हिंदी की महान महिला रचनाकारों में महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम हमेशा लिया जाता रहेगा. दोनों बचपन की सहेलियां थीं. दोनों ने न केवल एक-दूसरे के लिखे को सराहा, बल्कि एक-दूजे को प्रोत्साहित भी किया. जहां महादेवी वर्मा एक लंबी आयु लेकर आई थीं, वहीं सुभद्रा ने बेहद कम उम्र में ही लेखन सहित दुनिया को अलविदा कह दिया था. सखी सुभद्रा के बारे में महादेवी ने कई जगह लिखा है. सुभद्रा कुमारी चौहान के जन्म दिवस पर वरिष्ठ पत्रकार सर्जना चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा के संस्मरण में से सुभद्रा कुमारी चौहान के पन्ने पलट रही हैं.
हर व्यक्ति के जीवन में एक दोस्त ऐसा होता है, जो उसे ख़ुद से ज़्यादा पहचानता है, उसकी प्रतिभा को उससे ज़्यादा जानता है. हिंदी साहित्य की प्रसिद्ध कवियत्री और स्वाधीनता सेनानी सुभद्रा कुमारी चौहान छायावाद के चार स्तंभ में से एक महादेवी वर्मा की एक ऐसी ही सखी थीं. अपनी किताब ‘पथ के साथी’ में महादेवी वर्मा ने अपनी और अपनी प्रिय सखी सुभद्रा की क़िस्सागोई की है. महादेवी वर्मा गणित की कॉपी में कविता लिखकर रखती थीं, यह सच भी पूरे स्कूल के सामने सुभद्रा कुमारी चौहान ने ही उजागर किया था और बाद में कहा था, जो कुछ हम सहन करते हैं ज़रा तुम भी करो. चुपचाप कॉपियों में कविता लिख रही अपनी इस सहेली की प्रतिभा को सबसे पहले सुभद्रा कुमारी चौहान ने ही पहचाना था और उसके बाद हिंसी साहित्य को उसकी मीरा मिलीं.
कभी समझौता नहीं किया
अपनी सखी सुभद्रा के बारे में महादेवी लिखती हैं कि घर और कारागार के बीच में जीवन का जो क्रम विवाह के साथ आरंभ हुआ था वह अंत तक चलता ही रहा. छोटे बच्चों को जेल के भीतर और बड़ों को बाहर रखकर वे अपने मन को कैसे संयत रख पाती थीं यह सोचकर विस्मय होता है. कारागार में जो संपन्न परिवारों की सत्याग्रही माताएं थीं, उनके बच्चों के लिए बाहर से न जाने कितना मेवा-मिष्ठान्न आता रहता था. सुभद्रा जी की आर्थिक परिस्थितियों में जेल-जीवन का ए और सी क्लास समान ही था. एक बार जब भूख से रोती बालिका को बहलाने के लिए कुछ नहीं मिल सका, तब उन्होंने अरहर दलनेवाली महिला-कैदियों से थोड़ी-सी अरहर की दाल ली और उसे तवे पर भून कर बालिका को खिलाया. घर आने पर भी उनकी दशा द्रोणाचार्य जैसी हो जाती थी, जिन्हें दूध के लिए मचलते हुए बालक अश्वत्थामा को चावल के घोल से सफ़ेद पानी दे कर बहलाना पड़ा था. पर इन परीक्षाओं से उनका मन न कभी हारा न उसने परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए कोई समझौता स्वीकार किया.
मुझ पर था पूरा अधिकार
महादेवी अपने और सुभद्रा के रिश्ते को लेकर लिखती हैं कि, सातवीं और पांचवीं कक्षा की विद्यार्थिनियों के सख्य को सुभद्रा जी के सरल स्नेह ने ऐसी अमिट लक्ष्मण-रेखा से घेर कर सुरक्षित रखा कि समय उस पर कोई रेखा नहीं खींच सका. अपने भाई-बहिनों में सबसे बड़ी होने के कारण मैं अनायास ही सबकी देख-रेख और चिंता की अधिकारिणी बन गई थी. परिवार में जो मुझसे बड़े थे उन्होंने भी मुझे ब्रह्मसूत्र की मोटी पोथी में आंख गड़ाए देखकर अपनी चिंता की परिधि से बाहर समझ लिया था. पर केवल सुभद्रा पर न मेरी मोटी पोथियों का प्रभाव पड़ा न मेरी समझदारी का. अपने व्यक्तिगत संबंधों में हम कभी कुतूहली बाल-भाव से मुक्त नहीं हो सके. सुभद्रा के मेरे घर आने पर भक्तिन तक मुझ पर रौब जमाने लगती थीं. क्लास में पहुंच कर वह उनके आगमन की सूचना इतने ऊंचे स्वर में इस प्रकार देती कि मेरी स्थिति ही विचित्र हो जाती ‘ऊ सहोदरा विचरिअऊ तो इनका देखै बरे आइ के अकेली सूने घर मां बैठी हैं. अउर इनका कितबियन से फुरसत नाहिन बा’. एमए, बीए के विद्यार्थियों के सामने जब एक देहातिन बुढ़िया गुरु पर कर्तव्य-उल्लंघन का ऐसा आरोप लगाने लगे तो बेचारे गुरु की सारी प्रतिष्ठा किरकिरी हो सकती थी. पर इस अनाचार को रोकने का कोई उपाय नहीं था. सुभद्रा जी के सामने न भक्तिन को डांटना संभव था न उसके कथन की उपेक्षा करना. बंगले में आकर देखती कि सुभद्रा जी रसोई घर में या बरामदे में भानमती का पिटारा खोले बैठी हैं और उसमें से अद्भुत वस्तुएं निकल रही हैं. छोटी-छोटी पत्थर या शीशे की प्यालियां, मिर्च का अचार, बासी पूरी, पेड़े, रंगीन चकला-बेलन, चुटीली, नीली-सुनहली चूड़ियां आदि-आदि सब कुछ मेरे लिए आया है, इस पर कौन विश्वास करेगा! पर वह आत्मीय उपहार मेरे निमित्त ही आता था.
मृत्यु पर किए थे विचार साझा
जब दो दोस्त आपस में बातचीत करते हैं तो अपने भविष्य ही नहीं अपनी मृत्यु की कल्पना को भी एक-दूजे संग साझा करते हैं. अपनी प्रिय सखी की मृत्यु के बारे में महादेवी लिखती हैं कि, वसंत पंचमी को पुष्पाभरणा, आलोकवसना धरती की छवि आंखों में भरकर सुभद्रा ने विदा ली. उनके लिए किसी अन्य विदा की कल्पना ही कठिन थी. एक बार बात करते-करते मृत्यु की चर्चा चल पड़ी थी. मैंने कहा,’मुझे तो उस लहर की-सी मृत्यु चाहिए जो तट पर दूर तक आकर चुपचाप समुद्र में लौट कर समुद्र बन जाती है.’ सुभद्रा बोली,’मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है. मैं चाहती हूं, मेरी एक समाधि हो, जिसके चारों और नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते रहें, स्त्रियां गाती रहें ओर कोलाहल होता रहे. अब बताओ तुम्हारी नामधाम रहित लहर से यह आनंद अच्छा है या नहीं.’ उस दिन जब उनके पार्थिव अवशेष को त्रिवेणी ने अपने श्यामल-उज्ज्वल अंचल में समेट लिया तब नीलम-फलक पर श्वेत चन्दन से बने उस चित्र की रेखाओं में बहुत वर्षों पहले देखा एक किशोर-मुख मुस्कराता जान पड़ा.
‘यहीं कहीं पर बिखर गई वह छिन्न विजय माला सी!’