ज़िंदगी के पचड़े/ झमेले एक नहीं, अनेक हैं. मैं क्या बताऊंगी, हम सब झेल रहे हैं इस समय. अगर मैं आपसे कहूं कि आंख बंद कर बताएं कि आपकी ज़िंदगी का सबसे अच्छा समय कौन-सा था, तो मुझे उम्मीद है आपमें से कई लोग कहेंगे: कॉलेज लाइफ़. जब हम जवां थे, जवानी जि़ंदाबाद. (पढ़नेवालों में कई अभी भी होंगे, मैं भी हूं). तो जनाब, बचपन में ही मुझे लग गया था कि ज़िंदगी के मजे तो तभी आएंगे जब हम कॉलेज जाएंगे, युवा होंगे, आग अंतर में लिए पागल जवानी टाइप. तो आज जिस फ़िल्म की मैं बात करने जा रही हूं, उसने पहली बार उस समय के युवाओं से मेरा साबका करवाया. मैं बच्ची थी. निहायत. पर पता नहीं क्यों यह फ़िल्म इतनी अच्छी तरह दिमाग़ में छप गई कि सालों इसकी ख़ुशबू में रची-बसी रही. वह फ़िल्म थी ‘मेरे अपने’.
वैसे यह फ़िल्म वर्ष 1971 में आई थी. मैंने शायद एक साल बाद देखी थी भिलाई क्लब में. वहां हर शुक्रवार को ओपन एयर थियेटर में नई-पुरानी फ़िल्में दिखाई जाती थीं. फ़िल्म देखने का लालच तो था ही, क्लब में मिलने वाली वेज कटलेट और प्याज़ की चटनी का आकर्षण भी कम नहीं था. हमने सपरिवार एक से एक फ़िल्में वहां देखीं. मेरे अपने भी उनमें से एक थी.
अब आते हैं फ़िल्म की कहानी पर: विधवा आनंदी देवी (मीना कुमारी) एक गांव में रहती है. एक दिन उनसे मिलने अरुण गुप्ता (रमेश देव) आते हैं यह कह कर कि वो उनकी दूर की रिश्तेदार हैं. वे बहला फुसला कर उन्हें अपने साथ शहर ले जाते हैं. मक़सद है अपने छोटे बेटे की आया बना कर रखना. उनका कोई रिश्ता नहीं था. जब आनंदी को इस बात का पता चलता है, वह घर छोड़ कर बाहर निकलती है. उसकी मुलाक़ात एक नन्हे भिखारी से होती है, जो उसे एक खंडहरनुमा मकान में ले जाता है. अपने अच्छे स्वभाव की वजह से वो आसपास रहने वाले लड़कों की नानी मां बन जाती हैं. वो लड़के हैं, कॉलेज से निकले, नौकरी की तलाश में भटक रहे युवा. आपस में रंजिश है, दोस्ती है, खींचातानी है. उन युवाओं के दो ग्रुप हैं, एक का मुखिया है छेनू (शत्रुघ्न सिन्हा), दूसरे का श्याम (विनोद खन्ना). दोनों के बीच की लड़ाई में बेमौत मारी जाती है आनंदी देवी.
वो डॉयलॉग आज भी मशहूर है-वो आए तो कहना, छेनू आया था… इसके अलावा बेरोज़गार युवाओं का एंथम हालचाल ठीकठाक है, सबकुछ ठीकठाक है, बीए किया है एमए किया, लगता है सबकुछ ऐंवें किया… गाना बेहद लोकप्रिय हुआ. यह गाना पेंटल पर फ़िल्माया गया है, क्योंकि गुलज़ार को उनके चेहरे का एक्सप्रेशन सबसे नैचुरल लगा था. हीरोइन के लिए ख़ास स्कोप नहीं था. पर श्याम की लव इंटरेस्ट बनी थी योगिता बाली, जो बाद में उसे छोड़ कर छेनू के पास चली जाती है. उसके गम में श्याम गाता है: कोई होता, जिसको अपना, हम अपना कहते यारों, पास नहीं तो दूर ही होता, लेकिन कोई मेरा अपना. गुलज़ार मार्का यह गाना आज भी दर्द के दीवानों को ख़ूब रुचता है.
पचास साल बाद भी लगता है जैसे यह फ़िल्म आज भी क़तई प्रासंगिक है. मतलबी लोग, भटकते युवा, बूढ़ों की लाचारी, बेरोज़गारी का दंश, पहचान का संकट, और हां, दो जून की कशमकश.
हालांकि इस फ़िल्म का अंत भावुक कर देता है. पर ऐसे ही किसी रोज़ जब मन चंचल हो रहा हो, कुछ भीगा-भीगा सा देखने का मन हो, तो मेरे अपने ज़रूर देखें. मैंने इस फ़िल्म को बाद में भी देखा है. हर बार मेरे लिए कुछ नया ले कर आती है यह फ़िल्म. आप इसके हर किरदार के साथ जुड़ जाते हैं, चाहें अच्छे हों या बुरे. यही है ज़िंदगी, ज़िंदगी का एक कतरा है मेरे अपने.
फ़िल्म मेरे अपने से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें
मेरे अपने, गुलज़ार के निर्देशन में बनी पहली फ़िल्म है. नैशनल अवॉर्ड विनर बंगाली फ़िल्म अपनजन पर बेस्ड थी यह फ़िल्म. दरअसल बंगाली फ़िल्म के निर्देशक तपन सिन्हा इस फ़िल्म को हिंदी में बनाना चाहते थे. उन्होंने मुंबई से विमल रॉय और हृषिकेश मुखर्जी के सहायक संपूरण सिंह कालरा उर्फ़ गुलज़ार को हिंदी संवाद लिखने के लिए कोलकाता बुलाया. तपन चाहते थे कि स्क्रिप्ट में ज़रा भी तब्दीली ना की जाए. गुलज़ार कुछ नया डालना चाहते थे. जब यह प्रोजेक्ट डिब्बा बंद होने लगा, तो गुलज़ार साहब ने इस फ़िल्म के राइट्स ख़रीद लिए और ख़ुद हिंदी में फ़िल्म बनाने की ठान ली. उन्होंने अपनी फ़िल्म में लगभग सभी नए कलाकार लिए. विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा इससे पहले फ़िल्मों में बतौर खलनायक काम कर चुके थे. गुलज़ार ने उन दोनों को बतौर हीरो लिया. इस फ़िल्म से उन दोनों के सितारे भी बदल गए. डैनी डैंगजोग्पा की यह पहली फ़िल्म थी. उनके साथ भी एक दिलचस्प वाक़या जुड़ा है. डैनी फ़िल्मों में काम करना चाहते थे. उन्हें पता चला कि निर्माता मोहन कुमार को नए चेहरों की तलाश है. वे मुंबई के जुहू में उनके बंगले में पहुंच गए. मोहन कुमार ने जब उन्हें देखा तो हंसते हुए कहा कि तुम ये चेहरा ले कर फ़िल्मों में काम करोगे? तुम्हारे लिए मेरे पास एक काम है. उन्होंने इशारा किया अपने बंगले के सिक्योरिटी गार्ड्स की तरफ़, जो नेपाली थे. डैनी को यह बात दिल में लग गई. मोहन कुमार के बंगले के बगल का प्लॉट ख़ाली था. उन्होंने उसी दिन तय किया कि एक दिन वे ख़ूब पैसा कमाएंगे और इस ख़ाली प्लॉट पर मोहन कुमार के बंगले से भी आलीशान बंगला बनाएंगे. उन्होंने जल्द ही ऐसा किया भी. बंगले का नाम रखा डी’जोंगरिला. इस शानदार बंगले के बगल में मोहन कुमार का बंगला एकदम खंडहर लगता था.
मुद्दे पर आते हैं. गुलज़ार साहब ने नए ऐक्टर्स असरानी, पेंटल, दिनेश ठाकुर आदि को भी काम दिया. फ़िल्म का मुख्य किरदार निभाया था मीना कुमारी ने. फ़िल्म में वो एक बूढ़ी अम्मा बनी थीं. गुलज़ार से उनकी दोस्ती थी, इसलिए बीमार होने के बावजूद वे काम करने को तैयार हो गईं. इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान भी वे बीमार हुईं और उसी साल चल बसीं.
अब इस फ़िल्म से जुड़े कुछ और रोचक ट्रिविया पर बातें करें, तो यह फ़िल्म ठीकठाक चली थी. चालीस दिन में फ़िल्म की शूटिंग पूरी हो गई थी. बाद के सालों में गुलज़ार के असिस्टेंट एन चंद्रा ने लगभग इसी थीम पर अंकुश बनाई और नाना पाटेकर को इंट्रोड्यूस किया. नब्बे के दशक में मंसूर ख़ान ने जोश बनाई. लगभग इसी थीम पर. शाहरुख खान ने उस फ़िल्म में काम किया था. मेरे अपने नाम से 1993 में महेश भट्ट एक फ़िल्म बनाने जा रहे थे, नसीरुद्दीन शाह, पूजा भट्ट और अक्षय कुमार के साथ, जो बाद में डिब्बा बंद हो गई.
क्यों देखें: पचास साल पहले के युवाओं को इस तरह समझें. वैसे ज़्यादा फ़र्क नहीं आया है. गुलज़ार की पहली फ़िल्म भी एक वजह हो सकती है.
कहां देखें: यू ट्यूब पर