पिछले कुछ समय से ख़ासकर #metoo मूवमेंट के बाद हम मुखर हो कर फ़ेमिनिज़्म और स्त्री से जुड़े मुद्दों पर बोलने लगे हैं. हर किसी के पास विचार है. हम सब कभी ना कभी इस सच से रूबरू होते हैं कि जो हमारे आसपास चल रहा है उसका कितना साथ दें, उससे कितने सहमत हों और वक़्त आने पर कैसे और कितना लड़ें? मेरी यह शुरुआत 1986 में केतन मेहता की फ़िल्म मिर्च-मसाला देख कर हुई थी. फ़िल्म की कहानी बताने से पहले यह कहना चाहूंगी कि जिस शाम अपने घर के ब्लैक ऐंड वाइट टीवी में दूरदर्शन पर यह फ़िल्म देखी थी, मेरे अंदर कुछ बदला था. मेरी सोच, मेरी नज़र, आसपास देखने का अंदाज़ और बातों को गहराई से समझने का नज़रिया.
नैशनल फ़िल्म डेवलेपमेंट कारपोरेशन उस समय कुछ अच्छी फ़िल्में बनाया करता था. ज़्यादातर आर्ट फ़िल्में. कम बजट की. केतन मेहता की भवनी भवाई भी मैं दूरदर्शन पर देख चुकी थी. ग़ज़ब की फ़िल्म थी वो. मैं और मेरा भाई रवि लंबे समय तक मंत्रमुग्ध रहे थे.
लेकिन मिर्च-मसाला की याद ज़्यादा रह गई. शायद इसलिए भी कि उसका विषय दिल के क़रीब है, दिल में सीधे घुसता है. चुन्नीलाल माडिया की कहानी पर बेस्ड इस फ़िल्म की कहानी में ज़्यादा उतार-चढ़ाव नहीं है. कहानी देश की आज़ादी के पहले की है. चालीस का दशक. कच्छ के आसपास का एक ग़रीब गांव. गांव में एक सूबेदार (नसीरुद्दीन शाह) है, जो अंग्रेज़ों के लिए लगान वसूलने का काम करता है. तमाम दुश्वारियों के साथ-साथ वो एक नंबर का वूमनाइज़र है. हर वक़्त उसकी नज़र गांव की औरतों पर रहती है और अपने आदमियों से कह कर वो ग़रीब परिवार की औरतों को उठवाता है. मजबूरी. ग़रीबी. लाचारी. गांव का मुखिया (सुरेश ओबेराय) बुरा आदमी नहीं है, पर उसमें सूबेदार से लड़ने का ताव नहीं है.
गांव की एक दिलेर औरत सोनबाई (स्मिता पाटिल) का पति (राज बब्बर) नौकरी के लिए बाहर जा रहा है. सोनबाई के अक्खड़पन, दिलेरी और ख़ूबसूरती पर सूबेदार का दिल आ जाता है. एक दिन गांव में उसे रोक कर सूबेदार उसके सामने अश्लील प्रस्ताव रखता है, सोनबाई पलट कर उसे थप्पड़ मार देती है. सूबेदार अपने आदमियों से कहता है सोनबाई को ढूंढ़ कर उसके पास लाए. सोनबाई दौड़ती-भागती गांव की मिर्च फ़ैक्ट्री में पहुंचती है. वहां का केयरटेकर अबू मियां (ओम पुरी) एक उम्रदराज ख़ुदा का नेक बंदा है. वह सोनबाई को अपनी फ़ैक्ट्री में शरण देता है. फ़ैक्ट्री में महिलाएं काम करती हैं. गांव के मुखिया से लेकर फ़ैक्ट्री की कुछ महिलाएं तक सोनबाई के विरोध में बात करने लगती हैं कि उसे सूबेदार के पास जाना चाहिए. वरना सूबेदार का ग़ुस्सा सब पर निकलेगा. अबू मियां सोनबाई का साथ देता है.
मुखिया की बीवी (दीप्ती नवल) भी गांव की महिलाओं के साथ थाली पीटती हुई पति का विरोध जताती है. महिलाएं एकजुट होने लगती हैं, इनमें कई तो वो भी हैं जो सूबेदार के शोषण का शिकार हो चुकी हैं. अंत में सूबेदार अपने सिपाहियों को हुक़्म देता है कि फ़ैक्ट्री का दरवाज़ा तोड़ दे और हमला कर दे.
सबसे पहले तो दरवाज़े पर खड़ा अबू मारा जाता है. सोनबाई कृपाण ले कर तैयार है. पर जैसे ही सूबेदार फ़ैक्ट्री के अंदर आता है, वहां काम करने वाली महिलाएं मिर्ची से भरी बोरियां दौड़ती हुई लाकर उसके ऊपर फेंक देती हैं. सूबेदार दर्द से छटपटाने लगता है. सोनबाई की आंखों में ख़ून उतर रहा है. फ़िल्म यहां ख़त्म होती है.
अंत देख कर मैं इतनी उत्तेजित हो गई थी कि खड़ी हो गई. तमाम उन महिलाओं को सलाम करने जो एकजुट हो कर अन्याय से लड़ती हैं. इस फ़िल्म के नरेशन में कोई अतिश्योक्ति नहीं है. सादगी है, निर्मलता है. और अभिनय? कहने की बात ही नहीं कि सभी कलाकारों ने पूरा न्याय किया है. स्मिता पाटिल जानदार और ज़बरदस्त, ओम पुरी ग़ज़ब, नसीर शानदार… मास्टरजी के छोटे से रोल में बेंजामिन गिलानी जमे हैं. दीना पाठक, सुप्रिया पाठक, रत्ना पाठक सबका काम बेहतरीन. संगीत की बात करूं तो एक गरबा डांस है, जिसमें ग्लैमर नहीं है, बस रस है.
फ़िल्म मिर्च मसाला से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें
इस फ़िल्म को उस साल बेस्ट फ़ीचर फ़िल्म का नैशनल अवॉर्ड मिला था. इस फ़िल्म की मूल कहानी में लेखक ने मिर्च की फ़ैक्ट्री के बजाय तंबाखू की फ़ैक्ट्री लिखी थी. पर एक बार केतन जब फ़िल्म की रेकी करने गुजरात गए तो लाल मिर्च के ढेर पर उनकी नज़र पड़ी और उन्होंने तय किया कि वे फ़िल्म का नाम मिर्च-मसाला रखेंगे और लाल मिर्च की भी इसमें अहम भूमिका होगी. सूबेदार के चंगुल से सोनबाई ज़मीन पर बिछी लालमिर्च की कालीन को लांघती हुई भागती है. वो सीन प्रतीकात्मक तो है ही, बेहद सुंदर बना है.
इस फ़िल्म से जुड़ी दुखद बात यह है कि फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद उसी साल स्मिता पाटिल चल बसी थीं.
क्यों देखें: यह फ़िल्म देखने के बाद आपको अच्छी फ़िल्मों पर यकीं हो जाएगा.
कहां देखें: टाटा स्काई, अमेज़ॉन प्राइम, यू ट्यूब (पेड)