भारत में खेती किसानी अमूमन घाटे का सौदा है. यह आप देशभर में ज़्यादातर किसानों की बदहाली से समझ सकते हैं. इसकी पुष्टि जीडीपी के आंकड़े भी करते हैं. आधी से ज़्यादा आबादी खेती में लगी है, पर जीडीपी में खेती का योगदान 20 प्रतिशत भी नहीं है. फिर आख़िर क्या वजह है किसान खेतों से बाहर नहीं निकलना चाहता? सरकार या कॉर्पोरेट की निगाहें उसके खेतों की ओर जाते ही वह बेचैन क्यों हो जाता है? इसके जवाब आपको आंकड़ों से नहीं, जज़्बातों से मिलेंगे. क़रीब 70 साल पहले बनी एक फ़िल्म ‘दो बीघा ज़मीन’आपके कई सवालों का माकूल जवाब हो सकती है. बशर्ते आप इसे दिल की नज़र से देखें. जैसा कि हमारे सिनेमाप्रेमी-लेखक जय राय देख रहे हैं.
फ़िल्म: दो बीघा ज़मीन
निर्देशक: बिमल रॉय
कलाकार: बलराज साहनी, निरूपा रॉय, मीना कुमारी, मुराद, जगदीप, नज़ीर हुसैन और अन्य
कहानी: सलील चौधरी (रबिंद्रनाथ टैगोर की दुई बीघा जोमी पर आधारित)
स्क्रीनप्ले और एडिटिंग: हृषिकेश मुखर्जी
गीत: शैलेन्द्र
संगीत: सलील चौधरी
साल 1953 में रिलीज़ हुई फ़िल्म दो बीघा ज़मीन भारत के महान निर्देशकों में एक बिमल रॉय की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक है. हालांकि बॉक्स ऑफ़िस पर फ़िल्म को ज़्यादा क़ामयाबी नहीं मिली, लेकिन दुनियाभर में इस फ़िल्म ने काफ़ी तारीफ़ें बटोरी. उस दौर के सोवियत संघ में फ़िल्म काफ़ी चर्चा में रही. भारतीय सिनेमा और समाज में इस फ़िल्म के इम्पैक्ट के लिहाज़ से कहें तो दो बीघा ज़मीन कालजयी फ़िल्म है. जब तक भारत में किसानों का वजूद ज़िंदा रहेगा, तब तक इसके सारे किरदार ज़िंदा रहेंगे. बिमल रॉय के बेहतरीन निर्देशन, बलराज साहनी के अद्भुत अभिनय और हृषिकेश मुखर्जी के एडिटिंग का कमाल है कि इसकी कहानी आज भी पुरानी नहीं लगती. फ़िल्म का मुख्य किरदार शंभु (बलराज साहनी) आज भी सरकार के ख़िलाफ़, सरकार की नीतियों से टकराते हुए, सरकार के सामने खड़ा नज़र आता है. हाल-फ़िलहाल का कृषि आंदोलन, जो कि हमारे समय का सबसे बड़ा जन आंदोलन था, उसकी ज़मीन कहीं न कहीं दो बीघा ज़मीन से जुड़ी लगती है. अगर आज़ादी के बाद से लेकर अब तक किसानों के साथ अन्याय नहीं होता तो दो बीघी ज़मीन, मदर इंडिया जैसी फ़िल्में नहीं बनतीं. साल भर तक किसानों का जमावड़ा राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर नहीं लगता. इतनी लंबी भूमिका के बाद, चलिए अब फ़िल्म की बात कर लेते हैं.
फ़िल्म की शुरुआत शैलेंद्र और सलिल चौधरी के जुगलबंदी वाले बेहतरीन गीत-संगीत ‘हरियाला सावन ढोल बजाता आया’ से होती है, जब दो वर्ष के लम्बे सूखे के बाद बारिश का आगमन होता है और सारे गांव वाले पारंपरिक अन्दाज़ में बारिश का स्वागत करते हुए नृत्य करते हैं. आप इस गीत में महसूस कर सकते हैं कि किसान के लिए बारिश का कितना महत्व है. बारिश उनके जीवन की डोर है. फ़िल्म का नायक शंभु (बलराज साहनी) अपनी पत्नी (निरूपा रॉय) से कहता है,‘अब बारिश हो गई. बस फसल अच्छी हो जाए तो नाथूराम सोनार के पास से गिरवी रखी तेरी पायल की जोड़ी को छुड़ा लाऊं. जब तू मेरे लिए खाना लेकर आएगी तो दूर से रुनझुन की आवाज़ आएगी बहुत मज़ा आएगा.’
उसके अगले ही फ्रेम में कहानी बदल जाती है, जब गांव का ज़मींदार शहर के कुछ लोग के साथ शंभु के खेत के पास पहुंचता है. एक छोटी-सी चर्चा होती है की वहां नई मिल लगानी है, लेकिन शंभु की दो बीघा ज़मीन उसके बीच में आ जाती है. ज़मींदार आत्मविश्वास के साथ कहता है की वह शंभु को ज़मीन बेचने के लिए मना लेगा. अगले दिन ज़मींदार के दरबार में शंभु की पेशी होती है और शंभु ज़मीन को अपनी मां कहकर ज़मीन बेचने से मना कर देता है. ज़मींदार उसे धमकाते हुए कहता है या तो ज़मीन बेचो या मेरा दिया हुआ कर्ज़ वापस करो. बस यहीं से कहानी साफ़ हो जाती है. कम से कम समय में 65 रुपए का कर्ज अदा करने के दबाव में शंभु को अपने कम उम्र के बेटे के साथ शहर जाना पड़ता है. गांव से निकलते वक़्त फिर एक बेहतरीन गीत ‘धरती कहे पुकार के, मौसम बीता जाए’ जब आप इस गीत का मुखड़ा सुनेंगे आप का मन शांत होने लगेगा,‘भाई रे, गंगा और जमुना की गहरी है धार, आगे या पीछे सबको जाना है पार…’ इसमें जीवन का गीत है, जीवन का संगीत है. अब शंभु तो किसान है, जिसने ज़िंदगी भर हल चलाए हैं. शहर में शंभु को रिक्शा गाड़ी खींचने का काम मिलता है. शहर में जीवन के लिए तमाम संघर्ष और उसके साथ ही दिन गिनते हुए पैसे बचाने और समय से कर्ज़ चुकाने के दबाव… जीवन के तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी ईमानदारी को बरकरार रखने की बहुत सारी घटनाएं आपको रुला देंगी. आपको एक व्यापारी और किसान में फ़र्क़ साफ़ नज़र आएगा.
फ़िल्म के सबसे ख़बसूरत गीत ‘अजब तोरी दुनिया ओह मेरे रामा’ में शैलेंद्र के कलम का कमाल अपनी ऊंचाइयों को छू जाता है. यह गीत आपको बताता है कि मज़दूरों द्वारा बनाई गई इस दुनिया में मज़दूरों के लिए ही कोई जगह नहीं है. मज़दूरों का शोषण किस हद तक होता है और कब तक होता है. इस गीत की बेहतरीन लाइन है.
परबत काटे सागर पाटे महल बनाए हमने
पत्थर पे बगिया लहराई फूल खिलाए हमने
हो के हमारी हुई न हमारी
अजब तोरी दुनिया हो मोरे रामा
दया धरम सब-कुछ बिकता है लोग लगाएं बोली
मुश्किल है हम जैसों की खाली है जिनकी झोली
जब तेरे बन्दों की जान बिके ना
है तब तोरी दुनिया हो मोरे रामा
अजब तोरी दुनिया…
जब शंभु का बेटा अपनी मां को पत्र लिखता है कि बापू की तबियत बहुत ख़राब है. आप शहर आ जाइए. बापू बहुत दबाव में काम कर रहे हैं. शंभु की पत्नी निरूपा रॉय का अपने बीमार ससुर को छोड़कर शहर जाना और जाते ही ग़लत आदमी के द्वारा शोषण करने की घटना और बचने के लिए भागना, रोड पर बेहोश होकर गिरना. हॉस्पिटल लेकर जाने के लिए लोगों का रिक्शा ढूंढ़ना और संयोग से शंभु का वहां जाना. शंभु ने कभी नहीं सोचा होगा कि शहर में पहली बार उसकी पत्नी की मुलाक़ात इस तरह से होगी. शंभु 50 रुपए की रक़म तक पहुंच जाता है, लेकिन ज़मींदार द्वारा दिया हुआ समय निकल जाता है.
शंभु की ज़मीन नीलाम हो जाती है. शंभु के बुज़ुर्ग पिता की मौत हो जाती है. शंभु शहर से लौटकर गांव आता है तो उसे उसे अपने दो बीघा ज़मीन पर एक मिल नज़र आती है. कंटीले तारों के बीच से अंदर हाथ बढ़ाकर वह एक मुट्ठी मिट्टी उठाता है. वहां पर पहरा दे रहा चौकीदार उसे चोर कहकर वह मिट्टी वहीं छोड़ने के लिए कहता है. फ़िल्म के आख़िर में इस तरह से शंभु को उसकी दो बीघा ज़मीन की एक मुट्ठी मिट्टी भी नसीब नहीं होती.
भारत की सामाजिक रचना के परिवेश में फ़िल्म दो बीघा ज़मीन हर दौर की कहानी लगती है. इसके सारे गाने आपको वास्तविक जीवन के बहुत क़रीब ले जाते हैं. इसके हर गीत में जीवन के प्रति सवाल और जवाब मिलते हैं. फ़िल्म को कालजयी बनाने में इससे जुड़े सभी लोगों का योगदान है. निर्देशन, गीत, संगीत और अभिनय तो बेहतरीन हैं हैं, इस फ़िल्म की सबसे अच्छी बात है हृषिकेश मुखर्जी की एडिटिंग. आगे चलकर यही एडिटर अपने गुरु की टक्कर का निर्देशक बनता है. भारतीय सिनेमा को एक से बढ़कर एक कालजयी फ़िल्मों का तोहफ़ा देता है. हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों की चर्चा आगे कभी करेंगे. बहरहाल आप यूट्यूब या ओटीटी प्लैटफ़ॉर्म्स पर इस फ़िल्म को ढूंढ़िए, देखिए और गुनगुनाइए, ‘अजब तोरी दुनिया…’