हर बीतते दिन के साथ, बहुत कुछ पीछे छूट जाता है. कैलेंडर के पन्नों के बदलते ही काफ़ी कुछ बदल चुका होता है. इन्हीं बदलावों के बीच जब आप कुछ पुराने शब्दों को तलाशने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि या तो वे हाशिए पर पहुंच गए हैं, या आधुनिक डिक्शनरी में अपना मतलब खोने लगे हैं. अमरेन्द्र यादव की यह छोटी-सी कविता ऐसे ही कुछ शब्दों की तलाश कर रही है.
कुछ शब्द डिक्शनरी से ग़ायब हो रहे हैं
मीडिया की डिक्शनरी से
‘जनहित’
सरकार के शब्दकोश से
‘ज़िम्मेदारी’
नौकरी की डिक्शनरी में
‘सरकारी’
तेज़ी से गुम हो रही है
प्रेम में आजकल
‘पवित्रता’ थोड़ी कम हो रही है
बचपन की किताब से
‘मासूमियत’ यह शब्द खो रहा है
कोर्ट की डिक्शनरी में
‘न्याय’ रो रहा है
ग़रीब की पोथी में
सिर्फ़ एक ही बचा हुआ शब्द था ‘उम्मीद’
आजकल वह भी
तेज़ी से धुंधला हो रहा है
इंसान के साथ इनबिल्ट था शब्द ‘इंसानियत’
इन दिनों वह भी कहीं गहरी नींद सो रहा है
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