ज़िंदगी का मज़ा उसके आसान होने में नहीं है, बल्कि विपरीत परिस्थितियों में किए संघर्ष में है. मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं, गोपालदास सक्सेना नीरज की यह कविता हमें यही संदेश देती है.
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
हैं फूल रोकते, कांटे मुझे चलाते
मरुस्थल, पहाड़ चलने की चाह बढ़ाते
सच कहता हूं जब मुश्क़िलें ना होती हैं
मेरे पग तब चलने में भी शर्माते
मेरे संग चलने लगें हवाएं जिससे
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं
मैं मरघट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं
हूं आंख-मिचौनी खेल चला क़िस्मत से
सौ बार मृत्यु के गले चूम आया हूं
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझ पर न कोई एहसान करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
श्रम के जल से राह सदा सिंचती है
गति की मशाल आंधी मैं ही हंसती है
शोलों से ही शृंगार पथिक का होता है
मंज़िल की मांग लहू से ही सजती है
पग में गति आती है, छाले छिलने से
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
फूलों से जग आसान नहीं होता है
रुकने से पग गतिवान नहीं होता है
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगति भी
है नाश जहां निर्माण वहीं होता है
मैं बसा सकूं नव-स्वर्ग ‘धरा’ पर जिससे
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
मैं पंथी तूफ़ानों में राह बनाता
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता
वह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर
मैं ठोकर उसे लगा कर बढ़ता जाता
मैं ठुकरा सकूं तुम्हें भी हंसकर जिससे
तुम मेरा मन-मानस पाषाण करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
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