कभी किसी को मुक्कमल जहां नहीं मिलता निदा फ़ाज़ली की मशहूर ग़ज़ल है. सबकुछ हासिल करने को उतावले हर इंसान को जीवन की विडंबनाओं विरोधाभासों को रेखांकित करती यह ग़ज़ल ज़रूर पढ़नी चाहिए.
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआं नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहां उम्मीद हो सकी वहां नहीं मिलता
कहां चिराग़ जलाएं कहां गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बां मिली है मगर हमज़बां नहीं मिलता
चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
ख़ुद अपने घर में ही घर का निशां नहीं मिलता
जिसे भी देखिए वो अपने आप में ग़ुम है
ज़ुबां मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहां उम्मीद हो इस की वहां नहीं मिलता
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