मदर्स डे के अवसर पर जैसा कि हमने तय किया था कि हम पूरे सप्ताह अलग-अलग मांओं से इस बात पर बात करेंगें और उनकी राय जानेंगे कि जिस तरह हमारे देश के सामाजिक तानेबाने में पिछले कुछ सालों में जो बदलाव आया है, जिस तरह अल्पसंख्यकों, बहुसंख्यकों के मुद्दे उठाए जा रहे हैं और जिस तरह की हिंसा देखने में आई है, वे ऐसे में अपने बच्चों को ले कर कैसा महसूस करती हैं? काफ़ी प्रयास के बाद भी हम अपने सर्कल में ऐसी सात मांएं ढूंढ़ने में क़ामयाब नहीं हो सके, जो इस मुद्दे पर हमसे अपनी राय साझा कर सकतीं. तो मैंने सोचा कि ऐसी मांओं को ढूंढ़ने और आपसे मिलवाने का प्रयास जारी रखते हुए, क्यों न बतौर एक मां आज मैं ही आपको इन दो सवालों के जवाब दूं, जो मैं दूसरी मांओं से पूछ रही हूं. तो आज आप इस सीरीज़ के अंतर्गत उन्हीं दो सवालों पर मेरे जवाबों से रूबरू हो लें…
मेरे लिए यह आश्चर्य ही था कि मैं अपनी इस मदर्स डे विशेष सीरीज़ के लिए अपने सर्कल से ऐसी सात मांएं भी नहीं जुटा सकी, जो देश के आज के हालात पर बोलने का साहस करतीं. अधिकतर महिलाओं ने हां कर के ना कर दी. शायद विषय ऐसा था और इससे कहीं ज़्यादा देश का माहौल भी ऐसा था कि जिन्हें मैंने अप्रोच किया उन्होंने इन सवालों के जवाब से कतराना ही सही समझा. हालांकि मेरे हिसाब से मांओं को ऐसे मुद्दे पर और मुखर होना चाहिए, क्योंकि सवाल उनकी औलादों के जीवन से सीधा ताल्लुक़ रखता है. ख़ैर मैं अपनी कोशिशें जारी रखने वाली हूं, उम्मीद है कि कल आपको एक और साहसी मां से मिलवाऊंगी, बिल्कुल वैसे ही, जैसे पिछले चार दिनों से मिलवा रही हूं…
आजकल का जो सांप्रदायिक-सा माहौल हो गया, उसमें बतौर मां मैं अपने बच्चे की परवरिश को लेकर कितना कंसर्न हूं, कितनी चिंता महसूस करती हूं?
सच पूछिए तो मुझे यह बात बुरी तरह परेशान करती है कि ये मेरे बचपन की तरह हमारा देश हम सब का भारत क्यों नहीं बन पा रहा है? इसमें किसी को कम, किसी को ज़्यादा; किसी को दबंग, किसी को कमज़ोर; किसी को अच्छा किसी को बुरा बनने और बनाने की ज़रूरत आख़िर क्यों पड़ रही है? आम जनता को, हम लोगों को तो ऐसी ज़रूरत नहीं पड़ी? तो फिर किसे पड़ती है ऐसे सांप्रदायिक संघर्ष की ज़रूरत? जवाब सीधा है-सत्ता में बने रहने की चाहत रखने वालों को. यह बात मैंने अपने बेटे को बता तो रखी है, पर यह बताते हुए भी मन दुखी रहता है कि क्यों राजनीति हमारे देश के लोगों को एक नहीं रहने देना चाहती? देश आख़िर लोगों से ही तो बनता है और जब उनके बीच संघर्ष कराया जाएगा तो आम लोग ही हिंसा का शिकार होंगे. इस संघर्ष को हवा देने वाले तो इन्हीं आम जन के टैक्स के पैसों पर सुरक्षा लिए घूम रहे होंगे, उनका तो बाल भी बांका नहीं होगा. क्या हम भारत के लोग इतना भी नहीं समझ पाते?
मुझे चिंता इस बात की भी होती है कि ये बच्चे वो सुंदर भारत कहां देख पा रहे हैं, जिसे अनेकता में एकता, सर्व धर्म समभाव और धर्मनिरपेक्षता के लिए जाना जाता है. देश-विदेश (देश में शायद बहुत कम और विदेश में थोड़ा ज़्यादा) के अख़बारों में आए दिन कट्टरता से जुड़ी ख़बरें पटी पड़ी रहती हैं. स्मार्ट फ़ोन पर एक क्लिक में सभी ख़बरें सामने आ जाती हैं और आज के बच्चे केवल देसी मीडिया नहीं देखते. विदेशी मीडिया में भारत में घटते मानवीय मूल्यों, अर्थव्यवस्था के अच्छा न करने, रोज़गार के अवसर न होने जैसी ख़बरों की मौजूदगी के चलते मुझे यह डर सताता है कि आज के बच्चे कहीं भटक न जाएं, कहीं अपने देश को दूसरे देशों से कमतर न आंकने लगें और कहीं वे अपने देश में रहने वाले अपने ही लोगों को ही अपने से कमतर न समझने लगें. क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो यह बतौर देश हमारी हार होगी.
आजकल के माहौल में अपनी चिंता के मद्देनज़र मैं बच्चों से, देश के नागरिकों से और सरकार से क्या कहना चाहती हूं?
मैं बच्चों से ये कहना चाहूंगी कि ख़ूब पढ़ो. जिस सोर्स से जानकारी मिले उससे पढ़ो. फिर यह चेक करो कि जो जानकारी तुम्हारे पास आई है, वो सही भी है कि नहीं. अपने सहज बोध का, अपने दिमाग़ इस्तेमाल करते हुए चीज़ों का आकलन करो, क्योंकि हर चमकती हुई चीज़ सोना नहीं होती. ये जीवन अपने आप में संघर्षों से भरा है तो अपने मन और मस्तिष्क को सचेत रखते हुए निर्णय लो. संवेदनशीलता बच्चों एक बेहतरीन गुण है, तुम उसे खोने मत देना. तुम्हारी संवेदनशीलता हमारे देश को बहुत आगे ले जाने की कूवत रखती है.
आम लोगों से कहना चाहूंगी कि जब तक आप सत्ता को यह नहीं बताएंगे कि आपको इस तरह का सांप्रदायिक संघर्ष अच्छा नहीं लगता, इसमें आप असहज महसूस करते हैं, तब तक सत्ता में चाहे जो हो, वह आपको बांट कर आपके टैक्स के पैसे का इस्तेमाल अपनी सुरक्षा पर करेगा और आपको लड़वाता रहेगा. अत: चुप मत बैठिए. ग़लत बात का विरोध कीजिए. किसी भी देश का मध्यम वर्ग ही देश को चलाने के लिए अपनी मेहनत की कमाई में से टैक्स देता है, पर मध्यम वर्ग के लिए सरकारें कभी कोई ठोस क़दम नहीं उठातीं, क्योंकि वे एकजुट नहीं हैं. सीधा गणित है यदि आप एकजुट नहीं हैं तो वोट बैंक भी नहीं हैं. अब जबकि देश में सांप्रदायिकता घोली जा रही है, कहीं ऐसा न हो कि मध्यम वर्ग की चुप्पी, उसे ही भारी पड़ जाए. क्योंकि यदि सांप्रदायिक संघर्ष हुए तो आप अपने बच्चों को स्थिर जीवन कैसे देंगे?
सरकार से मैं यह कहना चाहती हूं कि शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने का काम करें, ताकि हर भारतीय बच्चा, फिर चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो विज्ञान पर आधारित शिक्षा पा सके. इस काम को सुनिश्चित करें कि कोई भी बच्चा वैज्ञानिक शिक्षा से महरूम न रहने पाए. यदि वाक़ई आपका देश के विकास का इरादा है तो बुनियादी बातों पर ध्यान दीजिए- शिक्षा और देश के लोगों का स्वास्थ्य. देश अपने आप विकास पथ पर चलगे लगेगा.
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