मोअन-जो-दड़ो के उत्खनन में मिली सिंधु घाटी की उन्नत सभ्यता के बारे में हम सबने पांचवीं, छठवीं कक्षा के इतिहास में पढ़ा है. रांगेय राघव का उपन्यास मुर्दों का टीला इस इतिहास को किताब के पन्नों पर जीवंत करता हुआ उपन्यास है. साथ ही, यह बताता चलता है कि किस तरह कोई सभ्यता पनपती है, आगे बढ़ती है, शिखर पर पहुंचती है और फिर किस तरह कुछ लोगों पर सत्ता का लोभ हावी होता है, जिससे पाठक इसे वर्तमान परिदृश्य से सहज ही जोड़ लेता है. सिंधु घाटी सभ्यता के शीर्ष से उसके समाप्त होने की कथा कहती यह पुस्तक किसी भी काल में और सभी के लिए पठनीय है.
पुस्तक: मुर्दों का टीला
विधा: उपन्यास
लेखक: रांगेय राघव
प्रकाशक: राधाकृष्ण पेपरबैक्स
मूल्य: रु. 295/-
उपलब्ध: ऐमाज़ॉन
मोअन-जो-दड़ो सिंधी शब्द है, जिसका अर्थ है मृतकों का स्थान यानी ‘मुर्दों का टीला’. रांगेय राघव ने अपने उपन्यास में सिंधु घाटी की सभ्यता को इतिहास की किताब से निकालकर हमारे सामने जीवंत कर दिया है. इस उपन्यास को पढ़ते हुए जहां हमें यह समझ में आता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता कैसी थी, रीति-रिवाज़ कैसे थे, शासन व्यवस्था किस स्वरूप में थी, विदेशों और आसपास के अन्य क्षेत्रों के साथ इस सभ्यता के लोगों का मेलजोल कैसा था, वहीं इस सभ्यता के भीतर एक कसी हुई रुचिकर कहानी भी हमें इससे बांधे रखती है.
इस पुस्तक में लेखक के आमुख में उन्होंने स्पष्ट किया है कि वे स्वयं इतिहास को किस नज़रिए से देखते हैं और उनकी कोशिश है कि इस ऐतिहासिक उपन्यास से पाठक को उस काल की झलक मिले. यहां लिखी एक और बात जो अपनी ओर ध्यान खींचती है, वह है – विजेता सदा ही अपनी शक्ति के कारण विजितों के मुंह से भी अपने-आपको सभ्य कहलवा लेते हैं. इस बात को पाठक तुरंत ही वर्तमान के संदर्भ में परखे तो भी सही पाता है.
इस उपन्यास में ईसा से साढ़े तीन हज़ार वर्ष पूर्व के काल की झलक मिलती है. महाश्रेष्ठी मणिबंध और उसके जहाज़ पर मोअन-जो-दड़ो लौट रहे मिस्र के गुलामों व व्यापारियों से शुरू होता हुआ यह उपन्यास आर्यों के आगमन व द्रविड़ों पर उसके असर को भी दिखाता है. जहां इसमें उस दौर में गुलामों के साथ होने वाले सलूक की झलक मिलती है, वहीं इस महानगर की विशालता, इमारतों की योजना व उनके उपयोग की जानकारी भी मिलती है.
उपन्यास बताता चलता है कि इतने प्राचीन इतिहास वाला यह महानगर एक गणराज्य था. जहां विलासिता से परिपूर्ण माहौल अवश्य था, लेकिन आम जनता किस तरह काम में जुटी रहती थी, किस तरह के बाज़ार थे और सामूहिक स्नानागार किस तरह लोगों के मनोरंजन का स्थान भी थे. उस समय किन भगवानों को माना जाता था – सर्प, महामाई, महादेव, अश्वत्थ, सूर्य और किस तरह लोगों को इन पर भरोसा था. उस समय जारी प्राकृतिक बदलावों की झलक भी बार-बार उपन्यास में नज़र आती है कि किस तरह इस क्षेत्र में तूफ़ान, वर्षा और भूकंप आया करते थे.
यह उपन्यास मनुष्य की शक्ति और सामर्थ्य पाने की चाहत को भी भलि-भांति दर्शाता है. सत्ता की चाहत में किस तरह का उन्माद फैलाकर आम जन को परेशान किया जाता है और मनुष्य का बुनियादी स्वभाव अब तक नहीं बदला है, इस बात को भी यह सहज ही इंगित कर जाता है. उस काल में गुलामों की स्थिति, व्यापारियों के तौर-तरीक़े, स्त्रियों की दशा जैसी सभी चीज़ें आपको उपन्यास पढ़ते हुए समझ में आती हैं. एक पिता-पुत्र के कुछ क्षणों के मिलन और विछोह के साथ-साथ पूरी सिंधु घाटी सभ्यता के पतन की दास्तां को उजागर करता यह उपन्यास भले ही किसी भी काल में पढ़ा जाए, पाठक इससे संबद्ध महसूस करेंगे.