अमूमन धर्मों के बीच अपने-अपने ईश्वर को लेकर लड़ाई होती रही है. इस लड़ाई में जाने-अनजाने, डायरेक्ट-इनडायरेक्ट मानसिक, आर्थिक, बौद्धिक, नैतिक सपोर्ट हमारा भी रहता है. तेज़ी से धार्मिक कट्टरता की राह लेती दुनिया में चर्चा की एक छोटी-सी खिड़की हम भी खोल रहे हैं.
दुनिया के अलग-अलग धर्मों के ज़्यादातर महान दार्शनिक, चिंतक और गुरु, वर्षों ईश्वर की खोज के बाद इस नतीजे पर पहुंचते रहे कि ईश्वर एक है. धर्म को ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता माना जाता रहा है. कोई एक रास्ते पर चलता है, कोई दूसरे, पर उसे पहुंचना सर्वशक्तिमान ईश्वर तक है. तो फिर क्यों अलग-अलग धर्मों के लोग एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लाठी-डंडा, चाकू-तलवार और आजकल सोशल मीडिया पोस्ट्स लेकर खड़े हो जाते हैं?
धर्मों के बीच झगड़ा केवल उसी कंडिशन पर हो सकता है, अगर आप ईश्वर के एक होने की अवधारणा को मानने से इनकार करते हैं. मेरी कमीज ज़्यादा सफ़ेद की तर्ज पर अगर हम अपने वाले ईश्वर को ही असली ईश्वर मानते हैं तो एक टेक्निकल दिक़्क़त आ सकती है. लगभग सभी प्रमुख मजहबी किताबों यानी धर्मग्रंथों में ईश्वर की महानता के वर्णन के साथ-साथ धरती और मनुष्य सहित इसके सभी जीव-जंतुओं के निर्माण की व्याख्या की गई है. सार यह होता है कि हमारे मजहब के ईश्वर ने दुनिया की रचना की है. जब आप ईश्वर को हमारे या तुम्हारे वाले तराजू में तौलने लगते हैं तो ज़ाहिर है आप अपने ईश्वर को दूसरे धर्म के ईश्वर से ज़्यादा शक्तिशाली यानी वज़नी पाएंगे. पर ऐसा करके आप डायरेक्टली यह स्वीकार करते हैं कि इस दुनिया में एक से ज़्यादा ईश्वर हैं. पर फिर यह सवाल उठता है, यदि ईश्वर एक से ज़्यादा हैं तो दुनिया एक ही क्यों है? क्योंकि सभी धर्मों के लोग तो यही मानते हैं कि दुनिया उनके ईश्वर ने बनाई है.
हक़ीक़त यह है कि सभी धर्मों के लोग अपने-अपने ईश्वरों के साथ एक ही दुनिया में रह रहे हैं, तो क्या यह मानने में ज़्यादा सहूलियत नहीं है कि सभी धर्मों के अनुयायी जिस सर्वोच्च शक्ति को भगवान कहते हैं, वह एक ही है? ‘सबका मालिक एक’ और ‘एक ओंकार’ की तरह! इस बात को समझने के लिए हम एक नदी का उदाहरण लेते हैं, जिसे ब्रह्मपुत्र कहा जाता है. तिब्बत (चीन) से उद्गम के समय इसे सांगपो कहा जाता है, अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करते ही इसका नाम दिहांग हो जाता है और असम में ब्रह्मपुत्र. यानी सांगपो, दिहांग और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी के तीन नाम हैं. यानी अलग-अलग धर्मों में एक ही सर्वोच्च शक्ति (ईश्वर) के अलग-अलग नाम हैं. जब आपके और हमारे अल्टिमेट भगवान का नाम लेकर, भगवान के लिए लड़ने का क्या अर्थ है? तो क्यों न हम ईश्वर के नाम पर लड़ाई बंद कर दें!
ज़ाहिर है, अगर यह छोटा-सा तर्क धर्म के हथियार से ईश्वर के लिए लड़ी जा रही इस लड़ाई को रोक सकता, तो हम आज यह दिन न देख रहे होते. तो बात पक्की है, हम एक भगवान वाली अवधारणा को मानते ही नहीं. पर लॉजिक कहता है कि एक दुनिया और अनेक ईश्वर वाली थीयरी सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी स्थिति में सही मानी जा सकती है, अगर धरती पर ईश्वर का आगमन इंसान के बाद हुआ हो. पर इस थीयरी को मानना किसी भी धर्म के अनुयायी के लिए संभव नहीं होगा, क्योंकि इस तरह तो सभी धर्मों में बताई गई धरती और जीवजंतुओं के बनने की कहानी झूठी साबित हो जाएगी. दूसरे शब्दों में आपको यह स्वीकार करना होगा कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं, बल्कि धरती पर आने के बरसों बाद मनुष्यों ने ईश्वर की रचना की. अब आप चाहे किसी भी धर्म को माननेवाले हों, आप इस तर्क को तो स्वीकार नहीं करेंगे कि इंसान ने भगवान को बनाया. तो पहले वाला तर्क ही मान लीजिए कि ईश्वर एक है और उसी ने इंसान को बनाया. इंसान अपनी-अपनी सुविधा और ज़रूरत के मुताबिक़ संगठित हुआ. दिनों-दिन बड़े हो रहे संगठन को एक-साथ बनाए रखने के लिए धर्म बनाए.
हर धर्म ने ईश्वर को अलग-अलग नाम दिया और उस तक पहुंचने के लिए अलग-अलग राह बनाई, कर्मकांड बनाए. इस प्रकार हर धर्म के अपने-अपने ईश्वर हो गए, पर अंतिम सत्य यह है कि ईश्वर का अपना कोई धर्म नहीं है. ईश्वर की आपके धर्म में, आपकी रीतियों-कुरीतियों में कोई इंट्रेस्ट नहीं है. तो आप बेवजह क्यों हलकान हुए जा रहे हैं. तो अगर सचमुच आस्तिक हैं, तो ईश्वर के नाम पर लड़ना बंद करें. क्योंकि ईश्वर के नाम पर केवल वही लड़ सकता है, जो ईश्वर को नहीं मानता.