आज जब हर चीज़ की ब्रैंडिंग की जा रही है, तो क्यों ज़रूरी हो गई है धर्म, जाति और समुदाय की ब्रैंडिंग? बता रहे हैं जानेमाने चिकित्सक, लेखक और विचारक डॉ अबरार मुल्तानी.
तक़रीबन 18 साल पहले की बात थी, मेरे एक दोस्त ने अपनी समस्या हमारे सामने प्रकट की. उसका कहना था कि यार लोग हम ठाकुरों को सम्मान नहीं देते, हमारे ख़िलाफ़ ग़लत धारणा के चलते मन में ग़लत भावना रखते हैं और हम पर कम भरोसा करते हैं. उसने उसकी समस्या की वजह फ़िल्मों को बताया. जिसे सुनकर हमारा पूरा ग्रुप हंसने लगा. लेकिन उसने बाद में उसका पूरा विवरण पेश किया कि फ़िल्मों में मौजूद अधिकांश विलेन ठाकुर होते हैं जो कि हीरो की बहन पर गंदी निगाह रखते हैं और हीरो की बहन जब भी किसी फिल्म में होती है तो बलात्कार अवश्य उस ठाकुर विलन से करवाया जाता है. फिर उसका बदला हीरो लेता है. कई अन्य फ़िल्मों में ठाकुर विलेन गांव वालों पर अत्याचार करता है, उनकी ज़मीन हड़प लेता है, उनकी सम्पत्तियों को लूट लेता है, पुलिस की मदद से उन्हें किसी इल्ज़ाम में फंसा देता है आदि. फ़िल्मों का यह ठाकुर ठाकुरों की मिसब्रैंडिंग कर रहा था अर्थात् वह पूरे ठाकुर समुदाय को ही बदनाम कर रहा था. उसकी यह दलील हमारे दिमाग़ों को झकझोर गई. 2001 में 9 सितम्बर को हुए वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के हमले के बाद से मुस्लिमों को भी मीडिया के कई कवरेज और उसके बाद की आतंकी गतिविधियों की ख़बरों ने मुस्लिमों की मिस ब्रैंडिंग की और उन्हें आतंकी होने के शक से देखा जाने लगा है. अब फ़िल्मों में ठाकुर विलेन का स्थान मुस्लिमों को दे दिया गया है और हमारे मित्र की पीड़ा अब मैं भी महसूस कर सकता हूं. मैं महसूस कर सकता हूं कि मीडिया और फ़िल्मों के विलेन हमारी छवि को कैसे प्रभावित कर सकते है. हमारा धर्म, रंग, रूप, कपड़े एवं बालों को काटने का स्टाइल हमारी छवियों को दूसरों की निगाह में हमारी पहली मुलाक़ात से पहले ही असर डाल देते हैं. अब फ़र्स्ट इम्प्रेशन वाला आइडिया कारगार नहीं रहा क्योंकि अब इम्प्रेशन किसी और के द्वारा पहले हमें ही बनाया जा रहा है. हमारे लिए दूसरों के दिलों में धारणाएं पहले से बन जाती है और वे धारणाएं हमारे कार्यों के पहले ही हमारा इम्प्रेशन उनके दिलों में बना देती है.
मेरा एक दलित जूनियर निराश था क्योंकि उसे उसकी प्रैक्टिस शुरू करने में एक दिक्कत का आभास हो रहा था. अतिविलक्षण बुद्धि का स्वामी होने के बाद भी जूनियर कह रहा था कि,‘‘सर मेरे सरनेम के कारण मेरी प्रैक्टिस प्रभावित होगी, क्योंकि हम दलितों को आरक्षण का लाभ उठाकर सिलेक्ट हुआ डॉक्टर माना जाता है और लोग हमसे इलाज करवाने में विश्वास नहीं रखते हैं.’’
हां, हमारे कार्यों एवं प्रतिभाओं को जाने बगैर ही हमें अज्ञानी करार दिया जा सकता है. मेरे जीनियस जूनियर को अपनी क़ाबिलियत साबित करना थी लेकिन सबसे पहले धारणाएं तोड़कर. और अगर मीडिया में दो तीन न्यूज़ आ जाए कि फला आरक्षण के लाभ से बने डॉक्टर को कुछ नहीं आता तो उसकी सारी मेहनत बर्बाद हो जाएगी.
बनियों से दोस्ती करने में लोग हमेशा शंकाग्रस्त रहते हैं कि कहीं वह हमसे दोस्ती इसलिए तो नहीं कर रहा कि उसे कोई लाभ प्राप्त करना है. बनिए या व्यापारी व्यक्ति को बार-बार यह साबित करना पड़ेगा कि उसकी मित्रता में कोई खोट नहीं है, क्योंकि उनकी ब्रैंडिंग ही ऐसी हुई है जो दिलों में हमेशा शंका को जन्म देती है. याद कीजिए मदर इंडिया का साहुकार कैसे अपने उल्टे-सीधे बही-खातों से बिरजू के परिवार को परेशान करता है.
जब भी किसी धर्म, जाति, पंथ या बिरादरी की मिसब्रैंडिंग होती है तो उससे संबंधित अच्छे लोग भी बदनाम हुए बिना नहीं रह पाएंगे…और अगर उस धर्म या जाति की अच्छी ब्रैंडिंग होगी तो उससे उस धर्मादि से सम्बन्धित बुरे लोगों को भी फ़ायदा होगा ही.
पूर्वाधुनिक काल में भी लोगों और संप्रदायों के खिलाफ भ्रांतियां फैलाई जाती थी जैसे-अमेरिका में गोरे यूरोपीय लोग स्वयं को काले अफ्रीकी ग़ुलामों से श्रेष्ठ और पवित्र दिखाने के लिए धर्मशास्त्र से तर्क दिया कि अफ्रीकी नोआ के बेटे उस हैम के वंशज हैं, जिसको उसके पिता ने यह शाप दिया था कि उसकी संतानें सदैव ग़ुलाम ही रहेंगी. वैज्ञानिकों से यह घोषणा करवाई गई कि काले गोरों के मुक़ाबले कम बुद्धिमान और कम नैतिक होते हैं. चिकित्सा विज्ञान से यह कहलवाया गया कि काले ज़्यादा गंदगी फैलाते हैं और कई रोगों के वाहक होते हैं. इन तीन बातों ने कालों को गोरों के सामने निकृष्ट बना दिया और उनके आर्थिक, सामाजिक और न्यायिक पक्षों को कमज़ोर किया. यदि कोई संस्था एक पद पर एक व्यक्ति को नियुक्त करना चाहती थी कुछ दशक पूर्व अमेरिका में तो समान योग्यता होने पर काले उम्मीदवार के अस्वीकार होने की संभावना प्रबल थी, क्यों? क्योंकि उनके विरुद्ध भ्रांतियां लोकमानस में बहुत गहरे तक बैठी थी जिसने उसके विरुद्ध निर्णय करवाया. इन भ्रांतियों के असर ने गोरों को नौकरी के प्रबल अवसर दिए और कालों को कम बुद्धिमानी वाले कार्य करने के लिए मजबूर किया, अवसरों और धन की कमी ने उन्हें बुरे कामों की तरफ धकेला और जब आंकड़ें देखे गए तो भ्रांतियां सच साबित होती हुई दिखीं, क्योंकि लोगों को डॉक्टर, जज, वक़ील, प्रोफ़ेसर और वैज्ञानिक केवल गोरे ही नज़र आते थे. लेकिन कुछ लोगों ने हार नहीं मानी और उनमें से ही एक व्यक्ति उन शुचितों का 2009 में राष्ट्रपति बना. उस काले का नाम था बराक ओबामा.
शुचिता और वंश के आधार पर कई समुदायों ने अपनी ब्रैंडिंग की है उसका भरपूर फ़ायदा उठाया है. लेकिन वहीं कुछ जातियों और नस्लों ने इस पर कोई ध्यान या प्रतिकार नहीं किया जिसका ख़ामियाजा वे आज भी भुगत रही हैं. भारत में ही हम देखें तो कई जातियों के लोग रसोई में नौकरी पाने में असफल हो जाएंगे चाहे उनके पास पाक कला का बेहतरीन ज्ञान हो, कई जातियां अपने जाति के नाम या अपने उपनाम से भोजनालय या ट्रक ड्राइवरों के लिए ढाबा भी नहीं शुरू कर सकते चाहे वे कितनी ही साफ़ सफ़ाई का विज्ञापन और दावा करें.
जैसे मुसलमानों को आतंकवादी घोषित किया जा रहा है, तो अच्छे मुसलमानों को भी शक़ की निगाह से देखा ही जाएगा. यहूदी और ईसाई समुदाय की अच्छी ब्रैंडिंग हुई है और हो रही है इसलिए आप हर ईसाई या यहूदी को बहुत इंटेलिजेंट मानेंगे चाहे असल में वह आदमी औसत या मूर्ख ही हो…. क्योंकि उनकी ब्रैंडिंग ही ऐसी की जा रही है.
इसलिए अपनी बिरादरी की ब्रैंडिंग पर ध्यान देना हर व्यक्ति के लिए ज़रूरी है चाहे आप हिन्दू हों, दलित हों, मुस्लिम हों या फिर ईसाई… वर्ना आपके दोषी न होने पर भी आप दोषी माने जाएंगे.
यह भ्रांतियां किसी क़ानून के सहारे नहीं मिटाई जा सकतीं, ये केवल और केवल वर्षों के सामूहिक प्रयास से ही मिटाई जा सकती हैं. बेहतरीन ब्रैंडिंग के द्वारा. अगर आपके समाज की आपके द्वारा अच्छी ब्रैंडिंग हो सकती है तो आज ही से शुरुआत करें और इसमें लोगों को भी जोड़ें, ताकि आपका समाज और समुदाय अच्छी दृष्टि से देखा जाए. और यदि आपके सम्प्रदाय या समाज या जाति की मिसब्रैंडिंग हो रही है तो उसे लेकर फ़िक्रमंद होइए, क्योंकि इससे आपकी भी मिसब्रैंडिंग अवश्य होगी चाहे आप कितने ही अच्छे या दूध के धूले हुए ही क्यों न हों.
अच्छे और नेक काम करिए, लोगों की सेवा कीजिए, सबसे प्रेम कीजिए, क्रोध को शांत रखिए, दूसरों का भला कीजिए, दान दीजिए और एक नेक इंसान बनिए… यही तो सबसे असरकारक ब्रैंडिंग है और यह कार्य यदि सामुदायिक हो तो फिर कहना ही क्या… पड़ोसी के बच्चे से मुस्कुराकर पूछिए,‘बेटा कैसे हो?’ बस शुरू हो गई आपके समुदाय की अच्छी ब्रैंडिंग.
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