कुछ घटनाएं जो मन को छू जाती हैं, वे कितनी ख़ूबसूरती से लघु कथा में ढल जाती हैं, यह बात आप इस लघु कथा को पढ़ते हुए महसूस कर सकेंगे.
‘‘मां आंखें बंद करो ना,’’ इतना कहकर प्रेम ने हाथों से मां की आंखों को ढंक लिया.
‘‘अरे क्या कर रहा है? इस उम्र में भी शरारतें सूझती रहती है तुझे मेरे साथ,’’ मां ने नाटकीय ग़ुस्से में उसे फटकारा.
‘‘कुछ नहीं कर रहा. बस गेट तक चलो.’’
दोनों मुख्य दरवाज़े तक पहुंचे तो प्रेम ने हल्के से मां की आंखों को अपने हाथों के ढक्कन से आज़ाद कर दिया.
मां ने आंखें खोली तो सामने स्कूटी थी, एकदम नई और चमचमाती हुई.
‘‘अच्छा तो ये तमाशा था? कब लाया? बताया भी नहीं?’’ मां ने एक साथ कई सवाल पूछ लिए, फिर आगे बोलीं, ‘‘ वैसे इसकी ज़रूरत क्या थी? घर में दो बाइक हैं तो सही. नौकरी क्या मिली, हो गई जनाब की फ़िज़ूलख़र्ची शुरू,’’ मां हमेशा की तरह सब एक सांस में बोलती ही गईं.
‘‘अरे रे! ठहरो मेरी डियर एक्सप्रेस. ये मैं अपने लिए नहीं लाया.’’
‘‘तो किसके लिए है फिर?’’ मां ने गहरी भेदी नजर से प्रश्न किया.
‘‘आपके लिए…‘‘यह बोलते हुए प्रेम ने मां का चेहरा हाथों में थाम लिया.
‘‘मेरे लिए? मुझे क्या ज़रूरत है?’’
‘‘ज़रूरत क्यों नहीं? पापा काम में व्यस्त रहते हैं और अब मुझे भी नौकरी मिल गई है. घर में कितने काम होते हैं, जिनके लिए तुम्हें हमारे इन्तज़ार में इतवार तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है. अब तुम हम पर निर्भर नहीं रहोगी.’’
‘‘तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया क्या प्रेम? ये शहर नहीं गांव है बेटा. लोग हंसेंगे मुझ पर.
बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम कहेंगे और फिर मैं कौन सा जॉब करती हूं, जो ये स्कूटी लिए घूमूं?’’ मां ने अपनी चिंता ज़ाहिर की.
‘‘मां आपको लोगों से क्या लेना-देना? भागदौड़ कर जो इतना थक जाती हो तो लोग आते हैं क्या देखभाल करने? मेरी प्यारी मां यही तो उम्र है इन सुविधाओं का हाथ पकड़ने की. जवानी में तो इंसान दौड़-दौड़ कर भी काम कर लेता है, लेकिन अब तो उतनी भागदौड़ नहीं कर सकती हो ना?’’
‘‘लेकिन बेटा इस उम्र में…?’’
मां की बात पूरी होने से पहले ही प्रेम ने अपनी उंगली मां के होठों पर रख दी और लाड़ से बोला, ‘‘चुप, मां! कोई उम्र नहीं है तुम्हारी. बस, 50 की ही तो हो और बोल ऐसे रही हो जैसे 100 की हो,’’ यह कहते-कहते प्रेम हंस दिया.
‘‘ओफ़्फ़हो तू समझ नहीं रहा. गांव में लोग हंसेंगे कि इसे इस उम्र में क्या सूझी?’’
‘‘कोई कुछ भी समझे तुम बस वो समझो जो मैं कह रहा हूं,’’ यह कहकर प्रेम मां का हाथ पकड़ स्कूटी तक ले आया और बोला, ‘‘चलो बैठो.’’
मां हिचकिचाई तो प्रेम ने प्यार से, ज़बर्दस्ती बैठा दिया और ख़ुद पीछे बैठ गया.
‘‘देखो ऐसे करते हैं स्टार्ट ध्यान से सीखना.’’
मां भीतर से ख़ुश भी थी और बेचैन भी. बेचैनी समाज की बनी रूढ़ियों से थी और ख़ुशी इस बात की कि जिस बेटे को जन्म से लेकर आज तक सिखाया वो आज उसका शिक्षक था.
स्कूटी स्टार्ट कर प्रेम मां को समझाता जा रहा था और मां बड़े ध्यान से सब समझ रही थी.
लोगों की नज़रें ख़ुद पर पड़ती देख हिचकिचा जाती, लेकिन बेटे का उत्साह उसे भी जोश और उमंग से भर देता.
उल्लास की लहर पर सवार मां आज ख़ुद को खुली हवा में आज़ाद महसूस कर रही थी. उसे याद आया वो बचपन में चिड़िया बन उड़ जाना चाहती थी. उसे लगा जैसे आज वह ख़्वाब पूरा हो गया. वो उड़ ही तो रही थी ताज़ी और सुगंधित हवा में चिड़िया की तरह चहकती हुई.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट