आकांक्षा से शादी करने की अमन की ज़िद ने घर के लोगों को एक बार फिर पसोपेश में डाल दिया. घर में फिर बरसों पहले जैसा माहौल लौट आया, जैसे बीता हुआ समय ख़ुद को दोहरा रहा हो. क्या अमन के प्यार का रास्ता उसकी मंज़िल तक पहुंच पाया या फिर बीते हुए समय की कहानी को ही दोहरा दिया गया? यह जानने के लिए पढ़ें भारती पंडित की कहानी- रास्ते प्यार के.
“एक बार कह दिया न, मुझे कहीं और शादी नहीं करनी है. मैं आकांक्षा से प्यार करता हूं और उसी से शादी करूंगा.”
कमरे में सन्नाटा छा गया था. कमरे में कुल छह लोग बैठे थे, सबको जैसे सांप सूंघ गया था.अमन से इस तरह की उम्मीद किसी को भी नहीं थी.
“कमीने, इसी दिन के लिए जना था तुझे, शर्म नही आती, बड़े-बूढ़ों के सामने खुलेआम अपनी करतूतें खोल रहा है?” रमणीक ग़ुस्से में भन्नाते हुए बोली.
“मां,प्लीज़, ठीक से बात करो…करतूतें नहीं है, बस बता रहा हूं कि शादी उसी लड़की से करूंगा जिससे प्यार करता हूं.” अमन ठहरे हुए और दृढ़ स्वर में बोला.
“ये आकांक्षा है कौन आख़िर?” बुआ जो लड़की देखने जाना है यह सोचकर मायके आई थी, उत्सुकता के सुर में बोली.
“मेरे साथ कॉलेज में पढ़ती है, पास के गांव की है,” अमन बोला.
“बोला था मैंने, मत भेजो शहर, हॉस्टल में पढ़ने नहीं जाते ये, ये सारे गुल खिलाने होते हैं. पर इसके बापू को लगी थी, शहर में भेजना है, नौकरी करवाना है…अरे घर की खेती-बाड़ी क्या कम है क्या? अब भुगतो…” रमणीक फिर से चीखी.
“चुप रहोगी क्या ज़रा? मैं बात कर रहा हूं न?” अमन के पिता जगतपाल ने रमणीक को चुप कराया.
“हां, हां, मैं तो चुप ही रहूं…सारी ज़िंदगी इल्ज़ाम मेरे ही सर धरा है कि लाड़ कर-करके बच्चों को बिगाड़ा है…” रमणीक दुपट्टे से आंखें पोंछती हुई बोली.
“हां तो पुत्तर, बोलो…कहां की है लड़की, कौन है मां-बाप…”
“मेरे साथ पढ़ती है,बहुत होशियार है पढ़ने में, बनिहार की रहने वाली है.”
“क्या? बनिहार?” जगतपाल के माथे पर बल पड़ गए थे,“ब्राह्मण नहीं है?”
“नहीं, कायस्थ है…पर उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?बहुत समझदार है और फिर मुझे पसंद है न…”
“उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है…वाह रे लड़के…” रमणीक फिर हाथ नचाए स्यापा करने लगी,“गांव में इतनी साख है हमारी, पुरानी ज़मींदारी, तेरा ताऊ गांव का सरपंच और तू जात बाहर ब्याह करने निकला है…वो भी कायस्थों की लड़की से…हे भगवान्, ये दिन दिखाने से पहले ही उठा क्यों न लिया तूने…”
“मां, इतना स्यापा न करो, भैया ने बस अपनी बात रखी है, शादी में उनकी नापसंद-पसंद मायने रखेगी या नहीं?”अनीता ने भाई का पक्ष लेने की कोशिश की.
“क्यों री? तू बड़ी बोल रही है आज? क्या तूने भी कोई ऐसा ही लड़का देख लिया है क्या अपने लिए?” बुआ ने तिरछी नज़र से उसे देखते हुए उलाहना दिया था.
अब तक खामोश बैठे सतपाल को लग रहा था मानो इतिहास अपने आप को दोहरा रहा हो.
बीस साल पहले इसी आंगन में ऐसी ही एक बैठक जमी थी. बस फ़र्क़ यही था कि अमन की बजाय सतपाल कटघरे में था.
“मैंने बोल दिया न, अपनी जात से बाहर की लड़की से शादी नहीं हो सकती यानी नहीं हो सकती…शादी होगी तो जात में ही होगी और उसी से होगी, जिसे हम पसंद करेंगे.जिसे मेरी बात नहीं माननी है, वह इस घर से मुंह काला करे.”बाऊजी की कड़कती आवाज़ मानो बिजली बनकर बरस रही थी.
“बाऊजी, मैं उसे पसंद करता हूं,” सतपाल के मुंह से अस्फुट शब्द फूटे थे.
“पसंद करता है न, तो रख लियो रखैल बनाकर…पर बहू बनकर न आवेगी जाटों की लड़की इस घर में…”
“ख़बरदार ऐसा कुछ भी किया तो, सच कहती हूं सतपाले, मेरा मरा मुंह देखेगा यदि उससे कोई संबंध जोड़ने का सोचा भी तो…” मां ने आग्नेयास्त्र चला दिया था.
“जेठ जी, आप भी तो कुछ बोलो इसे…” रमणीक ने सतपाल को उलाहना दिया था.
सतपाल वर्तमान में लौट आया था. गंभीरता से बोला,“देखो, इतनी गंभीर बात का यूं गर्मागर्मी करके हल न निकलेगा. सभी लोग थोड़ा सोचो, मैं अमन से अलग से बात करूंगा, फिर देखते हैं क्या किया जा सकता है. वैसे भी ज़माना अब बदल गया है.”
“जेठ जी, ज़माना भले ही बदला हो, हम अभी भी इसी गांव में रहते हैं और यहां कुछ नहीं बदला है.” रमणीक बोली.
“बदलना चाहोगे तो बदलेगा न…” अमन भन्नाया था.
“भाई,जात-बिरादरी के नियम-कायदे मानने ही पड़ेंगे, हमें यही रहना है, इसी बिरादरी में…और फिर तुम तो गांव के सरपंच हो, यदि तुम्हारी नाक के नीचे ही ऐसा ब्याह हो गया तो बिरादरी थू-थू करेगी हम पर…” जगतपाल ने समझाने के से सुर में कहा.
“सतपाल, तूने भी तो मानी थी न बाऊजी की बात…” बुआ बोल पड़ी थी.
“बस करो दीदी…” सतपाल एक झटके से उठा और वहां से अपने कमरे में चला आया था.
कमरे का दरवाज़ा बंद करके कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर ढह गया था. जिस अतीत को वह जबरन भुलाने की कोशिश में लगा रहता था, वह अचानक सामने आ खड़ा हुआ था.
‘ओ…ए…सतपाले…कहां है रे?’
‘बिल्लो…बिलकुल यही, तेरे पास…धप्प’
‘ऊई मां, कितनी बार कहा है ऐसे अचानक पीछे से आकर, जकड़कर मुझे डराया न कर…’
‘अच्छा, हमारी बिल्लो को भी डर लगता है? वो भी हमसे?’
‘तुझे कितनी बार कहा है, मेरा नाम बिल्लो नहीं, बिंदिया है, बिंदिया, बिंदिया…’
‘पर तुझे देखते ही मेरी जबान पर यही नाम आता है, मेरी बिल्लो, जंगली बिल्ली जैसी…खूंखार, ख़ूबसूरत और एकदम तेज़-तर्रार…’
‘धत, कुछ भी…’
बिल्लो का यूं शर्म से उसकी छाती में मुंह छिपा लेने का वह अहसास उसे अब तक सिहरा देता था.
‘देखा सतपाले, तेरी धड़कन मेरा ही नाम ले रही है…बिल्लो, बिल्लो… मेरा बस चले तो तेरे सीने पर ऐसे ही सिर टिकाकर अपना नाम सुनती रहूं तेरी धडकनों में…’
‘चिंता न कर रानी, जल्दी ही बाऊजी से बात करता हूं, फिर लेकर आऊंगा बारात तेरे घर पर…’
‘मैंने तो मां को बता दिया है, पहले नाराज़ हुई मगर फिर बोली, बाबा से बात करेगी.’
सतपाल की आंखें बह उठी थीं,“माफ़ कर दे बिल्लो, मैं अपना वादा नहीं निभा सका. तुझे दुल्हन बनाकर अपने घर न ला सका.”
उसने मोबाइल में सहेजी हुई बिंदिया की तस्वीर को कसकर चूम लिया था. तकिए में सिर गड़ाए हुए बीते दिनों की कड़वी यादें उसके दिलो-दिमाग़ को हिलाए डाल रही थीं.
उसे समाज का चलन न तब समझ में आया था न अब. शादी करना है कि दो लोग जीवनभर प्यार से साथ रहें, मगर जिससे प्यार है उससे शादी में लाख बंदिशें… और ज़िद ये कि जिससे शादी की जाएगी, उससे प्यार करना होगा, उसके साथ जीवन बिताना होगा.
अमन में तो इतनी हिम्मत है भी कि वह ग़लत बात कहने पर अपनी मां से उलझ गया था, सतपाल की तो हिम्मत ही न पड़ी थी आगे कुछ कहने की…बाऊजी ने कह दिया घर से निकल जाओ, मां ने धमकी दे दी जान देने की…और वह…मां-बाप का सपूत बना प्रेम के सारे वादों से मुकर गया था.
‘तू होश में तो है सतपाले? क्या बक रहा है?उसकी बात सुनते ही बिंदिया लगभग चीत्कार ही उठी थी…बस हो गया प्यार? हो गई जीवन भर साथ निभाने के कसमें?मुझे प्यार के हिंडोले में झुलाने की कसमें?’
‘बिल्लो मेरी बात को समझ… ख़ून-ख़राबा हो जाएगा…” सतपाल ने उसे संभालने का असफल प्रयास किया था.
‘भाड़ में गई बिल्लो…ख़बरदार जो मुझे हाथ भी लगाया तो…तू मेरा सतपाल नहीं है…नहीं है…’ बिंदिया अजीब-सी बदहवासी में रोए जा रही थी.
‘बिल्लो…बिल्लो…चुप कर…’ सतपाल ने उसे जबरन बांहों में कस लिया था. वह सुबकते हुए,उसे बेतहाशा चूमते हुए, उसके सीने पर मुक्के मारते हुए उसकी बांहों में समा गई थी.
सतपाल को समझ में नहीं आ रहा था कि बिंदिया को कैसे समझाए, और समझाने की बात भी कहां थी, वह तो सीधे ही रिश्ता ख़त्म करने की बात करने आया था.
‘क्या कोई भी रास्ता नहीं है इसका?’ थोड़ा संभलते ही बिंदिया ने सवाल किया.
‘हां है न, बाऊजी कह रहे हैं, रखैल बना लो उसे…’ सतपाल कड़वे सुर में बोला.
‘कमीने, जान ले लूंगी तेरी, फालतू बात की तो…’बिंदिया भन्नाई थी.
‘रास्ता होता तो क्या मैं इस तरह यहां बैठा होता?वैसे एक रास्ता है, हम दोनों भाग चलते हैं, कहीं दूर, बाहर जाकर शादी कर लेंगे…’ सतपाल कुछ सोचते हुए बोला.
‘देख सतपाल, मैंने पहले भी कहा था, प्यार करती हूं, कोई क़त्ल नहीं किया है. तेरे साथ आऊंगी तो शादी का जोड़ा पहनकर और सबकी रज़ामंदी से ही. मुंह छिपाकर, भागकर अपने मां-बाप के मुंह पर कालिख हरगिज न मलूंगी.’ बिंदिया का स्वर स्थिर था.
‘और जो सब न माने तो?’
‘कुंवारी ही मर जाऊंगी, वादा है मेरा. तेरे सिवा और कोई हाथ नहीं लगा पाएगा मुझे…’ बिंदिया की आवाज़ की दृढ़ता ने उसे हिला दिया था.
बिंदिया ने तो अपना वादा निभाया, पर सतपाल…
आज सोचता है तो लगता है कि क्या उसे बिंदिया से सचमुच प्यार था? प्यार तो हिम्मत देता है, खुलकर जीने की ताक़त देता है, पर वह तो परिवार के दबाव के तले, धमकियों के तले अपनी बात खुलकर कहने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाया था.
प्यार तो बिंदिया करती थी, जो उसकी ही होकर रहने की कसम को निभाती रही…
अचानक रसोई में कुछ गिरने की आवाज़ आई. सतपाल यादों के गलियारे से वास्तविकता के धरातल पर लौट आया.
आंगन में जाकर हाथ-मुंह धोया और अमन को आवाज़ लगाई. ये बच्चे उसकी गोद में खेलते हुए बड़े हुए थे, उसके अपने बच्चे हुए नहीं, इन्हीं बच्चों पर उसने अपना सर्वस्व लुटा दिया था, बेहद प्यार करता था दोनों से.
अमन आया और सिर झुकाकर बैठ गया.
‘‘ओये, ऐसे मुंह लटकाकर बैठने के लिए नहीं बुलाया है मैंने…चल मुस्कुरा तो दे…’’ सतपाल ने माहौल को हल्का करने की कोशिश की थी.
‘‘ताऊ, आप भी न…देख नहीं रहे हो, कितना टेंशन है…’’ ठुनकता हुआ अमन उसे एकदम बचपन की याद दिला गया था, जब पिताजी की डांट खाकर वह उसके पास उनकी शिकायत लेकर आता था.
‘‘अच्छा ज़रा बहूरानी की फ़ोटो दिखा तो…’’ सतपाल ने माहौल को थोड़ा और हल्का किया.
‘‘ताऊ, बहूरानी बोल रहे हो…सोच लो…’’ अमन ने मोबाइल खोलकर आकांक्षा की फ़ोटो उसके सामने कर दी थी.
‘‘लड़की तो अच्छी है अमन,’’ सतपाल ने फ़ोटो को ग़ौर से देखते हुए कहा था.
‘‘हां ताऊ, स्वभाव से भी बहुत भली है. पर यहां तो बस जाति को लेकर अड़े हुए हैं. समझ में नहीं आता कि शादी मुझे करनी है या इन सबको…’’ अमन का स्वर उखड़ा हुआ था.
‘‘क्या करें पुत्तर, शहर बदल गए हैं, गांव नहीं बदले मगर…और लोग बदलना भी नहीं चाहते,’’ सतपाल ने ठंडी सांस भरते हुए कहा.
‘‘पर किसी को तो शुरुआत करनी होगी न?’’ अमन ने विरोध के सुर में कहा.
‘‘ठंड रख बच्चे, सोचते हैं कुछ. बस थोड़े दिन एकदम शांति रखना, जैसा मैं कहूं वैसा ही करना. वैसे भी अभी तो रिज़ल्ट आना बाक़ी है तेरा…’’ सतपाल ने अमन के कंधे को थपथपाते हुए कहा.
अमन चला गया और सतपाल को सोच के भंवर में छोड़ गया. सच है, किसी को तो शुरुआत करनी होगी न…ऐसा क्या किया जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे?
ज़बरदस्ती के रिश्तों का क्या हश्र होता है, सतपाल से ज्यादा भला कौन जानता होगा. सतपाल की शादी हुई, पर न तो गृहस्थी में मन लगा, न घरवाली में… बिंदिया से इस क़दर जुड़ा हुआ था उसका मन कि घरवाली को हाथ लगाते ही अपराधबोध से भर जाता. वहां बिंदिया भी शादी के लिए इनकार करके किसी महिला आश्रम के रखरखाव के लिए काम करने लगी थी.
नियति को भी शायद यह ज़बरदस्ती का रिश्ता मंजूर नहीं था. दो ही साल में उसकी पत्नी टाइफ़ाइड की शिकार होकर चल बसी. ग़मी की रस्में पूरी होने के बाद बाऊजी उसके पास आए.
‘‘अब तेरी पत्नी तो रही नहीं, दूसरी शादी…’’
‘‘वह बेतरहा चौंका था, क्या मतलब?’’
‘‘वो लड़की, क्या नाम था उसका, उसकी शादी हो गई क्या?’’
उसके लिए ये सारे समीकरण समझना मुश्किल थे. दुहाजू से किसी को भी ब्याहा जा सकता है, ये कैसा हिसाब-किताब था?
उन्हीं दिनों बिंदिया का पत्र आया. उसके साथ हुई दुर्घटना की ख़बर मिल गई थी उसे.
‘क्या अब तू मुझसे शादी करेगी?’ सतपाल के प्रश्न का उत्तर उसने सीधे ना में दिया था.
‘बनाना ही था तो पहली पत्नी बनाता न, दुहाजू से ब्याह मैं क्यों करूं? रिश्ते गरज से नहीं, मुहब्बत से निभाए जाते हैं सतपाले, यही हिम्मत पहले क्यों न दिखाई तूने?‘
उसके इनकार के बाद सतपाल के जीवन से शादी और घरवाली का अध्याय ही ख़त्म हो गया था.
बिंदिया का पत्र कभी-कभार आ जाता था. जब मोबाइल आए तो उसने अपना नंबर साझा किया, इस हिदायत के साथ कि सतपाल उसे तभी फ़ोन लगाएगा जब जीवन-मरण का विकट प्रश्न सामने खड़ा हो. सतपाल ने भी उसकी इच्छा का मान रखा, बिंदिया ही उसे कभी-कभी फ़ोन करके हालचाल ले लेती थी, मगर उसने कभी रेखा नहीं लांघी.
आज अचानक उसे बिंदिया की याद आ गई थी. इतिहास अपने आप को फिर से न दोहराए, अमन के प्यार को अलगाव न झेलना पड़े… जीवन-मरण की घड़ी ही तो थी यह…कुछ सोचकर उसने बिंदिया को फ़ोन मिला दिया था.
‘‘हैलो…’’
‘‘ओए सतपाले, क्या बात है,आज तेरा फ़ोन?’’ बिंदिया की चहकती हुई आवाज़ ने राहत पहुंचाई थी सतपाल को…
‘‘सॉरी बिंदिया, पर बात ही ऐसी है, यही समझ ले जीवन-मरण का प्रश्न है…’’
‘‘हाय रे, मैं तो कबसे इस घड़ी की राह देख रही थी कि तू भी मुझे फ़ोन करे कभी…’’ बिंदिया खिलखिलाई थी.
‘‘तूने ही कहा था न, कॉल नहीं करना जब तक…’’ सतपाल उलझन में था.
“तुझसे बात करने को तो हर पल जी तरसता है सतपाले, पर जो हासिल न हो सके, उससे जी लगाकर जी का कलेश क्यों लेना, बस यही सोचकर…” बिंदिया की आवाज़ भर्राई, फिर ख़ुद को संयत करते हुए बोली,“ बता, जीवन-मरण का ऐसा क्या सवाल आ खड़ा हुआ है?’’
‘‘बस यही समझ बिंदिया की इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है…’’ सतपाल की आवाज़ गंभीर भी थी और कातर भी…
‘‘हुआ क्या? ब्राह्मणों के घर में फिर कोई प्यार कर बैठा?’’ बिंदिया खिलखिलाई थी.
सतपाल ने उसे सारी कहानी सुना दी थी.
‘‘तू क्या चाहता है सतपाले? प्यार करने वालों को अलग करके बिरादरी में इज्ज़त बचाना? यह करके देख चुका है तू, तीन ज़िंदगियां बर्बाद हुईं, एक लाश तो जला दी तुमने, दो अभी भी जी रही हैं…’’ बिंदिया की आवाज़ में तल्ख़ी आ गई थी.
‘‘तुझे मुझसे अब भी शिकायत है न?’’ सतपाल की आवाज़ मंद हो गई थी.
‘‘क्यों न होगी शिकायत? मेरी ज़िंदगी को रेगिस्तान बना दिया तूने, प्यार करने में जो हिम्मत दिखाई, परिवार के सामने उतना ही बुजदिल बन गया…किसने निभाया प्यार का वादा, सोच ज़रा.. ख़ैर छोड़.. तो अब क्या करना है?
‘‘वही तो सलाह मांग रहा हूं तुझसे…क्या करूं?’’ सतपाल ने लाचारी से कहा.
‘‘सबसे बड़ी मुश्क़िल क्या है?’’ बिंदिया ने कहा.
‘‘मेरा सरपंच होना, सरपंच के घर में यह सब होगा तो गांव में थू-थू हो जाएगी.’’
‘‘तो इस्तीफ़ा दे दे सरपंची से…’’ बिंदिया ने दो टूक उत्तर दिया.
‘‘क्या?’’ सतपाल बौखला गया था.
‘‘हां, हां, इस्तीफ़ा दे दे. खेती है इतनी बड़ी, दुकान-कारोबार है,आराम से गुज़ारा हो जाएगा,’’ बिंदिया सहजता से बोली. थोड़ा रुककर बोली,‘‘चल…अब छोटी मुश्किल पर आ जा…’’
‘‘घरवाले, जात बाहर शादी नहीं करेंगे…’’
‘‘देख सतपाले, पहले की बात और थी. अब तेरे घर में तेरी बात मानी जाती है, तेरा रुतबा चलता है. सबको ख़ुश रखने का ख़याल छोड़ दे. सच बात के लिए खड़ा हो.अब भी सही बात नहीं करेगा तो नरक में ही जाएगा समझ ले…’’ बिन्दिया का स्वर उलाहने वाला हो गया था.
फ़ोन कट जाने के बाद भी बिंदिया की आवाज़ उसके कानों में गूंजती रही…
“अब भी सही बात नहीं करेगा तो नरक में ही जाएगा समझ ले…”
सतपाल को सारी रात नींद नहीं आई, सोचता रहा कि किस तरह से इस मसले का हल निकाला जाए कि बच्चे भी दुखी न हो और परिवार की साख भी रह जाए.
सुबह उठने तक उसके दिमाग़ में एक उपाय ने जन्म ले लिया था. उसने अमन को बुलाकर कुछ समझाया. दोपहर में उसके साथ बनिहार भी हो आया. वापस लौटा तो मन में शांति पसरी हुई थी. अमन भी ख़ुश नज़र आ रहा था.
दो महीने बीत गए. कॉलेज के आख़िरी साल का रिज़ल्ट भी आ गया और इस बीच अमन के लिए एक कंपनी से नौकरी का बुलावा भी आ गया. अमन शहर को चला गया.
उसे गए दो ही हफ़्ते हुए थे. शाम को सारा परिवार एक साथ बैठा हुआ था कि सतपाल के पास फ़ोन आया… दूसरी ओर से कही जा रही बात सुनकर सतपाल चौंकते हुए बोला,‘‘अरे, यह क्या कर डाला ओए, हम सोच ही रहे थे न कुछ?’’
सतपाल की बात सुनते ही सब चौंक पड़े…
‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’
‘‘अमन ने आकांक्षा से कोर्ट में शादी कर ली है.’’
‘‘क्या? हे भगवान, ये क्या कर डाला…कहीं मुंह दिखाने लायक न छोड़ा इस कलमुंहे ने…’’ रमणीक छाती पीटने लगी.
पास बैठी अनीता सतपाल की ओर देखकर होंठों की कोर में मुस्करा दी थी. सतपाल ने सांत्वना देते हुए कहा,‘‘देखो, अब जो होना था, हो चुका है. बेहतर यही होगा कि हम अब इस रिश्ते को स्वीकार कर लें. जवान ख़ून है, कोई और ऊंच-नीच हो गई तो मुश्क़िल हो जाएगी. लड़की के माता-पिता से मिलकर शादी की तारीख़ तय कर लेते हैं.’’
‘‘पर लोगों को क्या जवाब देंगे?’’ जगतपाल ने चिंता के सुर में कहा था.
‘‘पंचायत बुलाते हैं, इस बात को रखते हैं. ज़्यादा बात बढ़ी तो मैं इस्तीफ़ा दे दूंगा,’’ सतपाल ने ठहरे हुए सुर में कहा.
पंचायत बुलाई गई. साथ ही, गांव के कुछ युवाओं और गणमान्य लोगों को भी बुलाया गया. सतपाल ने गंभीर सुर में सारी बात बयां करते हुए कहा,“देखो जी, बच्चों ने अपने मन की कर ली है और हमें भी लगता है कि शादी जैसे काम में ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिए. हम बच्चों के निर्णय से सहमत है. यूं भी नई पीढ़ी अब बदलाव चाहती है तो हमें भी बदलना पड़ेगा.”
सतपाल की बात सुनकर दो पल को सन्नाटा छा गया था.
सतपाल ने कहना जारी रखा,“हां, अगर गांव का सरपंच होने के नाते मेरे घर में यह सब होना आपको ठीक नहीं लगता, तो मैं सरपंच के पद से इस्तीफ़ा देने को तैयार हूं.” सतपाल ने हाथ में पकड़ा कागज़ सामने कर दिया था.
सभा में खुसर-फुसर होने लगी. फिर दो-तीन युवक खड़े हो गए. एक बोला,‘‘सरपंच जी, आपको इस्तीफ़ा तो न देने देंगे. आपने गांव के लिए जितना किया है, अब तक कोई न कर सका.’’
दूसरा बोला,‘‘मैं तो कब से कहता रहा हूं कि सालों से चली आ रही ग़लत रीतियों को छोड़ना चाहिए, अब सब बदलना चाहिए .शादी में प्यार ज़रूरी है, जात-पात क्या क्या लेना-देना?’’
‘‘इसने भी कोई देख रखी होगी, इसलिए कह रहा है…’’ एक आवाज़ आई थी.
सभा में असमंजस व्याप्त था. युवा सतपाल के पक्ष में खड़े नज़र आ रहे थे, पंच और अन्य बुज़ुर्ग किसी निर्णय पर नहीं पहुंचे थे.
‘‘आप सभी सोच लीजिए,कल अपने निर्णय से अवगत करा दीजिए,’’ सतपाल ने सभा बर्ख़ास्त कर दी थी.
एक हफ़्ते बाद सतपाल ने बिंदिया को फ़ोन लगाया…
‘‘बोल सतपाले, अब क्या मुसीबत आन पड़ी?’’
‘‘मुसीबत हल कर ली है बिल्लो, बस उसी के लिए फ़ोन किया था,’’ सतपाल ने ख़ुशी भरे लहजे में कहा.
‘‘क्या बात है! यानी मैदान मार लिया सरपंच जी ने… सरपंची गई कि बची?’’ बिंदिया हंसते हुए बोली.
‘‘वो भी बच गई. जवान बच्चों का मानना है कि अब सोच में बदलाव लाना होगा, और बुज़ुर्गों का मानना है कि गांव में अभी तो कोई दूसरा सरपंच दिखाई नहीं देता इसलिए मैं ही बना रहूं. अब सुन, अगले मंगल को ब्याह है अमन का, तुझे लेने गाड़ी भेजूंगा. तू आएगी न?’’ सतपाल ने कहा.
‘‘तू जानता है न सतपाले, तेरी देहरी नहीं चढ़नी मैंने…’’
सतपाल ने गहरी सांस ली…
‘‘पर तेरी ख़ुशी में शरीक ज़रूर होऊंगी…’’ बिंदिया बोली.
‘‘कैसे?’’
‘‘शादी के बाद बहू-बेटे को मुझसे मिलवाने लेकर आना, अच्छा लगेगा मुझे. मुझसे भी मिल लेना, देख लेना तेरी बिल्लो वैसी ही है कि बदल गई…’’ बिंदिया खिलखिला उठी थी.
‘‘जैसा तू चाहे बिल्लो…’’ सतपाल ने प्रेम पगे सुर में कहा.
दूसरी तरफ़ बिंदिया की हंसी गूंजती रही. सतपाल की आंखें नम हो गई. उसने हाथ में पकड़े मोबाइल को कसकर सीने से लगा लिया.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट