हमारे देश में शिक्षा के आंकड़े कागज़ों पर भले ही बढ़ते दिखाई दे रहे हों, लेकिन यहां की शिक्षा व्यवस्था की पोल हाल ही में आई एएसईआर यानी ऐनुअल स्टेट्स ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट ने खोल दी है. जिसमें बताया गया है कि ग्रामीण भारत के 14 से 18 वर्ष तक के बच्चे तीसरी कक्षा के सवाल भी हल नहीं कर पाते हैं, वे अपनी मातृभाषा की दूसरी कक्षा की किताब तक नहीं पढ़ पाते और उन्हें स्केल से माप लेने जैसे बुनियादी काम भी नहीं आते हैं. ज़ाहिर तौर पर इसकी वजह हमारी शिक्षा व्यवस्था में मौजूद कमियां हैं. साथ ही, कम प्रशिक्षित शिक्षक भी इसके ज़िम्मेदार हैं. अनुराग अन्वेषी की डायरी के पन्नों में उभरा व्यंग्य भी कहीं न कहीं इस बात की पुष्टि करता है.
मैं ‘स्कूल’ को ‘इस्कूल’ लिखने लगा था, क्योंकि अविभाजित बिहार के जिस मिशनरी स्कूल में मैं पढ़ता था वहां के गुरु जी ने एक रोज़ कहा था ‘हिंदी ऐसी ‘भासा’ है कि ‘जइसे बोला जाता’ है ‘वइसने लिखा भी जाता’ है. ‘इंगलिस जइसा नई’ कि ‘कइसहूं’ लिख दिए और ‘कइसनों’ बोल दिए.’ बहरहाल यह तो मैं बाद में समझा कि हम बोलते ही गलत हैं तो लिखते भी गलत ही हैं.
वो पीट-पीटकर व्याकरण सिखाते थे. तो यहीं से ‘व्याकरण’ हमको कटहा कुत्ता जैसा लगने लगा था. समझ में ही नहीं आता था कि मूंछ पर ताव देने का अधिकार मर्दों को है तो फिर इ ससुरी मूंछ स्त्रीलिंग कैसे हो गई. बस और ट्रक दोनों में एक जैसा इंजन, फिर बस स्त्रीलिंग क्यों और ट्रक पुंल्लिंग क्यों? तब उन्हीं गुरु जी ने समझाया कि जो सुंदर दिखे, सौम्य दिखे, सुशील दिखे, कोमल दिखे – वे सारी चीज़ें स्त्रीलिंग और जो उज्जड, देहाती, गंवार, लम्पट जैसा लगे वे सारी चीज़ें पुंल्लिंग. तब मैंने उनसे पूछा, ‘‘तो यही वजह है कि आप पुंल्लिंग हैं?’’ इतना पूछना था कि तूफ़ान आ गया, जमकर मेरी मरम्मत हुई.
ख़ैर, जब मेरे गुरु जी हांफ गए तो मुझे सांस लेने की फ़ुर्सत मिली. तब ध्यान आया कि शायद मैं गलत बोल गया. हो सकता है कि सर स्त्रीलिंग हों… बस यह ख्याल आते ही मेरी आंखें चमक उठीं. शायद यह गुरु जी से अभी-अभी मिले आशीर्वाद का कमाल था कि मेरी बुद्धि जाग गई. तो मैंने शाबाशी की उम्मीद के साथ अपनी चूक स्वीकारी और गुरु जी को बोला, ‘’सॉरी गुरु जी, मैंने गलत जवाब दिया था. आप स्त्रीलिंग हैं न?’’ इतना सुनते ही मेरे हांफ रहे गुरु जी के बदन में बिजली सी गति आ गई. अपनी कुर्सी से एक झटके में उछले और पलक झपकते ही लास्ट बेंच तक पहुंच गए, जहां मैं बैठा था. फिर तो मेरा झोंटा उनके बाएं हाथ की मुट्ठी में कैद हो गया और उनका दाहिना हाथ अपनी पूरी ताक़त से ऊपर उठता और पूरी गति से नीचे पहुंचकर मेरे बदन को ‘सहला’ जाता.
आज का दौर होता तो शायद उनपर मेरे मां-बाप ने ‘इस्कूल’ और गुरु जी पर केस कर दिया होता. या दूसरी बार की मरम्मत के बाद मेरा ज्ञानचक्षु और खुल जाता और मैं कह बैठता, ‘’सॉरी गुरु जी, आप थर्ड जेंडर हैं… शायद…’’ इसके बाद मेरे गुरु जी ‘ब्रूस ली’ के अवतार में आ जाते.
वैसे, यह तो मेरी समझ से आज भी बाहर है कि शब्दों का लिंग निर्धारण कैसे हुआ. अगर रूप-गुण से तय होना है तो फूल यानी पुष्प से ख़ूबसूरत और कोमल क्या होगा, फिर भी इसे पुंल्लिंग बताया गया.
बहरहाल, एक रोज़ वो पढ़ा रहे थे और मैं ध्यानमग्न हो उनकी बात सुन रहा था. गुरु जी बता रहे थे कि ‘करता’ की ‘किरिया’ का असर जिसपर पड़े वो ‘करम’ कहलाता है. जैसे – राम ने रोटी खाई. इस वाक्य में खाने का असर किस पर पड़ रहा है, ‘करम’ कौन हुआ? अनुराग तुम बताओ?
मैंने अपनी कॉपी देखी जहां मैंने गुरु जी की बताई कर्म की परिभाषा तुरंत नोट कर ली थी. उसे एक बार पढ़ा और सवाल याद किया – राम ने रोटी खाई. मेरा तर्क जागा कि खाने का असर राम पर पड़ा कि उसका पेट भर गया, कि उसकी भूख मिट गई. मैंने उनसे कहा कि गुरु जी इस वाक्य में राम कर्म हुआ. गुरु जी ने खीजे स्वर में पूछा – कइसे? किरिया का असर किस पर पड़ा? मैंने राम पर असर पड़ने का उन्हें अपना तर्क बता दिया. उन्होंने कहा ‘तू ना सुधरेगा, ‘मवेसी’ का ‘मवेसी’ रहेगा.
सच बताता हूं कि उस रोज़ राम ने रोटी खाई थी और मैंने दम तक पिटाई. लेकिन शब्दों से खेलने की लत लग गई और व्याकरण खलने लगा. मेरे गुरु जी की यह घोषणा गलत साबित हुई कि अनुराग ‘मवेसी’ का ‘मवेसी’ रहेगा, मैं तो अब अनुराग अन्वेषी हो गया. है न?
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट