हाल के समय की सबसे तल्ख़ और चुभनेवाली कविता है युवा दलित कवि बच्चा लाल उन्मेष की कविता ‘कौन जात हो भाई?’ आज़ादी के 75 साल बाद भी दलितों की हालात को बयां करती यह कविता समाज के उस तबके को ज़रूर परेशान करेगी, जिसने जाने अनजाने दलितों का शोषण किया है, उनपर अत्याचार किया है या उसे मूक समर्थन दिया है. यह कविता इंस्टाग्राम पर आते ही तहलका मचाने लगी थी. किसी की शिकायत पर इसे आधे घंटे में हटा लिया गया.
कौन जात हो भाई?
‘‘दलित हैं साब!’’
नहीं मतलब किसमें आते हो?
आपकी गाली में आते हैं
गन्दी नाली में आते हैं
और अलग की हुई थाली में आते हैं साब!
मुझे लगा हिन्दू में आते हो!
आता हूं न साब! पर आपके चुनाव में
क्या खाते हो भाई?
‘‘जो एक दलित खाता है साब!’’
नहीं मतलब क्या-क्या खाते हो?
आपसे मार खाता हूं
कर्ज़ का भार खाता हूं
और तंगी में नून तो कभी अचार खाता हूं
नहीं मुझे लगा कि मुर्गा खाते हो!
खाता हूं न साब! पर आपके चुनाव में
क्या पीते हो भाई?
‘‘जो एक दलित पीता है साब!’’
नहीं मतलब क्या-क्या पीते हो?
छुआ-छूत का गम
टूटे अरमानों का दम
और नंगी आंखों से देखा गया सारा भरम साब!
मुझे लगा शराब पीते हो!
पीता हूं न साब! पर आपके चुनाव में
क्या मिला है भाई?
‘‘जो दलितों को मिलता है साब!’’
नहीं मतलब क्या-क्या मिला है?
ज़िल्लत भरी ज़िंदगी
आपकी छोड़ी हुई गंदगी
और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की बंदगी साब!
मुझे लगा वादे मिले हैं!
मिलते हैं न साब! पर आपके चुनाव में
क्या किया है भाई?
‘‘जो दलित करता है साब!’’
नहीं मतलब क्या-क्या किया है?
सौ दिन तालाब में काम किया
पसीने से तर सुबह को शाम किया
और आते जाते ठाकुरों को सलाम किया साब!
मुझे लगा कोई बड़ा काम किया!
किया है न साब! आपके चुनाव का प्रचार…
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