सदैव नेताओं को गरियाने वाली जनता कभी अपने गरेबान में भी तो झांक कर देखे कि आख़िर क्या वजह है कि नेता मालामाल हुए जा रहे हैं और जनता बेहाल और हमेशा ही नाख़ुश है. आम जनता को आईना दिखाने का यही काम भावना प्रकाश ने इस व्यंग्य में बड़े अलहदा अंदाज़ में किया है.
हमारे पूर्वज अपनी जान गंवा कर हमें पांच साल में एक बार खेला जाने वाला मजेदार खेल दे गए हैं. इसमें ‘राजा’ और ‘प्रजा’ अपनी स्थिति बदल लेते हैं. अपने वातानुकूलित बंगले छोड़कर हांफते-कांपते, गिरते-पड़ते कड़ी धूप में हाथ जोड़कर जनता के सामने खड़े राजा कितने निरीह लगते हैं. पर इस अचानक मिले सम्मान को हम भी कहां पचा पाते हैं. हाथ बांध कर मुंह टेढ़ा कर के कहते हैं जाओ हम वोट नहीं देते. नेता बेचारे फुसलाते हैं ,पुचकारते हैं, तरह-तरह के टुकड़े फेंकते हैं पर न जी, अब हम राजा हैं, ऐसा नाच नचाएंगे कि सोचते रह जाओगे कि राजनीति में क्यों आए?
लाल बत्ती गाड़ी में चलो तो हम कहेंगे, जनता का दुख-दर्द तुम क्या समझोगे, छोड़ोगे तो कहेंगे, तुम ट्रैफ़िक जाम में फंस गए तो देश कैसे चलाओगे ? बंगले में आराम से सोओगे तो हम कहेंगे, जनता के दुःख से कोई वास्ता नहीं, हर जगह हमारे साथ चल दोगे तो कहेंगे, नींद में उठकर चलने की बीमारी है क्या जो न ख़ुद सोते हो न मीडिया को सोने देते हो. नेता कुर्सी से चिपके तो लालची, छोड़ दी तो भगोड़े. भ्रष्टाचारी को टिकट दोगे तो कहेंगे, वोट डालने से क्या फ़ायदा सब एक जैसे हैं. ईमानदार खड़े हुए तो कहेंगे, ईमानदार इतने सारे बेईमानों के बीच टिकेंगे कैसे? आम नागरिक को खड़ा किया तो कहा – हम जानते नहीं तो वोट क्यों दें, मशहूर हस्ती खड़ी हुई तो पैराशूट से क्यों उतारा? व्यवस्था के नाम पर मुद्दे को टालकर चुप लगा गए तो ठग, बदलने की कोशिश की तो अराजकतावादी. बड़ा कन्फ़्यूज़न है नेता बिचारे करें तो क्या करें. पसीना पोछने के सिवाय और कोई चारा भी तो नहीं है उनके पास. प्रश्न पूछकर जनता को नाराज़ तो कर नहीं सकते न?
भला हुआ जो महाभारत के समय लोकतंत्र नहीं था नहीं तो हम पांडवों से कहते दायरों में रहकर युद्ध नहीं किया, तुम्हे वोट नहीं मिलेगा. एडिसन चुनाव में खड़ा होता तो हम कहते एक हजार प्रयोग करोगे तो पांच साल प्रयोगों में ही बीत जाएंगे. कोलंबस खड़ा होता तो कहते एक के बाद एक द्वीप छोड़कर कहा भागे जाते हो. भगोड़े को वोट कौन देगा. हम इतनी चिकचिक करते हैं इसीलिए हमारे घर में कोई काम वाली नहीं टिकती पर नेता लोगों की हिम्मत तो देखो कैसे मुस्कुरा कर चिकचिक सुनते हैं.
उफ़! ये घोषणापत्र भी नेताओं की अजीब सिरदर्दी है. एक के हित में घोषणा करो तो दूसरा नाराज़ दूसरे के हित में बोलो तो तीसरा. तीसरे की चापलूसी करो तो चौथा. अब सबको एक साथ तो खुश रखा नहीं जा सकता. और धीरे-धीरे उन्हें सद्बुद्धि आ ही जाती है. समझ जाते हैं कि इन आपत्कालीन राजाओं के लिए पसीना बहाने की कोई ज़रूरत नहीं. उन्हें पता लग जाता है कि ‘संतन की राय सिर माथे, पर नाला वहीं गिरेगा.
लोग प्रश्न चाहे जो करें, पर वोट विज्ञापन देखकर या किसी लालच में आकर ही डालते हैं. फिर क्या, तुरंत ही स्थिति फिर बदल जाती है. वो हैरान परेशान होना बंद कर देते हैं. आराम से वातानुकूलित बंगले में सोते हैं, हेलीकॉप्टर पर चलते हैं, मंहगी गाड़ियों का रुख़ करते हैं, दो चार टुकड़े हर वर्ग के सामने डालते हैं और घोषणापत्र के बजाए विज्ञापन बांटकर निश्चिंत सो जाते हैं. हम भी कुछ मनुहार करवाकर समझ जाते हैं कि खेल ख़त्म तो राजा का रोल भी ख़त्म और फेंके हुए टुकड़े लपक लेने में ही अपनी भलाई समझकर चुप हो जाते हैं.
फ़ोटो: फ्रीपिक