कहते हैं बुरे वक़्त से बेहतर कोई दूसरा शिक्षक नहीं होता. हम सभी अपने जीवन के सबसे कठिन वक़्त से गुज़र रहे हैं. जी हां, महामारी के इस दौर ने हमें ज़िंदगी के कई ऐसे लेसन सिखाए हैं, जो ज़िंदा रहने के लिए बहुत ज़रूरी हैं. कोटा, राजस्थान की मीनाक्षी विजय ने हमें वह सब बताया, जो इस दौरान ज़िंदगी ने उन्हें सिखाया.
कोरोना के बारे में हम और आप कितना ही कुछ सुन चुके हैं, पर जब तक ख़ुद आप पर यह बीतता नहीं है, आप समझ नहीं पाते कि यह वास्तव में क्या चीज़ है. कोरोना वायरस का पहाड़ लगभग सब पर टूटा. जब यह अपना रौद्र रूप दिखा रहा था तभी मेरे अपने मुझे अपना असली रंग दिखा रहे थे. मेरे अपने कुछ ख़ास रिश्तों की महक आना तभी से बंद हो गई जब कोरोना के शुरुआती लक्षण गंध ना आना मुझे महसूस हुआ. सामान्य लक्षणों के साथ कोरोना की शुरुआत हुई थी. दो दिन बीते ही थे पिता की मृत्यु का समाचार आ गया, लगा कि पैरों के नीचे ना तो ज़मीन है ना सिर पर आसमान. अकेले एक कमरे में ख़ुद ही रोना है और ख़ुद ही को समझाना है, ख़ुद ही समझना है. जिन रिश्तों की, मेरे अपनों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत उस समय मुझे थी वही मुझे अनदेखा कर रहे थे. मैं ख़ुद को समझा रही थी कि कोरोना की वजह से कोई मुझे गले लगा कर नहीं समझा सकता, पर दो बोल सांत्वना के भी किसी ने ना कहे. शायद मन वो शब्द सुनना चाह रहे थे जिनसे मुझे रिश्ते की मज़बूती का पक्का विश्वास हो जाए, पर अफ़सोस यह भी नहीं हुआ. अगले दिन मुझे डॉक्टर के यहां ले जाया गया. मुझे मेरे अपनों ने बस इतना ही समझा, उन्होंने डॉक्टर से कहा कि बाक़ी सब ठीक है बस इसके पिता नहीं रहे, अब आप इस हिसाब से दवाई बताएं. उनका मतलब था नींद की दवाई.
मेरा रोना उनको सिर्फ़ सुनाई दे रहा था मेरा दु:ख किसी को समझ में नहीं आया. पिता की कही बात की तुम बहुत हिम्मत वाली हो बार-बार कानों में गूंजती, पर भगवान से मैं सवाल भी करती कि मेरे पापा को जो मुझ पर इतना विश्वास था, उसकी इतनी बड़ी परीक्षा क्यों लेनी है? नींद की दवाई लिखवा कर लाना और कर्तव्य का इतिश्री कर लेना… मेरे किसी ख़ास से मुझे ये उम्मीद नहीं थी और यह बात मुझे अंदर तक तोड़ गई. सिटी स्कैन के लिए जब पीपीई किट पहनाकर मशीन पर लेटाया जाने वाला था तो मेरा हाल रो रोकर बहुत बुरा हुआ हो चुका था. तब अंदर ले जाने वाला मेल नर्स मेरी स्थिति भांप चुका था कि मैं कितना डर रही हुई हूं. मैंने बड़ी मुश्क़िल से कांपते हाथों से किट पहना था. उसने मुझे कुर्सी पर बैठाया और सिर पर हाथ रखकर कहा,‘डरो नहीं सिस्टर, जब तक स्कैनिंग नहीं हो जाती मैं तुम्हारे साथ ही हूं.’ तब वह मुझे देवदूत ही लगा. धीरे-धीरे 14 दिनों का समय पूरा हुआ तो लगा कि आज मैं किसी अपने से गले मिलकर रो लूंगी पर अफ़सोस उसने मुझे गले लगाया पर मेरा मन हल्का करने के लिए नहीं. मेरे मन के भाव से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता. ख्वाहिशो ने मेरे मन के एहसासों को रौंद कर रख दिया.
14 दिनों में मैं रोज़ ही नया कुछ देख रही थी और नया कुछ समझ रही. रिश्तों की नींव थोड़ी-थोड़ी रोज़ कमज़ोर होती जा रही थी. पिता के 12 दिन और मेरे 14 दिनों की क्वारंटीन पीरियड ने सिखाया कि हर रिश्ते में एक तय दूरी रखना ही चाहिए. दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. कोरोना ने अकेले रहना ही नहीं, अकेले जीना सिखा दिया. जान लिया मैंने कि जिन चेहरों को देखकर मेरी सुबह होती थी वह मुझे अदृश्य मास्कों से ढके नज़र आने लगे, उनका असली चेहरा तो अब मैंने कपड़े के मास्क लगे होने के बावजूद देख लिया था. कोरोना वायरस सिखा गया कि बचत क्यों ज़रूरी है, ख़ासकर जब जब महंगी दवाइयां और टेस्ट के बिल सामने आए. अब मैंने रिश्तों पर आंख बंद करके भरोसा करना छोड़ दिया है. जिस तरह हम चीज़ों को बाहर रख देते हैं, कुछ समय बाद ही अंदर लाते हैं बस उसी तरीक़े से रिश्तों को भी समय देना चाहिए, एकदम से अपनाना नहीं चाहिए. हर किसी से तय दूरी का फ़ासला और चेहरे पर नकाब कोरोना काल के लिए ही नहीं अब ज़िंदगी भर का नियम बना लिया मैंने.
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