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जब जागेंगे सपने: जयंती रंगनाथन की कहानी

जयंती रंगनाथन by जयंती रंगनाथन
June 22, 2021
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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जब जागेंगे सपने: जयंती रंगनाथन की कहानी
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कई बार सपने हमें हमारी पूरी ज़िंदगी जी जाने का संबल देते हैं. कई बार हम सपनों में जहां रह रहे होते हैं, वहां के बाशिंदे हो जाना चाहते हैं, लेकिन सच्चाई… उसकी रौशनी न जाने कितने तल्ख़ राज़ खोल देती है और उसके बाद की घर वापसी असली घर वापसी होती है. फिर भी कुछ सपनों को महफ़ूज़ रखने के लिए, उन्हें जगाने के लिए, ज़िंदा रखने के लिए एक झरोखे का होना बेहद ज़रूरी होता है. क्यों? ये जानिए इस कहानी को पढ़कर.

कुछ काम चल रहा था पटरियों पर. लोकल ट्रेन घिसटती आवाज़ के साथ रुक गई. नैना ने छोटी-सी खिडक़ी से झांक कर देखा और कुछ ज़ोर-से कहा,‘‘कल्याण की लोकल लगती है.’’
आदत है उसकी. आते-जाते लोकल ट्रेन, एक्सप्रेस ट्रेन, मालगाड़ी… को ताकते रहने की. पटरियां चाल के बिलकुल नीचे से गुज़रती हैं. नैना खिड़की खोलती है, मां बंद कर देती है,‘‘हद है नैना, कितनी बदबू है बाहर. बंद रखा कर खिड़की.’’
छोटी-सी, लोहे की सांकल वाली, पॉलिथिन और दूसरे कूड़े-कबाड़े से अटी खिड़की नैना के सपनों का झरोखा है. इस झरोखे से ज़रूर मुंबई की पटरियों पर रेलों की थिरकती दुनिया और उसके आसपास की गंदगी दिखती होगी, पर नैना को नज़र आता है एक गोल तालाब, तालाब किनारे दाढ़ी वाले बरगद के पेड़ पर पड़े झूले, केले के पेड़, ढलानों पर चिल्लाते हुए भागते बच्चे. उन बच्चों में एक, सबसे पीछे, ढीली-सी फ्रॉक पहने, वह छोटी-सी छह साल की दुलरिया कौन है? अरे, जानी-पहचानी शक्ल? कहीं यह नैनिया तो नहीं?
धप से रुक गई नैनिया. चाची से दो क़दम दूर. अब वो पास आएंगी और ज़ोर-से उसके गाल पर चिकोटी काटेंगी. आंसू रोकते-रोकते भी नैनिया बरस पड़ेगी. कैसे कहें चाची से, दुखता है. वह तुतलाते हुए कुछ कहती है, सब हंसते हैं. सबके साथ वो भी दौड़ती हुई झूला झूलने चली जाती है. झूले के आसपास कितनी प्यारी-सी बयार चलती है. सीढ़ियों पर बैठ कर तालाब को ताकना. मन आए तो उठ कर एक चक्कर लगा लेना. अहा, कैसे ख़ुशबू भरे दिन थे.
उनके घर की बड़ी वाली खिड़की से तालाब दिखता था. उसका बस चलता तो वहीं बैठी रहे दिन भर. चाची उसे डांट-डपट कर नीचे ले जाती,‘‘अरी नैनिया, बिटिया अकेली बैठी-बैठी क्या ताका करती है. मेरे संग चल बाजार. मैं तुझे लालीपाप ले कर दूंगी.’’

नैनिया और उसका बचपन. बचपन की खिड़की.
एक ये खिड़की है, जहां की दुनिया कुछ और है, उसे दिखता कुछ और. डेढ़ कमरे का घर. सायन और कुर्ला स्टेशन के बीच में. चालियों वाला मकान. नीचे की मंज़िल पर दुकानें. पहली मंज़िल पर चार चालियां. एक बरामदा. ऊपर और दो मंज़िलें हैं. सब फ़ुल. सीढ़ियों और बरामदे में हर वक़्त धक्कमपेल मची रहती है. शोर. सब आदी हो जाते हैं कुछ समय बाद.
मां कहती है, उन्हें भी आदत हो गई है मुंबई की. इस शोरगुल, गंदगी, डेढ़ कमरे के चाल और इस धपधपाती जिंदगी की. नैना को शक़ होता है. मां की आंखों में भी कई बार उसने अपने क़स्बे के तालाब को देखा है, बल्कि उनकी आंखों में तो तालाब में कमल के फूलों को भी खिलते देखा है.
पापा इस डेढ़ कमरे के घर में अपने व्हीलचेयर पर सिमटे-से रहते हैं. पापा के व्हीलचेयर पर रहने, उनकी बीमारी और उनके ना बोलने से घर में किसी को कोई तकलीफ़ नहीं होती. पापा भी इस घर के उतने ही अहम सदस्य और हिस्सेदार हैं, जितने मां, नैना, दिनकर और पप्पू. पापा को सुबह नहलाना और सफ़ाई दीनू की ज़िम्मेदारी है, दाढ़ी बनाना पप्पू की. पापा के शरीर पर क्रीम और तेल लगाना नैना की. मां बहुत प्यार और सावधानी से उन्हें खाना खिलाती है. सुबह दलिया, रात को सूप या खिचड़ी. नैना और भी बहुत से काम बिना कहे कर देती है. उन्हें अख़बार पढ़ कर सुनाती है, उनकी पीठ पर खुजली कर देती है, फ़िल्म की कहानी चटखारे ले कर बताती है. कभी-कभी तो गाने भी लग जाती है.

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इन दिनों उसे थोड़ा कम वक़्त मिल रहा है. वह बारहवीं के बाद पास की एक फ़ैक्ट्री में नौकरी पर जाने लगी है. वहां एक्स्पोर्ट के कपड़े बनते हैं. नैना वहां सुपरवाइज़र है. रोज़ सुबह यूनिफ़ॉर्म वाला पैंट और शर्ट पहनकर जब चाली से निकलती है, तो अपने आप पर गर्व हो आता है.
दीनू तो पिछले चार साल से काम कर रहा है. वह सेल्समैन है. पप्पू जाता है स्कूल, वो भी रो-रो कर. मां तो सालों से नौकरी कर रही हैं. एक निजी अस्पताल में नर्स हैं मां.
बस घर में सपना देखती है तो नैना. पता नहीं कितने सालों से, शायद जब से वो अपना क़स्बा छोड़ कर मुंबई आए, मां को कहते सुना, बस कुछ दिनों बाद हम अपने घर वापस चले जाएंगे. पापा को ठीक हो जाने दो. दीनू को याद है कि जब पंद्रह साल पहले वे लोग अपने क़स्बे से मुंबई आए थे, दादर स्टेशन पर उतरे थे, वहीं पापा ज़मीन पर गिर पड़े थे. उन्हें वहीं से अस्पताल ले जाना पड़ा. उन्हें लकवा मार गया. तब क्या मां रोई थीं? नैना को याद नहीं. मां को नैना ने कभी रोते नहीं देखा. उस समय भी मां ने पापा के इलाज के लिए अपने बचे-खुचे गहने बेच दिए. मां की सहेली कांता ने सवाल किया तो मां ने नरमाई से कहा,‘‘कोई बात नहीं कांता. यहां हम कुछ दिनों के लिए हैं. गहना बिकता है, बिक जाए. क़स्बे में अपना घर है. बस, ये ठीक हो जाएं. आराम से वहां जा कर रहेंगे.’’

क़स्बे का अपना घर. अपनी ज़मीन. अपने लोग. कभी नैना से जुदा नहीं हुए. मां ने कभी होने नहीं दिया. कांता मौसी इसी चाल में रहती हैं, दूसरी मंज़िल में. मां को नर्स की ट्रेनिंग दिलवाने में भी उन्होंने काफ़ी मदद की. मां नौकरी करने लगीं. चाल में सबके घर भले अलग-अलग थे, सब रहते एक परिवार की तरह थे. मां बच्चों को छोड़ आराम से काम पर चली जातीं. किसी के भी घर का दरवाज़ा बंद नहीं होता. कोई भूखा नहीं रहता.
मां ने तो फटाफट मराठी भी सीख ली. घर में बहुत कुछ नहीं था, कभी-कभी तो ज़रूरत की चीज़ें भी नहीं थीं. पर मां हमेशा कहतीं,‘‘अरे, जो पैसा है, वो ख़र्च करो. कल की फ़िक्र मत करो. अपना घर है ना क़स्बे में. वहां जा कर आराम से…’’
एक बस नैना ही थी, जो तुनककर पूछती,‘‘हम कब जाएंगे अपने घर? मां, क्या वो तालाब अब भी होगा? चाची, चाचा? दीपू, गिल्ली, वो छोटा कुत्ते का पिल्ला कल्लू?’’
मां मुस्करा देती,‘‘तुम्हारे कल्लू को छोड़कर सब वैसा ही होगा. तालाब भी, घर भी…’’ उस समय मां की आंखें दप-दप जलने लगतीं और नैना को नज़र आता घर, तालाब, तालाब में खिले कमल और ढलान पर शोर मचाते बच्चे.
एक बच्ची भी, जो अब बड़ी होती जा रही है. पैंट-शर्ट में स्मार्ट लगने लगी है. चतुराई की बातें करती हैं. पहली सैलेरी आई, तो मां ने कहा,‘‘वो कौन सा तो नया रेस्तरां खुला है ना दीनू स्टेशन के पास. चलो, आज नैनिया वहां हमें पार्टी देगी.’’
पापा को कहां छोड़ कर जाएं? तय हुआ, पापा को पड़ोस में रहने वाले नायक अंकल देख लेंगे, बदले में उनके लिए वड़ा-सांबर पार्सल करके ले आएंगे.

मां ने फटाफट सलवार कुर्ता पहना, हाथ में पर्स. तैयार. पप्पू आनाकानी करने लगा,‘‘मैं मैच देख रहा हूं टीवी में. मेरे लिए भी पार्सल लेते आना.’’
मां ने झिड़कते हुए उसकी पीठ पर एक धप्पा मारा,‘‘नो पार्सल. नैनिया की ट्रीट है, चलना है चल. नहीं तो भूखा मर.’’
झींकते हुए चल पड़ा पप्पू भी. दीनू अपने काम से सीधे रेस्तरां पहुंचने वाला था. नैना जीन्स और टी शर्ट में. अच्छा-सा लग रहा था. जेब में गर्म-गर्म नोट.
उड़िपी रेस्तरां. नैना ने सबकी पसंद के ख़ूब सारे आइटम मंगवाए. पाव भाजी, मसाला डोसा, वड़ा सांभार, उत्तपा, दही बड़ा, कलिंगर का शर्बत.
खाने के दौरान दीनू ने अचानक कहा,‘‘मां, वो वृंदा है ना, नायक अंकल की भांजी, कैसी लगती है तुमको?’’
मां ने कुछ सेकेंड सोचने का समय लिया,‘‘अर्रे, मुझे तो बहुत अच्छी लगती है. क्या सोच रहे हो? नायक की बहन तो बहुत तेज़ है दीनू. वह देगी अपनी बेटी का हाथ तुझे?’’
दीनू सिर झुकाकर बोला,‘‘हां, वृंदा ने बात की है उनसे. पर सुनो ना मां… शादी हम सिंपल करेंगे. कोई लेना-देना नहीं. तुम्हें ठीक लग रहा है ना?’’
मां हंसने लगी,‘‘हम अपनी चाली में उसे रखने के लिए किससे क्या लेंगे दीनू?’’
नैना को पता था, दीनू और वृंदा के बारे में. डेढ़ कमरे के घर में सब कैसे रहेंगे? मां ने तुरंत यह दिक्कत भी सुलझा ली,‘‘देख रे दीनू, बाहर की तरफ़ जो छोटा कमरा है, जहां मैं और नैना सोते हैं, वहीं बेड डाल कर अपना कमरा बना ले.’’
‘‘आप लोग कहां सोओगे?’’
‘‘कमरे में जो मेज पड़ी है, किसी काम की नहीं है. पप्पू भी कुछ पढ़ता-वढ़ता तो है नहीं. किचन में एक फ़ोल्डिंग मेज बनवा देंगे. रात को वहीं पढ़ेगा पप्पू. पापा का बिस्तर थोड़ा बड़ा है. पप्पू पापा के साथ सो जाएगा. मैं और नैना नीचे सो जाएंगे. दीनू,अपने ऊपर वाली चाली में बारह लोग रहते हैं. फ़िक्र मत कर. जगह निकाल लेंगे. तू वृंदा से बोलना, ज़्यादा सामान ले कर ना आए. अभी नैना की अलमारी में जगह बना देंगे.’’

मां चुटकियों में सुलझा देती हैं, बड़ी-बड़ी समस्याएं. घर लौटने लगे, तो सबके अंदर शहनाई-सी बजने लगी. बातों से ले कर घर का कोना-कोना शादीमय हो उठा. पूरा चाली उनकी ख़ुशियों में शामिल होने आगे आ गया. कांता मौसी सबसे आगे थी,‘‘देखो, शादी बेशक़ कोर्ट में करो. पर हमें तो पार्टी चाहिए.’’
तय हुआ कि चाली के बाहर ही बरामदे में हलवाई लगाकर पूरी-भाजी, लड्डू बनाएंगे और पूरी चाली को पार्टी देंगे.

देखते ही देखते दीनू और वृंदा की शादी हो गई. नैना की खिड़की वाला आधा कमरा छिन गया. वृंदा हमेशा उसमें परदा डाल कर रखती. नैना को आदत थी, काम से लौट कर देर रात तक खिड़की से बाहर झांकना. आती-जाती ट्रेनों को देखना, आंखों से ट्रेन ओझल होती तो उसके सामने अपना घर, तालाब झूलने लगता. इस सुख के जाते ही वह उदास रहने लगी.
अब वो रात को पापा के साथ बरामदे में बैठी रहती. पापा व्हीलचेयर में और वह मोढ़े पर. वृंदा और दीनू काम से लौटते ही अपने कमरे में चले जाते. पप्पू नीचे खेलने निकल जाता. मां रसोई में. नैना का मन होता तो मां की मदद कर देती. मां उससे ख़ुद कहती,‘‘काम पर से लौटी है, आराम कर, टीवी देख. खाना बन जाएगा, तो बुला लूंगी.’’
अब अकेले बैठे-बैठे आंसू भी आने लगे हैं. मन नहीं करता, पापा के पांवों की मालिश कर दे. पीठ खुजला दे. किसी सहेली से बतिया ले.
उसने मां से कह ही दिया,‘‘इतने साल हो गए मां. हम अपने घर क्यों नहीं लौटते? पापा कभी ठीक नहीं होंगे. वहां हमारा इतना बड़ा घर है. सबकुछ है. फिर हम यहां क्यों पड़े हैं? इस डेढ़ कमरे की चाली में?’’
और दिन होता, तो मां मुस्करा कर टरका देती. पता नहीं क्या हुआ, वह एकदम से दुपट्टे से आंख पोंछने लगी. नैना चौंकी. मां प्याज़ नहीं काट रही थी. दरांती से पालक काट रही थी. फिर ये आंसू?
‘‘मां, क्या हो गया? तुम रो रही हो?’’
‘‘जल्दी लौटेंगे हम नैनिया. तू कहती है, मैं कह नहीं पाती. अपना घर, बाग, बगीचे… मैं जब शादी करके वहां आई थी, तो सोलह साल की थी. तेरी चाची मुझसे एक साल छोटी. पुश्तैनी घर. तेरी दादी बहुत लाड़ करती थीं हम दोनों का. रुनझुन करती रहतीं हम दोनों. हमने दादी के साथ मिल कर फूलों की बगिया लगाई. रोज फूल तोड़ भगवान को चढ़ाने के लिए माला बनातीं. हम दोनों लड़ पड़ते मेरी माला ज़्यादा अच्छी, भगवान पर ये चढ़ेगी.’’
कहते-कहते मां खो-सी गई.
‘‘हम वो घर छोड़ कर यहां क्यों आ गए मां?’’
‘‘एक दिन जाएंगे नैनिया. कामकाज में ऐसे फंसे रहे… तेरे पापा की तबीयत… बता गांव में उनका इलाज हो पाता? मुझे नौकरी मिल पाती? तुम सब पढ़ पाते?’’
‘‘हमारी जड़ें तो वहीं हैं ना मां?’’
‘‘जड़ें… हां, घर तो वही है नैनिया. यहां तो हम मेहमान हैं.’’
नैना के होंठों पर हल्की-सी मुस्कुराहट आई,‘‘मां, सुनो ना. अब तो दीनू का लगन हो गया. वृंदा घर संभाल लेगी. हम थोड़े दिनों के लिए चलते हैं ना अपने घर.’’
मां ने हां में सिर हिलाया. नैना बड़बड़ करती रही,‘‘मुझे वहीं जा कर रहना है. मैं वहीं कोई काम कर लूंगी. स्कूल में. तुम नौकरी छोड़ देना. बहुत हुआ. तुम बस चाची के साथ गपियाना, ख़ूब घूमना. पुराने दिनों की तरह स्वेटर बुनना. पापड़ बनाना. ठीक है ना मां?’’
नैनिया देख नहीं पाई कि मां की आंखों के तालाब में कमल के फूल नहीं खिल रहे. वहां अमावस-सा अंधेरा है…

मां के अलावा एक दीनू है, जो नैना को अच्छी तरह समझता है. वह जान रहा है कि उसकी नैनिया बहन इन दिनों बहुत अकेलापन महसूस कर रही है. ना दीनू के पास उसके साथ बात करने का समय है ना वृंदा के पास. दीनू को अपने दफ़्तर के काम से बाहर जाना है, कोलकत्ता. नैना ने सुना तो भाई के पास उसके कमरे में ही चली आई.
वृंदा ने उसके सपनों वाली खिड़की पर सफ़ेद लेस का परदा लगा रखा है. बिस्तर पर भी सफ़ेद फूलों वाली चादर. नैना को देख कर दीनू ने वृंदा से कहा,‘‘चाय पिलाएगी हम दोनों को?’’
वृंदा कुछ काम कर रही थी. हाथ का काम छोड़कर वह जाने लगी,‘‘मसाले वाली चाय? लौकर घेतो मी.’’
अब घर के सभी बाशिंदे मराठी समझने लगे थे. दीनू ने नैनिया का हाथ पकड़ कर पलंग पर बिठाया. और कहीं बैठने की जगह तो थी नहीं.
नैना धीरे से बोली,‘‘दीनू, तुम कलकत्ता जा रहे हो ना? एक बात बताओ भाई…वो हमारा घर रास्ते में ही पड़ता है ना…’’
दीनू चौंक कर बोला,’‘मतलब, उतरना पड़ता है बीच में. क्या हो गया बहन?’’
नैना ने आंखें उठाईं,‘‘बहुत दिन हो गए. मेरा और मां का भी मन है…वहां जाने का. अपने घर. मेरा यहां दिल नहीं लगता. दम-सा घुटता है मुंबई में. देखो ना भाई, अपने घर में कोई एक भी खिड़की नहीं, जहां से हवा आए. जिनकी मजबूरी है, वो रहें ना यहां. हमारी कौन-सी मजबूरी है? चलो ना हम सब वापस चलते हैं. हमारे घर, हमारा…’’
नैना की आंखों में उग आए सपनों से घबरा गया दीनू. उसने फौरन कहा,‘‘देखता हूं. अगर आते समय काम जल्दी निबट गया तो… देख नैनिया…मुझे तो अच्छा लगता है मुंबई में रहना. मेरी फ़ैमिली भी हो गई है. सबकुछ है यहां. नौकरी है. दो वक़्त अच्छा खा-पी लेते हैं. मैं पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहता…’’
नैना ने बड़ी कातर निगाहों से दीनू की तरफ़ देखा. दीनू सिहर गया. उसने बहन का कंधा थपथपाते हुए कहा,‘‘अरे नैनिया, मैं जाऊंगा अपने घर. ठीक? ख़ुश?’’
नैना ने सिर हिलाया. वृंदा चाय ले आई. नैना सरक कर अपनी छोटी-सी खिड़की के पास चली आई. परदा ज़रा-सा सरकाकर बाहर देखा. फिर कोई ट्रेन रुकी हुई थी. पटरियों पर चलते लोग. पेड़ों पर जमी गंदगी, पॉलिथिन की पन्नियां…
पता नहीं क्यों इस बार उसे वहां तालाब नज़र नहीं आया.

दीनू के जाने के बाद से ही उसके आने का इंतज़ार होने लगा. दीनू ने अपना लौटने का टिकट पहले ही रद्द करवा लिया था. सालों बाद वह अपने क़स्बे को देखनेवाला था. उसे बहुत कुछ अच्छी तरह याद था, यह भी कि क़स्बा छोड़ने से पहले के कुछ महीने सब पर बुरे बीते थे. वह मां का दायां हाथ था. उसे पता था कि मां किस तरह अपना सामान, गहने बेचने उसका हाथ पकड़ कर टैंपों में शहर जाया करती थी. उसकी समझ नहीं आया कि मां ने उन पैसों का किया क्या? पापा और चाचा में रोज़ लड़ाइयां होने लगी थीं. मां नैना और पप्पू को स्कूल भेज देती और वहीं से मास्टरनी के यहां दोनों पढ़ने चले जाते. दीनू ने देखा था घर में पल-पल बढ़ता तनाव. हालांकि उसे कभी समझ नहीं आया कि माजरा क्या था. उसने कभी कुरेदकर मां से पूछा भी नहीं. मुंबई आते ही पापा की बीमारी का संकट इतना बड़ा था कि बाक़ी सारे दुख उसके नीचे दब गए.

कोलकता में दीनू का काम जल्दी निबट गया. ट्रेन जब उसके क़स्बे में रुकी, दीनू का दिल बल्लियों उछलने लगा. सालों पहले यहीं से अनारक्षित टिकट ले कर उसका पूरा परिवार मुंबई की ट्रेन में चढ़ा था. बच्चे सुबह से भूखे-प्यासे थे. पापा बिस्किट का पैकेट ले कर आए थे और दीनू के हाथ में रख कर कहा था,‘सबके साथ बांट कर खाना.’ शायद यह पापा का कहा अंतिम वाक्य था. इसके बाद वे कुछ बोलने की हालत में ही नहीं रहे.
स्टेशन पर चाय की दुकान जस की तस थी. बस प्लेटफ़ॉर्म दो से चार हो गए थे. वह अपना सामान बाहर ले कर आया. धूलभरी सड़कें. सड़कों के किनारे चमचमाती दुकानें. दुकानों के सामने भीड़ से भरे टैम्पो. कुछ भी तो नहीं बदला है.
टैम्पो पर बैठ कर उसने कहा,‘‘नौरंगी चौराहा, पुराने तालाब के पास.’’
‘‘कौन-सा तालाब? नौरंगी चौराहा कौन-सा हुआ?’’
दीनू ने फौरन कहा,‘‘शिव जी मंदिर नहीं रहा तालाब के पास?’’
‘’ऐसे बोलो ना शिब मंदिर.’’
पंद्रह मिनट में शिवजी के मंदिर के सामने उतार गया टैम्पो वाला उसे.
मंदिर बहुत बड़ा हो गया है. शिवजी के मंदिर के आसपास साई बाबा, संतोषी माता के भी मंदिर बन गए हैं. यही गली तो जाती थी उसके घर की तरफ़.
पर अब वहां कोई गली नहीं थी. जिस जगह कभी तालाब हुआ करता था, वहां बच्चों का एक स्कूल था. दीनू चलता हुआ आगे निकल गया. वहां तो दुमंज़िले मकान थे. एक के बाद एक. दीनू देर तक वहीं खड़ा याद करता रहा.
एक कोना भी जाना-पहचाना नहीं. वह थके क़दमों से चलता हुआ एक चाय की दुकान के सामने जा कर बैठ गया. चाय कड़क थी. शहरों वाली चाय.
चाय की दुकान पर एक अधेड़-सा आदमी बैठा था. दीनू ने उससे पूछ लिया,‘‘सरजी, यहां सामने जो घर बने थे, उनका क्या हुआ?’’
‘‘बहुत सालों बाद आए हो का?’’
दीनू ने सिर हिलाया.
‘‘किसे ढूंढ़ रहे हो?’’
‘‘मेरे पिताजी सुधाकर के भाई, मेरे चाचा मधुकर… वो सामने हमारा घर था, नीले दरवाज़े वाला.’’
‘‘ऐसा तो कोई नहीं है बेटा इधर. तुम एक काम करो, पीछे की गली में साइकल की एक दुकान है, गुप्ता मार्ट के नाम से. वो यहां सबसे पुराने हैं, उनसे पता करो.’’
‘‘गुप्ता अंकल की दुकान? वो तो तब भी थी. पर वो साइकिल पंक्चर बनाने की दुकान थी. हम वहां से किराए पर साइकिल लेते थे.’’
‘‘मैंने कहा ना बहुत पुराने हैं गुप्ता जी. वो बताएंगे…’’
दीनू के साथ ही पढ़ता था गुप्ता जी का बेटा अमोल. दुकान की काउंटर में अमोल बैठा मिल गया. दो पुराने बचपन के सखा. अमोल अपने पिता की तरह गदबदा हो गया था. अमोल ने ज़िद पकड़ ली कि लंच पर उसे साथ में घर चलना होगा.
अमोल के घर जाने तक दीनू का मन गुनगुना बना रहा. गुप्ता अंकल को कुरेदना ही नहीं पड़ा. अपने आप बताते चले गए,‘‘सोलह-सत्रह साल हो गए बच्चा. तेरे पिता और चाचा ने मिल कर चिट फ़ंड शुरू किया था. शुरू में तो सब ठीक चला. हर महीने ड्रा निकालते, सबको ईमानदारी से पैसे देते. पर बाद में नीयत में खोट आ गई.’’
‘‘चाचा की?’’
‘‘दोनों भाइयों की नीयत में. ख़ूब पैसे बनाए दोनों ने. सबको लूटकर. तुमको कहां याद होगा बेटा? तुम तो बहुत छोटे थे. मेरा भी पैसा लूट ले गए कमीने. उस बकत, पंद्रह-सोलह लाख का घपला किया होगा. पुलिस में कम्प्लेन गई. दोनों कुछ दिन जेल में भी रहे. पता नहीं उन पैसों का क्या किया हरामज़ादों ने? कोई कहता, किसी तवायफ़ को रख लिया था भाइयों ने. कोई बोलता मुंबई में घर बना लिया है सालों ने. यह भी सुनने में आया कि कोई फ़िल्म बनाने का चक्कर था. यहीं का कोई गधा उनको उल्लू बना गया. सनी देओल को साइन करने के नाम पर कई लाख उनसे ले गया. यह भी सुना था कि उसी गधे के पीछे-पीछे सुधाकर भी मुंबई पहुंच गया था… यहां तो रहना मुहाल था. दोनों भाई भाग गए दुम दबाकर. जिनके पैसे फंस रहे थे, उन्होंने पुलिस और वक़ील को दे दिला कर उनके घर की कुर्की करवाई. बाद में सुना छोटा मधुकर ट्रेन के नीचे आ कर… बड़े का नहीं पता. तुम बताओ…मुंबई में मज़े में रहते होगे? सनी देओल वाली फ़िल्म बनी कि नहीं? क्या करता है तुम्हारा बाप आजकल? तवायफ़ के साथ रहता है कि…’’
दीनू वहां बैठ नहीं पाया. प्लेट में रखा खाना जस का तस रह गया. आंसू के दो चार घूंट गटक वह अचानक ही वहां से निकल गया.

चलते हुए स्टेशन तक आ गया, अजीब मनोस्थिति थी उसकी. क्यों आया यहां? नैनिया का सपनों का घर इस तरह धराशाई करने? मां ने इतने साल इस घर को, ज़मीन को, यादों को किस तरह से ज़िंदा रखा? जो ना कभी था, ना रहा, उसे ताक़त बना दिया. अगर मां सच बता देतीं तो क्या इतने साल वे पिताजी की इज़्ज़त कर पाते, उनकी देखभाल कर पाते? गुरबत की ज़िंदगी में हंस पाते?
रोते-रोते हंस पड़ा दीनू. नैना को वह कभी नहीं बताएगा कि उनका घर तो कभी उनका था ही नहीं. सपने टूटेंगे, तो नैनिया बचेगी नहीं. उसने तय कर लिया कि छोटा कमरा नैनिया को दे कर वह वृंदा के साथ रसोई में अपना बिस्तर लगा लेगा. नैना को जीने के लिए छोटा-सा ही सही, एक झरोखा ज़रूरी है. ट्रेन में बैठकर उसे लगा, असल घर वापसी तो उसकी अब हो रही है. अपना घर, अपना शहर, अपने लोग.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

Tags: a story by Jayanti RanganathanfictionJab jagenge sapneshort storystoryकहानीछोटी कहानीजब जागेंगे सपनेजयंती रंगनाथनफ़िक्शन
जयंती रंगनाथन

जयंती रंगनाथन

वरिष्ठ पत्रकार जयंती रंगनाथन ने धर्मयुग, सोनी एंटरटेन्मेंट टेलीविज़न, वनिता और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में काम किया है. पिछले दस वर्षों से वे दैनिक हिंदुस्तान में एग्ज़ेक्यूटिव एडिटर हैं. उनके पांच उपन्यास और तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. देश का पहला फ़ेसबुक उपन्यास भी उनकी संकल्पना थी और यह उनके संपादन में छपा. बच्चों पर लिखी उनकी 100 से अधिक कहानियां रेडियो, टीवी, पत्रिकाओं और ऑडियोबुक के रूप में प्रकाशित-प्रसारित हो चुकी हैं.

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फ़िक्शन अफ़लातून#12 दिखावा या प्यार? (लेखिका: शरनजीत कौर)
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ओए अफ़लातून

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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