मुझे फ़िल्मों में हैप्पी हैंडिंग की ख़्वाहिश रहती है. दो-ढाई घंटे बाद जब थियेटर से बाहर निकलूं तो मुंह में अच्छा सा स्वाद रहे, दिल में अनजानी सी ख़ुशियां रहें और मन देर तक उन छवियों को याद करता रहे. बहुत कम फ़िल्में हैं मेरी लिस्ट में जिनमें हैप्पी एंडिंग ना होने के बावजूद कमाल की हैं. फिर वही बात, पता नहीं फ़िल्म देखते समय कौन सा जादू चल जाए. कौन-सी बात दिल को लग जाए.
आज बात करूंगी 1977 में रिलीज हुई फ़िल्म घरौंदा की. डॉक्टर शंकर शेष की कहानी एकदम सादी है. इस फ़िल्म से भीमसेन निर्देशक बने. गुलज़ार ने फ़िल्म के गाने लिखे थे. अगर आप मुंबई को जानते हों ख़ासकर सत्तर के दशक में, तो यह घर-घर की कहानी है. आपको गुलज़ार का लिखा गाना याद है ना दो दीवाने शहर में, रात में या दोपहर में आबोदाना ढूंढ़ते हैं आशियाना ढूंढ़ते हैं. बस यह फ़िल्म का मेन थीम है, सूत्र है. छाया (ज़रीना वहाब) और सुदीप (अमोल पालेकर) एक ही कंपनी में काम करते हैं. उनमें प्यार हो जाता है. छाया अपने भाई-भाभी और छोटे भाई के साथ एक कमरे के चाल में रहती है. सुदीप के पास तो ऐसा भी कुछ है नहीं. वह अपने दोस्तों के साथ सराय में कमरा शेयर करता है. दोनों शादी के पहले अपना घर ख़रीदना चाहते हैं और एक जाली ब्रोकर के चक्कर में आ जाते हैं. उनका पैसा डूब जाता है. सुदीप इससे उबर नहीं पाता. छाया के पास मौक़ा है. उनके बॉस मिस्टर मोदी (श्रीराम लागू) छाया में अपनी स्वर्गीय पत्नी की छाया देखते हैं और उसे प्रपोज़ कर देते हैं. छाया उम्रदराज़ और बीमार मोदी की बीवी बनने को राजी हो जाती है, उसे लगता है उसे और उसके परिवार को कम से कम पैसे की तंगी नहीं रहेगी.
सुदीप उसकी ज़िंदगी में वापस आना चाहता है. मोदी को लगता है छाया सुदीप के साथ चली जाएगी. पर अंत में छाया जा नहीं पाती.
याद रखें यह फ़िल्म चार दशक पहले की है. छाया जब सुदीप के साथ ना जा कर अपने पति के साथ रहने का तय करती है, तो वह उसका निर्णय होता है. हां, मंगलसूत्र वगैरह तो है ही. सुदीप के लिए बुरा लगता है. वह छाया की ज़िंदगी से दूर एक नया सफ़र तय करने निकल पड़ता है.
वैसे सच कहूं तो इस फ़िल्म में श्रीराम लागू सब पर भारी पड़े थे. उन्हें इस फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ सह कलाकार का फ़िल्मफे़यर अवॉर्ड भी मिला. मुझे याद है फ़िल्म देखने के बाद मेरी बहन नलिनी सुब्रमण्यम श्रीराम लागू की इतनी दीवानी हो गई थी कि तकिए के नीचे उनकी तस्वीर रखने लगी थी.
उस वक़्त रिश्तों को समझने की मेरी उम्र नहीं थी. पर फ़िल्म में ऐसी कई बातें थीं जो मुझे दूसरी दुनिया में ले गईं, मुंबई बेहद अपनी और पास लगी, ख़ासकर मुझे जैसी छोटे शहर भिलाई में रची-बसी लड़की को. मैं छाया के साथ पूरी तरह आईडेंटीफ़ाई कर पाई. वह जब कहती है: तुम ही हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है, मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है, तो पता नहीं था कि यह गाना और शब्द मेरी ज़िंदगी का एंथम सॉन्ग बन जाएगा. मुझे छाया का स्वार्थी बनना और प्रैक्टिकल होना भी ग़लत नहीं लगा. वह मज़बूत थी सुदीप से. उसे भी एक अच्छी ज़िंदगी जीने का हक़ था. एक एस्केपिस्ट आदमी के साथ वह भला क्या सपने देखती?
यह फ़िल्म और फ़िल्म के गाने आज भी मुझे हॉन्ट करते हैं. अस्सी और नब्बे के दशक में मैं कई बरस तक मुंबई में रही और इस फ़िल्म को जीती रही.
फ़िल्म घरौंदा से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें
उस साल गर्मियों में कई बड़ी फ़िल्में रिलीज़ हुई थीं, हम किसी से कम नहीं, अमर-अकबर-एंथोनी, परवरिश, दुल्हन वही जो पिया बन भाए आदि. ये सभी फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर ख़ूब चलीं. दरअसल मुंबई में घरौंदा को ज़्यादा थिएटर्स भी नहीं मिले और फ़िल्म के प्रोड्यूसर एक फ़िल्म जरनल में एक पेज का ऐड देना चाहते थे, वो भी बाद में घट कर एक कॉलम का हो गया. पर बाय वर्ड ऑफ़ माउथ घरौंदा पहले हफ़्ते के अंत तक पिक करने लगी और अच्छी चली. जरीना वहाब इसे अपनी पसंदीदा फ़िल्म बताती हैं. इस फ़िल्म से श्रीराम लागू भी लाइम लाइट में आ गए.
इस फ़िल्म क्यों देखें: ज़बरदस्त ऐक्टिंग, कहानी और ट्रीटमेंट के लिए. फ़िल्म आपको हंसाएगी, गुदगुदाएगी, रुलाएगी भी
कहां देखें: यूट्यूब