दुनिया जिस दौर से गुज़र रही है, सभ्यताएं जस तरह एक-दूसरे को तहस-नहस करने के लिए तलवारें खींच चुकी हैं, इसकी पड़ताल करते हुए ध्यानेन्द्र मणि त्रिपाठी कुछ स्वर्ण मारिचिकाओं की बात करते हुए यक्ष और युधिष्ठिर के संवाद के उस हिस्से तक जा पहुंचे, जहां युधिष्ठिर ने दुनिया के सबसे बड़े आश्चर्य की बात यक्ष को बताई. इस नज़रिए को पढ़ कर आप समझ पाएंगे कि आख़िर क्यों हम अपनी सभ्यताओं के नाश के लिए अभिशप्त हैं.
भू-राजनयिक विरोधाभासों और संघर्षों के जिस कठिन दौर से ये दुनिया गुज़र रही है, वो किसी को भी अचम्भित कर सकता है. रूस-यूक्रेन का संघर्ष हो या ताइवान के साथ दो दो हाथ करने पर आमादा चीन के तेवरों की बात हो, समय के इस पड़ाव पर मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों ने मानव सभ्यता का ज़बरदस्त मखौल उड़ाया है.
समय के इस अप्रत्याशित गह्वर में हिचकोले लेती सभ्यताएं जब एक दूसरे को तहस-नहस करने के लिए तलवारें भांज रही हैं, तब रचनात्मकता और कला की मीमांसाएं हमें सुकून के ऐसे नखलिस्तान में ले जाती हैं, जहां युटोपिया की संकल्पनाएं तिरने लगती हैं.
मुझे निर्मल वर्मा जी के वो सवाल याद आते हैं जिनकी प्रासंगिकता, जिनका मौंजूं होना आज की दुनियावी ऊभचूभ को करीने से उकेरता है.
“वे सब अवधारणाएं जो प्रगति, विकास और परिवर्तन के स्रोतों से अपनी संजीवनी शक्ति खींचती थीं, आज इतनी मृतप्राय दिखाई देती हैं कि आश्चर्य होता है कि मनुष्य अपने बारे में इतनी आत्म सम्मोहित छलनाएं पाल सकता है. इन छलनाओं को यथार्थ बनाने की लालसा में समूची जातियों, सभ्यताओं और स्वयं अपनी स्मृतियों की अनमोल सम्पदा नष्ट कर सकता है.”
एक दूसरे को नेस्तनाबूद करने की आदिम प्रवृत्तियों का मूल क्या है? क्यों सतत् संघर्षों में उलझी दुनिया के हुक्मरानों को इस नीले ग्रह से इतर अनहद ब्रह्मांड के मनीषियों के दर्शन याद नहीं आते? महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन हों या अंतरिक्ष के रहस्यों और कालयात्रा के सिद्धांतों को प्रतिपादित करने वाले स्टीफ़न हॉकिंग, सबने इस अनंत बहुब्रह्मांड के बरक्स धरती पर हम मनुष्यों के क्षुद्र अस्तित्व का ज़िक्र किया है, पर आश्चर्य कि मर्त्य नियति के साथ जीने वाले मनुष्यों की अवधारणा इससे बिल्कुल इतर है और शायद इसीलिए युधिष्ठिर को यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देते हुए ये कहने में ज़रा भी संकोच नहीं हुआ कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि मनुष्य ये जानते हुए भी कि वो मर्त्य है, जीवन ऐसे जीता है जैसे वो अमर्त्य हो.
सहज मानवीय लालसाओं के बरअक्स, हम ऐसी स्वर्ण मारीचिकाओं के आलोक में जीते हैं, जो हमारे आत्मविभाजन का दस्तावेज़ बन जाती हैं. हम ऐसी मारीचिकाओं के पीछे भागते हैं, जहां हमें छद्म मुक्तियों का स्वर्ण मृग दिखता है, पर कुटिया से निकल कर स्वर्ण मृग का पीछा करते राम भी जब लौटे तो वही राम नहीं थे. बाहर उन्होंने मृग छलना का सम्मोहन खोया था तो भी भीतर उस संपूर्णता का बोध था, जो सीता के साथ जुड़ा था. आकांक्षा का लक्ष्य मृग और उसका स्रोत सीता- दोनो से वंचित होकर आज का मनुष्य अपने को जिस रिक्तता में पाता है, वह इतिहास और स्मृति के बीच का वह स्थान है, जहां से तटस्थताओं और संघर्षों की तमाम कहानियां शुरू होती हैं.
इन्हीं कहानियों के गिर्द कभी रूस-यूक्रेन तो कभी चीन-ताइवान, अपनी स्मृतियों और अपनी सभ्याताओं के समूल नाश के लिए शायद अभिशप्त हैं…
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट