कबीर हों, रैदास या नानक… सभी ने अपने अंदर झांकने, ख़ुद को पहचानने और अपने अंदर बैठे ख़ुदा को खोजने के लिए कहा है. इस्लाम की एक शाखा सूफ़ीवाद में भी अपने अंदर की यात्रा करने को प्रेरित किया जाता रहा है. तमाम सूफ़ी संत हुए हैं, जिन्होंने अपने लेखन या शिक्षाओं में इसी अंदरूनी यात्रा पर चलने यानी ख़ुद को पहचानने की बात की है. सत्रहवीं सदी के पंजाबी सूफ़ी संत कवि बाबा बुल्ले शाह की तमाम कविताएं इसी मिज़ाज की थीं. ख़ुद को संगीत और सिनेमा का स्टूडेंट मानने वाले हमारे अपने जय राय आज बात करने जा रहे हैं बाबा बुल्ले शाह की मशहूर रचना, ‘बुल्ला की जाणा मैं कौण की’. साथ ही चर्चा करेंगे इस कविता को रॉक म्यूज़िक के साथ युवाओं तक पहुंचानेवाले गायक रब्बी शेरगिल की.
भारतीय मनोरंजन जगत में नब्बे के दशक को फ़िल्मों के लिहाज़ से सबसे लचर माना जाता रहा है. उस दौर में नो-ब्रेनर फ़ॉर्मूला फ़िल्में बनती रहीं. यह सिलसिला 2000 के शुरुआती कुछ सालों तक बरक़रार रहा. पर ऐसा नहीं है कि उस दौर में सबकुछ बुरा ही बुरा था. कैसेट्स के उस दौर में कई इंडिपेंडेंट गायकों और म्यूज़िक बैंड्स ने एक से बढ़कर एक गाने दिए. जो आज भी याद किए जाते हैं. हमारे आज के गाने के तार भी उसी समय से जुड़े हैं. आज हम बात करने जा रहे हैं हार्डकोर पंजाबी गायक रब्बी शेरगिल की, जिन्होंने उतना नहीं गाया, जितना उन्हें गाना चाहिए था. पर दुनिया के संगीत प्रेमी उनके गाए हुए गानों को खोजकर सुनते हैं, ख़ासकर वर्ष 2005 के उनके गाने ‘बुल्ला की जाणा मैं कौण’ को.
उस गाने की बात करने से पहले मैं उससे जुड़ी एक घटना का ज़िक्र करना चाहूंगा. बात वर्ष 2006 की है. यही कोई दोपहर का वक़्त था, मैं कॉलेज से अपने घर आ रहा था. लोकल ट्रेन के गेट पर दो नौजवान खड़े थे और म्यूज़िक के बारे में अपने ज्ञान को एक-दूसरे के साथ बांट रहे थे. एक ने कहा आजकल सिंगर बनना कितना आसान हो गया है. अगर आपके पास पैसे हों तो आप गिटार लेकर मार्केट में खड़े हो जाइए और कुछ भी गा दीजिए. जैसे ‘बुल्ला की जाना मैं कौन’ और बन गए आप सिंगर. उस वक़्त मुझे उनकी यह बात बहुत बुरी लगी थी. मैं उन्हें समझाना चाहता था, पर पता नहीं क्यों मैंने उनसे कुछ नहीं कहा. आज यह लिखते समय भी मेरे मन में इस बात का मलाल है कि काश मैं उन्हें समझा पाता कि ‘बुल्ला की जाणा मैं कौण’ चीज़ क्या है और जिसने लिखा है, जिसने गाया है वो लोग कौन हैं. ख़ैर, उस दिन तो मैं चुप रहा, पर आज नहीं रुकूंगा.
‘बुल्ला की जाणा मैं कौण’ को सूफ़ी संत बाबा बुल्ले शाह (1680-1759) ने लिखा था. पंजाबी भाषा की सौंधी महक से सराबोर इस कविता को रब्बी शेरगिल द्वारा रॉक सॉन्ग में परिवर्तित करने के पहले दो बार अलग-अलग लोगों ने गाया था. सबसे पहले 1990 के दशक में पाकिस्तान के मशहूर रॉक बैंड ‘जुनून’ द्वारा गाया गया और उसके बाद भारत के मशहूर वदाली ब्रदर्स ने इसे गाया था. लेकिन इस गीत को प्रसिद्धि वर्ष 2004 के बाद मिली, जब इसे रब्बी शेरगिल ने गाया. रब्बी शेरगिल की बात करें तो वे अपने मीनिंगफ़ुल गानों के लिए नीश ऑडियंस (आला दर्जे के म्यूज़िक लवर्स) के बीच ख़ासे पॉप्युलर हैं. गानों को लेकर सिलेक्टिव होने की अपनी आदत के बारे में वे बीबीसी को दिए अपने एक इंटरव्यू कहते हैं,‘‘मैं बहुत ज़्यादा गाने में विश्वास नहीं करता. ढंग के गाने जो मुझे पसंद आ जाएं सिर्फ़ उन्हें ही गाना पसंद करता हूं. मैं रॉक म्यूज़िक की स्टाइल को फ़ॉलो करता हूं. बुल्ला की जाणा मैं कौण को मैंने रॉक फ़्यूज़न की शैली में ही गाया है. मेरा मानना है कि पंजाब पूरे भारत में म्यूज़िक के लिए मशहूर है. पंजाब से ही सबसे ज़्यादा म्यूज़िक अल्बम निकलते हैं, लेकिन अभी भी उनका स्तर लगभग सतही ही है. कुछ गायकों को छोड़ दें तो सब एक-दूसरे को पीछे छोड़ने में लगे हैं. हमने हमेशा से कुछ अलग करने की कोशिश की ताकि भविष्य में पंजाबी म्यूज़िक में एक नया दौर शुरू हो सके.’’
जब रब्बी शेरगिल से पूछा गया कि जब आप गाने नहीं गाते या फिर जब आप म्यूज़िक में कुछ नहीं कर रहे होते तब क्या करते हैं? रब्बी ने बहुत सहजता से जवाब दिया,‘‘तब मैं एक आम आदमी की तरह दुनिया घूमता हूं, लोगों के सुख दुःख में शामिल होता हूं और जो मैं महसूस करता हूं बाद में उसे अपने गानों के माध्यम से बताने की कोशिश करता हूं.’’ जब हम रब्बी द्वारा गाए वर्ष 2007 की फ़िल्म दिल्ली हाइट्स के गाने ‘तेरे बिन सानु सोनियो’ को सुनते हैं, तो उनके इस जवाब में छुपी सच्चाई का एहसास होता है. ख़ैर, इस गाने की बात फिर कभी करेंगे. आज बात, बाबा बुल्ले शाह की कविता की, जिसमें पूरे जीवन का सार है.
बुल्ला की जाणा मैं कौण
ना मैं मोमिन विच मसीतां
ना मैं विच कुफर दियां रीतां
ना मैं पाकां विच पलीतां
ना मैं अन्दर वेद किताबां
ना मैं रेंदा भांग शराबां
ना मैं रेंदा मस्त खराबां
ना मैं शादी ना धमनाकी
ना मैं विच पलीती पाकी
ना मैं आबी ना मैं खाकी
ना मैं आतिश ना मैं पौण
बुल्ला की जाणा मैं कौण
बुल्ला की जाणा मैं कौण
बुल्ला की जाणा मैं कौण
बुल्ला की जाणा मैं कौण
ना मैं अरब्बी ना लोहोरी
ना मैं हिंदी शेहर नागौरी
ना हिन्दू ना तुर्क पेश्वरी
ना मैं भेद मजहब दा पाया
ना मैं आदम हव्वा जाया
ना कोई अपना नाम धराया
अव्वल आख़िर आप नु जाना
ना कोई दूजा होर पहचाना
मिठो होर ना कोई सियाना
बुल्ला शाह खड्डा है कौण
बुल्ला की जाणा मैं कौण
ना मैं मूसा ना फराऊं
ना विच जागा ना विच सोऊ
ना मैं रेंदा विच नादौन
ना विच विट्ठन ना विच नादौन
बुल्ला शाह खड्डा है कौण
बुल्ला की जाणा मैं कौण
अगर आपको सूफ़ी संगीत पसंद है और पंजाबी भाषा समझने में कोई कठिनाई नहीं होती तो आप इस गीत का पूरी तरह से आनंद ले सकते हैं. इसके अलावा आपको गूगल पर इसका अनुवाद मिल जाएगा. रब्बी शेरगिल की आवाज़ का जादू और उनकी शैली इस गाने को ख़ास बनाती है. बाबा बुल्ले शाह ने इस कविता के माध्यम से पूरी दुनिया में इंसान द्वारा ख़ुद को धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, नस्ल आदि के खांचों में बांट लेने पर सवाल उठाते हैं. वे सवाल उठाने के लिए अपने अंदर की यात्रा का वर्णन करते हैं. मैं कौन हूं? मेरी पहचान क्या है? जैसे-जैसे गीत आगे बढ़ता है धर्म, नाम, मस्जिद, जात, देश, प्रांत, शुद्ध-अशुद्ध का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि इसमें से मेरी पहचान किसी में भी नहीं है. मैं इनमें से कुछ नहीं हूं. मैं सिर्फ़ ख़ुदा का बन्दा हूं. ख़ुदा ने सिर्फ़ इंसान बनाया, हमने अपनी सहूलियत के हिसाब से तमाम चीज़ें बनाईं. अगर आपको जानना है कि आप कौन हैं? तो यह सवाल आपको बार-बार ख़ुद से ही पूछना पड़ेगा कि आप कौन हैं? सवाल भी लाज़मी है कि जब एक दिन सबको इस दुनिया से जाना ही है तो फिर इतने भेदभाव और दुनिया में अशांति किसलिए? यह गीत शांति का पैग़ाम है. अगर आप यूट्यूब पर इस गीत का वीडियो देखेंगे तो गीत के साथ-साथ आपको उसके बैक्ग्राउंड में पूरा हिंदुस्तान दिखेगा. आज हम मजहब और जाति के नाम पर ख़ुद को बांटने पर आमादा हैं. अगर आपने इस खांचे में ख़ुद को बांट लिया हो तो मेरी एक सलाह है, आप बस पांच मिनट 10 सेकेंड निकालिए और यूट्यूब पर इस गाने को सुन डालिए औरअपने दिल से एक बार कहिए ‘बुल्ला की जाणा मैं कौण’.
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