ़ॉलोअर्स की संख्या में इज़ाफ़ा हो जाता है. सबसे ज़्यादा लाइक्स और फ़ॉलोवर्स दिलवाने वाली यह पोस्ट उस व्यक्ति की आने वाली पोस्ट का निर्धारण करती है. जब उसे लगता है कि इस तरह की पोस्ट या इस तरह के अवतार में सोशल मीडिया पर लोग मुझे पसंद कर रहे हैं, तो मुझे अपने इसी रूप में रहना चाहिए. अब यदि पोस्ट किसी समूह विशेष के लिए घृणा फैलाने वाली या लोगों को एक विचारधारा पर लाने वाली होती है तो फिर वह व्यक्ति आगे भी उसी विचारधारा को आगे बढ़ाने वाला बन जाता है. चाहे वह शुरुआत में उस विचारधारा से प्रभावित नहीं था या उसका समर्थक नहीं था, लेकिन लोगों के समर्थन और लाइक्स ने उसे उस ओर धकेल दिया.
संगठन शक्ति से विकृति में यूं बदल जाता है
हम जानते हैं कि मनुष्य संगठित होना चाहता है और एक संगठन से जुड़ना चाहता है. ऐसा वह सुरक्षा की दृष्टि से करता है. सोशल मीडिया पर भी उसे सुरक्षा की आवश्यकता महसूस होती है. इसलिए वह यहां भी समूहों से जुड़ जाता है या अपनी जैसी विचारधारा के लोगों से जुड़ जाता है या अपने क्षेत्र, जाति, धर्म के लोगों के साथ जुड़ जाता है. जब एक समूह बनता है तो मनुष्यों की मूल प्रवृत्ति होती है कि उसके बरअक्स या विरोध में वह एक और समूह भी बना लेते हैं. ऐसे में हम देखते हैं कि सोशल मीडिया पर कई सारे समूह बन जाते हैं. वे एक दूसरे के ख़िलाफ़ लिखकर या विवादित पोस्ट को शेयर करके और भी ज़्यादा कट्टर होते चले जाते हैं. जब एक समूह कट्टरता की बात करता है तो दूसरा समूह भी उसी कट्टरता पर उतर आता है. यह एक चेन रिएक्शन की तरह होने वाली क्रिया है.
जब एक समूह अपने साथियों से प्रेम करने या साथ रहने के लिए पोस्ट के माध्यम से या कमेंट के माध्यम से आह्वान करता है, तो दूसरे विरोधी समूह वाले भी ऐसा ही करने लगते हैं. एक समूह जब कोई रैली या जुलूस निकालता है उसे पोस्ट करता है तो विरोधी समूह के लोग भी ऐसा ही करने के लिए प्रेरित होते हैं. मतलब यह कि ये पोस्ट्स चाहे प्रेम की हो या नफ़रत की, सोशल मीडिया पर बंटे हुए लोगों को दो समूहों में और ज़्यादा बांटती ही है.
जब सोशल मीडिया पर एक समूह देखता है कि उसके ख़िलाफ़ एक माहौल बन रहा है, तो वह और ज़्यादा संगठित हो जाता है या जब उन्हें लगता है कि एक समूह विशेष से उन्हें ख़तरा है, तो उनका भय उन्हें आपस में और ज़्यादा जोड़ देता है. क्योंकि हम जानते हैं कि डर लोगों को संगठित करने वाला सबसे प्रमुख तत्व होता है.
ऐंटी-सोशल कामों को बढ़ावा देती है सोशल मीडिया
सोशल मीडिया के आने के बाद यह भी हुआ है कि एक घटना बहुत दूर कहीं पर घटित होती है और उस पर दूर बैठे लोग प्रतिक्रिया करते हैं. इससे मामला बहुत व्यापक क्षेत्र तक फैल जाता है. उदाहरण के लिए, जब हम अपने मित्र की कोई पोस्ट देखते हैं या किसी पोस्ट पर उसका नफ़रत भरा कमेंट पढ़ते हैं, जो हमारी जाति या धर्म के ख़िलाफ़ होता है, तो हमें लगने लगता है कि हमारा यह दोस्त हमसे भी नफ़रत करने लगा है. सोशल मीडिया ने ऐसे ही कई दोस्तों की शत्रु वाली छवि उनके मन में गहराई तक चस्पा कर दी है.
पहले जब मीडिया और सोशल मीडिया नहीं थे तो थोड़ी दूर स्थित किसी गांव या क़स्बे की आपसी लड़ाई लोगों को प्रभावित नहीं करती थी, लेकिन मीडिया के आने के बाद यह हमारे विचारों या मस्तिष्क में उथलपुथल मचाने लगी और सोशल मीडिया ने तो इसका अनंत विस्तार किया है. अब किसी भी व्यक्ति पर जो लोगों को लगता है कि हमारे समूह का है पर कहीं अत्याचार होता है तो उस पर आई प्रतिक्रियाओं वाली पोस्ट्स और कमेंट्स हमारे दिमाग़ में उथल-पुथल मचा देते हैं.
नेताओं ने भी सोशल मीडिया की इस क्रिया का भरपूर दोहन किया है. वे अपने समर्थकों को संतुष्ट करने के लिए उन्हें परपीड़ा आनंद का मज़ा देते हैं. एक व्यक्ति या एक छोटे से समूह पर अत्याचार या खुलेआम नाइंसाफ़ी करवाकर नेता या पार्टियां अपने ध्रुवीकृत समर्थकों को ख़ुश कर सकते हैं.
पुनःश्च-‘फ़ासिस’ (लेटिन शब्द) का अर्थ होता है लकड़ियों का गट्ठर, इसी शब्द से #फ़ासिज़्म बना है. हम सब फ़ासिज़्म से नफ़रत करते हैं लेकिन एक लकड़ी की कमज़ोरी और लकड़ियों के गट्ठर की शक्तिवाली कहानी अपने बच्चों को ख़ुशी-ख़ुशी सुनाकर उन्हें #एकता की शक्ति का पाठ पढ़ाते हैं. लेटिन भाषा में हम उन्हें फ़ासिज़्म ही सीखा रहें होते हैं. हम ‘एक’ किसी के विरुद्ध ही होते हैं. ‘एकता’ विभाजन का मूल है. एकता के लिए शत्रु का होना ज़रूरी है. #शत्रु के बिना एकता संभव ही नहीं है और उसके बिना एकता का कोई औचित्य भी नहीं. बस हम एक होते वक़्त ध्यान रखें कि हमारी एकता किसी मासूम या मासूमों के लिए मौत का पैगाम लेकर तो नहीं आने वाली है? यह ध्यान रहे कि,’सोशल मीडिया’ एक ‘अनसोशल टूल’ बन चुका है.
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