पेशे से निश्चेतना चिकित्सक (anesthesiologist) मोहन कुमार नागर छिंदवाड़ा के रहने वाले युवा कवि और तल्ख़ आलोचक थे. उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं: चतुर्मास, छूटे गांव की चिरैया और अब पत्थर लिख रहा हूं इन दिनों. उन्हें सोशल मीडिया पर बेबाक लेखन के लिए जाना जाता था. पिछले वर्ष कोरोना महामारी ने उन्हें हमसे असमय ही छीन लिया. यहां जानेमाने कवि, लेखक व साहित्यिक ग्रुप साहित्य की बात के संस्थापक बृज श्रीवास्तव अपनी स्मृतियों के सागर से नामचीन कवि डॉक्टर मोहन कुमार नागर की यादों के मोती चुन लाए हैं.
ज़बां पे बार-ए-ख़ुदाया ये किसका नाम आया
कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मेरी ज़बां के लिए
-मिर्जा ग़ालिब
मोहन कुमार नागर मुझे ज़्यादा पसंद आने वाला शख़्स नहीं था. गोया वह प्रथमदृष्टया मृदुभाषी नहीं था. जबकि उसने मेरे लिए इतने सरंजाम तो किए थे कि मुझे उसे अपने दिल में बैठा लेना चाहिए. वह अपनी ही शैली में आलोचना और प्यार दोनों करता था. उसे अपने ऊपर ग़जब का भरोसा था. वह साहित्य के दो तिहाई दृश्य को अक्सर खारिज़ करता रहता था.
वैसे तो मोहन कुमार नागर का चेहरा वर्ष 1991-92 से मेरा देखाभाला था. दरअसल, जब मैं आकाशवाणी भोपाल में युववाणी में कंपियर था तो वहां ये भी आया था. था छोटे कद का, लेकिन अपनी अकड़ भरी महफ़िल कैंटीन में जमाए रहता. इसकी बहन ऊषा नागर और ये दोनों ज़्यादा किसी को प्रिय नहीं थे. ऊपर से ये दोनों केन्द्र निदेशक महोदय के भानेज थे तो इनका दबदबा बना रहता था. केंद्र निदेशक मामा यानी हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि आलोचक लीलाधर मंडलोई. जी हां तब मंडलोई जी ही वहां स्टेशन डायरेक्टर थे. तब से मैं भी कहीं खो गया और वहां के संगी साथी भी खो गए. बस उदघोषक संजय श्रीवास्तव बीच में मिलते रहे. विनय उपाध्याय चूंकि संस्कृति से जुड़े हैं तो मिलते रहे. पर मोहन मिला 2013 में. साहित्य की एक कार्यशाला में वह लाठी भांज रहा था और अनेक दिग्गज उसके लेख में उठ गिर रहे थे. ठहाके लग रहे थे. मैं पहचान रहा था कि क्या यह वही मोहन है. बिल्कुल यह वही मोहन था. सांवला-सलोना और अलग दिखाई देने वाला. कार्यक्रम के उपरांत मैं बाहर मिला. उसने सिगरेट के छल्ले उड़ाते हुए कहा मैं आकाशवाणी वाले ब्रज को नहीं जानता पर कवि ब्रज श्रीवास्तव को जानता हूं, जिसकी किताब तमाम गुमी हुई चीज़ें बहुत चर्चित है.
अगले दिन एक मित्र का फ़ोन आया (तब तक वह मित्र था) कि मोहन ने भोपाल के एक बड़े प्रगतिशील शायर की क्लास लगा दी.मैंने पूछा, ’’क्यों भला?’’
जवाब मिला, ‘‘मोहन उनके घर गया था तो वे श्रीमान जी उसी दिन रद्दी के भाव कुछ ताज़ा संग्रह बेच रहे थे. मज़े की बात है कि उसमें तुम्हारा संग्रह भी है और मेरा संग्रह भी है.’’
यह सुनकर जैसे मेरा बीपी लो हो गया. अपन ने तो सोचा भी नहीं था कि ऐसी भी गत हो सकती है. हमें तो यही था ग़ुरूर कि ग़मे यार है हमसे दूर. बड़े अरमान से हमने उनको अपना ये जान से प्यारा हार्ड कवर वाला दूसरा संग्रह तब दिया था, जबकि हमें केवल पांच ही प्रतियां ही नसीब हुईं थीं. मित्र की बात सुनकर अपन रात को ग्यारह बजे ही दुर्वासा बन गए. उन ‘सज्जन’ का नंबर डायल करके हमने अपना बीपी बढ़ा लिया. उन महोदय के पास कोई जवाब नहीं था. ये मोहन की मेरे जीवन में पहली ऐसी खु़राफात थी, जिसमें मेरा भी प्रतिरोध का ज्वार ठिकाने लग गया था.
मोहन से फिर फ़ोनाचार होने लगा था. उसकी बातों में किसी न किसी का ढोंग या आडंबर की पोल खुलती ही रहती. किसकी प्रसिद्ध कविता किसकी नक़ल है, जनाब से पूछा जा सकता था. किसकी कविता बोरियत से भरी है ये बातें मोहन बता सकता था. उसने मुझे प्रतिलिपि से जोड़ा, दूरदर्शन पर एक बार साथ में कविता पाठ के लिए ले गया. वह जब कवियों के आडंबर गिनाता तो कभी कभी मुझे लगता कि ये अनावश्यक है. साहित्यिक हलकों में ये सब चलता रहता है. आदर्श स्थिति कहीं नहीं रहती. बिला वजह यह शख़्स बुराई मोल लेता रहता है, मगर ये उसका स्वभाव था.
कुछ समय बाद मालूम हुआ कि वह अपनी चिकित्सकीय प्रैक्टिस के लिए गंजबासौदा आ गया था. एक मित्र ने कहा, ‘‘अगर कहो तो पुष्प स्मरण में मोहन नागर को भी ले आऊं?’’
जब वह आया और उसने अपना पाठ किया तो विदिशा के रसिकों को उसकी कविताएं इतनी पसंद आईं कि अभी तक याद हैं. जी हां, मोहन नागर नहीं रहा मगर उसकी कविताओं की स्मृतियां विदिशा में और पूरे देश में गूंज रहीं हैं. एक कवि को अगर यह सिफ़त मिल जाए तो उसका कवि होना सार्थक हो जाता है. मोहन के बारे में तो तय है कि उसका कवि होना सार्थक हो गया है. उसकी एक ज़रूरी कविता से आपको रूबरू करवा रहा हूं:
मेरे फेफड़ों में
छिंदवाड़ा का कोयला हैउंगलियों में
भोपाल का चूना
बड़े बुज़ुर्गो की दी कलम
जो अब तक अनबिकीऔर भेजे में
दुष्यंत
निराला
विष्णु खरे!आग उगलती भाषा के लिए
मेरे पास
तमाम संसाधन मौजूद हैं
और इन दिनों
मैं फिर लिखने लगा हूं !दिल्ली को अब मुझसे
सावधान हो जाना चाहिए.-मोहन कुमार नागर
वॉट्सऐप उन दिनों आया ही आया था. कुछ महत्वाकांक्षी साहित्यिक ग्रुप बनने लगे थे. बैठे-ठाले हमने भी एक समूह बनाकर दैनिक कार्यक्रम शुरू कर दिए थे. बिजूका, दस्तक, काव्यार्थ नामक ग्रुपों ने डंका बजा रखा था. हमने अपने समूह का नाम रखा साहित्य की बात. यह भी चर्चा में आ गया था. मोहन नागर को भी मैंने जोड़ लिया.
अब क्या था मोहन अपनी स्पष्ट और बेरहम टिप्पणियों से छाने लगा था. कमज़ोर और जबरन बनाई गई कविताओं पर ऐसा लिखता कि अनेक कवि निराश होने लगे. ग्रुप छोड़ कर चले गए. मुलायम टाइप के दोस्तों ने कहा-यार किस उजड्ड को ले आए? मैं धर्म संकट में. ये भी सही और वे भी सही. तेरे बिना भी नहीं जी सकते और तेरे साथ भी नहीं जी सकते. मैं भगवान को नहीं मानता पर भगवान की कृपा हुई कि उसने ख़ुद ही ग्रुप छोड़ दिया. थैंक गॉड! लेकिन वह साहित्य की बात यानी साकीबा का आशिक था. सांची सम्मेलन वर्ष 2016 में हुआ. वह आया. मैंने फिर उसे ग्रुप में जोड़ लिया, आख़िर वह मददगार था. उसने ख़ूब मदद की. अगले सम्मेलनों में भी उसने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.
‘‘भाई जी… भोपाल में मेरा मकान है नीलबड़ में. पूरा ख़ाली है. यदि आगंतुक रुकना चाहें तो ये सहयोग मेरी तरफ़ से. भाई जी चिंता नहीं करना. धन की भी चिंता मत करना,‘‘ उसने कहा था. वर्ष 2017 में भी वह भोपाल से आया और बहुत ही अच्छा वक्तव्य दिया.
वर्ष 2019 के सम्मेलन को हमने सोचा क्यों न अब पचमढ़ी में जुटा जाए? मोहन के लिए तो यह यूं था- जैसे अंधा क्या चाहे… दो आंखें. बीच में जब हम तेज़ बरसात की वजह से ढीले पड़े तो उसने एक न सुनी. दोस्तों से यहां तक कह दिया ब्रज भाई जी नहीं आ रहे हों तो न आने दो. साकीबा अकेले उनका तो है नहीं. हम सभी ने सींचा संवारा हैं. उसका साथ देने के लिए सईद अय्यूब थे, बुद्धि लाल पाल, मुस्तफ़ा ख़ान, प्रवेश सोनी, भावेश दिलशाद, रोहित रूसिया आदि थे. झक मारकर अपनी इज़्ज़्त बचाना हमने उचित समझा. लेकिन मोहन का उत्साह इतना कि क्या बताऊं? जो जो लोग उस कार्यक्रम में थे वे जानते हैं कि निष्ठा (मोहन की पत्नी) का निष्ठा पूर्वक आतिथ्य किसे कहते हैं!
तब हमने पिपरिया शहर में मोहन की लोकप्रियता भी देखी थी. एक अच्छे इंसान और अच्छे डॉक्टर के रूप में वहां के रहवासियों की आंखों और दिल में उसके प्रति जो सम्मान था, उसे धनपशु डाक्टर क्या जानें? हां, उसने नगरपालिका में उसी शाम हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में एक शानदार कवि सम्मेलन करवाया. जब उसके बोलने की बारी आई तो उसने कह दिया,‘‘मेरे हिस्से के समय में विदिशा से आए मेरे बड़े भाई और बहुत अच्छे कवि ब्रज श्रीवास्तव अपनी बात कहेंगे.’’ सोचिए ये कितना बड़ा त्याग था.
हमने उसका वहीं साकीबा की तरफ़ से सम्मान किया था. दिन में वह हमें इतनी सुहानी बरसात में पचमढ़ी ले गए थे. मधु सक्सेना, हरगोविंद मैथिल, राजेन्द्र श्रीवास्तव, मुस्तफ़ा, ज्योति गजभिए, आनंद सौरभ, पंकज सोनी, रोहित रूसिया, मुक्ता, प्रवेश सोनी ,बुद्धि लाल पाल, सुधीर देशपांडे, सईद अय्यूब भावेश दिलशाद आदि ने ख़ूब आनंद लिया. यह एक यादगार कार्यक्रम हुआ. हम लोग भरे भरे लौटे थे. तब मधु सक्सेना ने दो साकीबा सम्मान शुरू किए थे.
मोहन ने साकीबा ग्रुप में रहते हुए कविता पर बहुत महत्वपूर्ण तहरीरें लिखीं. ग्रुप के झगड़े भी वह सम्यक तरीक़े से निपटा देता. एक बार एक मित्र ही मेरे शत्रु बन गए, तब मोहन ने उनकी नाक पकड़कर नीचे की और मुझे बचा लिया.
एक बार हम लोग प्रशंसा बिटिया को जब परीक्षा दिलाने के लिए नीलबड़ स्थित एक परीक्षा केंद्र पर गए थे तो उसके घर भी चले गए थे. उसने और निष्ठा ने गर्मजोशी से स्वागत किया. स्वादु उपमा बनाया. मैंने देखा वह और निष्ठा एक ही प्लेट में साथ में नाश्ता कर रहे थे. उसने बताया जब से विवाह हुआ है तो वे दोनों साथ में ही इसी तरह भोजन करते हैं. निजी संबंधों में भी वह इस तरह से निबाह में उत्सुक था. यह बात ध्यान खींच रही थी. अपने अंचल के एक प्रसिद्ध हिन्दी शायर की जब मैंने तारीफ़ की तो वह बोला, ’’धत…थर्ड क्लास कवि.अगर आप उसकी तारीफ़ करोगे तो हम विरोध करेंगे.’’ मैं चुप रह गया. भला उससे कौन बीदता वो भी पराजित होने के लिए?
आख़िर कहां से आया था उसके पास सुगठित और संश्लेषित काव्य कला का यह हुनर? शायद छिंदवाड़ा के साहित्यिक वातावरण से आया होगा, जहां विष्णु खरे,लीलाधर मंडलोई, सुधीर सक्सेना, मोहन कुमार डहेरिया, हनुमंत मनगटे, दिनेश भट्ट ने अच्छे साहित्य का अलाव सुलगाए रखा. उसकी ज़ुबान पर अक्सर जिन कवियों के नाम होते वे थे ओम भारती, कुमार सुरेश, रोहित रूसिया और मोहन सगोरिया. कह सकता हूं मुमक़िन है नाचीज़ भी उसकी जुबान की नुत्क़ पर कभी कभी ठहर जाता हो.
मुझे मोहन कुमार नागर को अपने दिल में इसलिए भी बैठालना चाहिए कि वह मेरी कविताओं का ईमानदार शैदाई था .एक बार उसने मुझे मेरी ही गुमी हुई कविता का फ़ोटो भेज दिया.यह पूर्वग्रह में प्रकाशित कविता थी. तो ये था उसका दूसरों की कविताओं से संबद्ध होने का जज़्बा.आज मोहन कुमार नागर जैसे कितने कवि होंगे, जो इस हद तक परकविता से लगाव रखते हैं? अधिकांश वरिष्ठ कवि भी बस निज कवित्त को नीका बताने में ही तूप रहे होते हैं.
कोरोना काल में मोहन का निधन मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आया. इतनी कम उम्र में भला कोई कवलित होता है? ग़लत बात. बहुत ग़लत. लेकिन वह चयन करने वाला था ही नहीं. मृत्यु ने उसे चयन किया. वह कोरोना से संबंधित बहुत ख़तरनाक ख़बरें फ़ेसबुक पर डालता रहता तो भी मैंने एक बार उसे फ़ोन पर डांटा था, ‘‘तुम क्यों इतना घातक लिखते हो?’’ वह बोला,‘‘भाई जी… जो सच है तो है.’’
उसके जीवन को किलोमीटरों में नहीं नापा जाना चाहिए.उसके जीवन को बारिश के पानियों की तरह तौलना चाहिए. वह जॉन कीटस, विवेकानंद या रामानुजन की तरह लंबाई में नहीं जी सका, मगर प्रकाश वर्ष की तरह उसने कविताओं और मनुष्यताओं को जिया. वह मृत हुआ ये सच मुझे अभी भी मंज़ूर नहीं. मैं तो अभी तक इस सच को सच मानता हूं कि मोहन जैसे कवि ऐसे पत्ते होते हैं, जो आख़िर तक नहीं झरते. उसकी कविता का हरा पत्ता अभी भी दुनिया के वृक्ष पर टंगा है. संप्रेषण से भरी सुगठित कविता का पत्ता. बिल्कुल चिकना हरा और अपनी नसों में हरे रक्त को भरे हुए संदेशों से भरा पत्ता. हम ऐसे पत्ते का चित्र अपनी स्मृति की दीवार पर सजा कर रखेंगे. आने-जाने वाले उसे पहचान जाएंगे और कह उठेंगे- मष्तिष्क में नए ख़यालों का सागर, मोहन कुमार नागर.