हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म OMG 2 (ओह माय गॉड 2) मसाला मनोरंजन फ़िल्म है, जिसे महंगा टिकट लेकर थिएटर में देखना ज़रूरी नहीं है. आप कुछ दिन रुककर आराम से ओटीटी पर भी देख सकते हैं. फ़िल्म में कोर्ट के दृश्य चुटीले और मज़ेदार बने हैं, हालांकि उनका बौद्धिक विश्लेषण न करें, अन्यथा कई कमियां नज़र आने लगेंगी. भारती पंडित ताकीद करती हैं कि सेक्स के मुद्दों पर बातचीत को लेकर परिवार में कितनी स्वीकार्यता है, इसी के अनुसार तय करें कि फ़िल्म सबके साथ देखनी है या अकेले.
फ़िल्म: OMG 2 (ओह माय गॉड 2)
सितारे: अक्षय कुमार, पंकज त्रिपाठी, यामी गौतम व अन्य
लेखक व निर्देशक: अमित राय
रन टाइम: 155 मिनट
बड़े दिनों बाद थिएटर में इतनी भीड़ दिखाई दी थी. ओह माय गॉड का पार्ट वन बहुत ही रेडिकल तरीक़े से धार्मिक आडंबरों पर प्रहार करता हुआ बनाया गया था और उम्मीद यही थी कि दूसरा भाग भी ऐसा ही कुछ होगा. यही वजह है कि मुझे इस बात की हैरानी भी थी कि आजकल चल रहे माहौल में इस तरह की फ़िल्म प्रदर्शित करने का जोखिम निर्देशक किस तरह से उठा रहे हैं? पर फ़िल्म देखी तो बात समझ में आई और निर्माता-निर्देशक के निहितार्थ भी.
पंकज मिश्रा और अक्षय कुमार हैं तो कहानी में दम तो होगा ही, पर इसे ओह माय गॉड के अगले हिस्से के रूप में न बनाकर अलग फ़िल्म के रूप में भी बनाया जाता तो भी कुछ ख़ास फ़र्क नहीं पड़ने वाला था. यूं भी फ़िल्म यौन शिक्षा यानी सेक्स एजुकेशन की अनिवार्यता जैसे बोल्ड मुद्दे पर बनी है, जिसमें नायक का बेटा स्कूल में लड़कों की साज़िश का शिकार होकर, हस्त मैथुन करता पकड़ा जाता है और लड़के उसका विडियो बनाकर प्रचारित कर देते हैं. बेटे को स्कूल से निकाल दिया जाता है और परिवार पर आए इस संकट से परिवार को बचाने के लिए फ़िल्म का नायक कोशिश में लगा हुआ है. वह (नायक) इस काम को स्व-विवेक से भी कर सकता था (दृश्यम फ़िल्म को याद कीजिए, जिसमें नायक अपने परिवार को बचाने के लिए क्या कुछ नहीं कर जाता). तो इसे ओह माय गॉड के दूसरे हिस्से के रूप में क्यों बनाया गया, समझ में नहीं आया. ख़ैर पिछली बार की तरह इस बार ईश्वर नास्तिक के मन में अपने अस्तित्व का बोध करवाने नहीं, वरन आस्तिक के मन में आशा जगाने और उसकी मदद करने आए हैं. यह बात पहले कई बार दर्शाई जा चुकी है. जय संतोषी माता फ़िल्म से लेकर ऐसी ही कई फ़िल्मों में जहां ईश्वर भक्तों की मदद करने दौड़े चले आते हैं. बस फ़र्क इतना है कि आधुनिक युग में ईश्वर भेस बदलकर फ़रारी में आते हैं.
कहानी है महाकाल के भक्त कांति भाई की (मुख्य पात्र का नाम बदला नहीं गया है), जो उज्जैन में महाकाल मंदिर परिसर में प्रसाद आदि की दुकान चलाते हैं. उनका बेटा स्कूल में साजिश का शिकार होता है, स्कूल से निकाल दिया जाता है और फिर शुरू होता है कांति भाई की मुश्किलों का दौर. रक्षा करो महाकाल, यह कहते ही भोले बाबा जागृत हो उठते हैं और अपने गण (अक्षय कुमार) और नंदी को कांति भाई की सहायता के लिए भेज देते हैं . महाकाल के ये गण कांति भाई से यत्र-तत्र मिलते हैं और उन्हें ज्ञान देते रहते हैं कि परिस्थिति का सामना कैसे करना है. कांति भाई इस मामले से संबंधित क़रीब आधा दर्जन लोगों पर मुकदमा कर देते हैं और उसके माध्यम से स्कूल में यौन शिक्षा दी जानी चाहिए इस तथ्य को अपनी दलीलों से पुष्ट करते जाते हैं.
स्कूल में यौन शिक्षा होनी ही चाहिए इससे बिलकुल सहमति है, अपने शरीर के बारे में पता होना सबसे आवश्यक बात है, मगर दुर्भाग्य है कि हमारे यहां इसी बात को सबसे ज़्यादा रोका जाता है. हमारे देश में विवाह एक आवश्यक प्रथा है, जो शारीरिक संबंध और संतानोपत्ति को वैधता देती है, मगर विवाह के लिए अपने और दूसरे के शरीर और मन दोनों को जानना होता है, यह कहीं सिखाया ही नहीं जाता. और अपने शरीर को न जानने से किशोरों और वयस्कों में सारी गफ़लतें पैदा होती हैं, जिसका लाभ झोला छाप डॉक्टर, सड़क किनारे बैठे झोला छाप हकीम और दवा बेचने वाले उठाते हैं.
आयुष्मान की विकी डोनर और ड्रीम गर्ल में भी इस तरह के मुद्दे की बात की गई थी, इस फ़िल्म में इसे सीधे शिक्षा से जोड़ा गया है और कामसूत्र, पंचतंत्र, खजुराहो, अजंता-एलोरा आदि के उदाहरणों से इसे पुष्ट भी किया गया है.
यदि महाकाल की मदद वाला कोण निकाल दिया जाए तो फ़िल्म ठीक बनी है. शहरों में नई सोच वाले लोगों में तो इस मुद्दे पर स्वीकार्यता दिखाई देगी मगर पुरानी सोच वाले लोगों में, क़स्बों में, गांवों में इसे कैसे लिया जाएगा, इस पर शंका है. अंतिम दृश्य में ठीक ओह माय गॉड के पहले भाग की तर्ज पर कांति भाई को मारकर जीवित किया जाता है और कोर्ट में पहुंचाया जाता है. यहां तर्क भक्ति के आवरण में विलीन हो जाता है.
फ़िल्म में कोर्ट के दृश्य चुटीले और मज़ेदार बने हैं, हालांकि उनका बौद्धिक विश्लेषण न करें, अन्यथा कई कमियां नज़र आने लगेंगी. पंकज त्रिपाठी इस फ़िल्म की जान हैं, उन्होंने शानदार अभिनय किया है. बोलते समय मालवा की बोली का लहजा उन्होंने पूरी तरह से आत्मसात किया है, जो सुनने में बढ़िया लगता है. सिमरन शर्मा ने भी कांति भाई की पत्नी की भूमिका के साथ न्याय किया है. यामी गौतम बड़े दिनों बाद दिखाई दीं और वकील की भूमिका में वह भी अच्छी लगी हैं. अक्षय कुमार शिव बने नज़र आए हैं, हालांकि पहले भाग जैसा प्रभाव नहीं छोड़ पाए, पर उनकी मुस्कान बहुत ही मोहक है.
फ़िल्म की सारी शूटिंग उज्जैन के महाकाल मंदिर परिसर और उज्जैन शहर की है. जाना-पहचाना शहर निकटता महसूस कराता है. बाक़ी फ़िल्म में कुछ और बताने को नहीं है. संवाद परिस्थिति प्रधान हैं, याद नहीं रहते. गीत दो ही हैं, वे भी भोले बाबा की स्तुति के, जो मंदिरों में बजते सुनाई देंगे.
कुल मिलकर यह एक मसाला मनोरंजन फ़िल्म है, जिसे महंगा टिकट लेकर थिएटर में देखना ज़रूरी नहीं है, आराम से ओटीटी पर भी देख सकते हैं. हां, सेक्स के मुद्दों पर बातचीत को लेकर परिवार में कितनी स्वीकार्यता है, इसी के अनुसार तय करें कि फ़िल्म सबके साथ देखनी है या अकेले.
फ़ोटो साभार: गूगल