कहते हैं बुढ़ापा भी एक तरह का बचपना होता है. पिता के चश्मे को माध्यम बनाकर लिखी गई यह कविता उसी बुढ़ापेवाले बचपने को दिखाती है, साथ ही एक पिता और पुत्र के भावनात्मक संबंध को भी.
बुढ़ापे के समय पिता के चश्मे एक-एक कर बेकार होते गए
आंख के कई डॉक्टरों को दिखाया विशेषज्ञों के पास गए
अन्त में सबने कहा-आपकी आंखों का अब कोई इलाज नहीं है
जहां चीज़ों की तस्वीर बनती है आंख में
वहां ख़ून का जाना बन्द हो गया है
कहकर उन्होंने कोई भारी-भरकम नाम बताया
पिता को कभी यक़ीन नहीं आया
नए-पुराने जो भी चश्मे उन्होंने जमा किए थे
सभी को बदल-बदल कर पहनते
आतशी शीशा भी सिर्फ़ कुछ देर अख़बार पढ़ने में मददगार था
एक दिन उन्होंने कहा-मुझे ऐसे कुछ चश्मे लाकर दो
जो फ़ुटपाथों पर बिकते हैं
उन्हें समझाना कठिन था कि वे चश्मे बच्चों के लिए होते हैं
और बड़ों के काम नहीं आते
पिता के आख़िरी समय में जब मैं घर गया
तो उन्होंने कहा-संसार छोड़ते हुए मुझे अब कोई दुःख नहीं है
तुमने हालांकि घर की बहुत कम सुध ली
लेकिन मेरा इलाज देखभाल सब अच्छे से करते रहे
बस यही एक हसरत रह गई
कि तुम मेरे लिए फुटपाथ पर बिकने वाले चश्मे ले आते
तो उनमें से कोई न कोई ज़रूर मेरी आंखों पर फ़िट हो जाता
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