भारत ही नहीं, विश्व सिनेमा में ऐसी फ़िल्मों की संख्या कम नहीं है, जो अपने रिलीज़ के वक़्त न तो फ़िल्मी पंडितों को उतना लुभा पाती हैं, न ही दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने में सफल होती हैं. पर कुछ वक़्त बाद जब वो दोबारा देखी जाती हैं, तो वही गुमनाम फ़िल्में दर्शकों और समीक्षकों द्वारा बार-बार सराही जाती हैं. ऐसी ही फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त में शामिल है वर्ष 2008 में आई निशिकांत कामत की मुंबई मेरी जान.
फ़िल्म: मुंबई मेरी जान
निर्माता: रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक: निशिकांत कामत
कलाकार: परेश रावल, केके मेनन, इरफ़ान ख़ान, आर माधवन, सोहा अली खान, आनंद गोराडिया, विजय मौर्या और अन्य
हम वर्ष 2022 में हैं और अब तक हमने दुनियाभर में तमाम आंशिक युद्ध देखे, विध्वंस देखा. हमारे निकटवर्ती पूर्वजों ने दो विश्व युद्ध देखे, मानव जाति को लगभग मिटाने वाले परमाणु बम का आतंक देखा और उस दुःख को महसूस भी किया. उनकी ही तरह हम भी धार्मिक उन्माद के नाम से मरने-मिटने वाले लोगों के वहम और पागलपन के साक्षी हैं. युद्ध और उन्माद के चलते डरावनी बनती जा रही दुनिया की सारी उम्मीद कला पर आ ठहरती है. सिनेमा से अधिक प्रभावशाली कला का माध्यम इस दौर में शायद ही कोई और हो. जहां इस वर्ष कश्मीर फ़ाइल्स नामक एक फ़िल्म ने समाज में पहले से मौजूद दरारों को चौड़ा करने काम किया है. कुछ ऐसी भी फ़िल्में हैं, जो सौहार्द और भाईचारा की भावना को बढ़ाने का काम करती हैं. वर्ष 2008 की फ़िल्म मुंबई मेरी जान सिनेमा का एक ऐसा ही कतरा है. मजहब के नाम पर बढ़ती ग़लतफ़हमी और नफ़रत के दौर में यह फ़िल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए.
वर्ष 2006 के मुंबई लोकल ट्रेन सीरियल बम ब्लास्ट की कहानी पर आधारित निशिकांत कामत की फ़िल्म मुंबई मेरी जान वर्ष 2008 में रिलीज़ हुई थी. फ़िल्म ने बहुत सारे अवॉर्ड जीते परंतु बॉक्स ऑफ़िस पर अच्छा बिज़नेस नहीं कर पाई. इस फ़िल्म में पांच कहानियां समानांतर चलती हैं, जिसके माध्यम से निशिकांत कामत ने बताने की कोशिश की है कि किसी शहर में होने वाले बम ब्लास्ट जैसी जघन्य घटना का उसके लोगों पर क्या प्रभाव होता है. आम लोग कैसे रिऐक्ट करते हैं. मुंबई मेरी जान उन बिरला फ़िल्मों में है, जिसमें आप उसके किरदारों की अदाकारी के साथ-साथ फ़िल्म के मैसेज को भी उतना ही ज़्यादा महत्तव देते हैं. ऐसी फ़िल्मों की बदक़िस्मती ही कहिए कि बिज़नेस के तौर पर वो हमेशा अच्छा नही कर पातीं. फ़िल्म मुंबई मेरी जान शुरुआत से लेकर अंत तक आपको कहानी में बनाए रखती है.
वैसे तो फ़िल्म की कहानी मुंबई के जनजीवन पर आधारित है. लेकिन जब आप फ़िल्म देखना शुरू करेंगे तब आपको पूरा हिंदुस्तान नज़र आएगा. तुकाराम पाटिल (परेश रावल) और सुनील कदम (विजय मौर्य) ने पुलिसकर्मी की भूमिका में बेहतरीन काम किया है. इनकी कहानी लगभग एकसाथ चलती है. तुकाराम पाटिल जब भी पर्दे पर आते हैं आपको उन्हें सुनना अच्छा लगता है. तुकाराम हर बार अपने अनुभव और मुंबई में जी अपनी ज़िंदगी की बात करते हैं, बताते हैं कि मुंबई पहले ऐसी नहीं थी. मुंबई में कभी भी इतनी असुरक्षा महसूस नहीं हुई. ब्लास्ट के बाद की उनकी सोच और डर. बतौर पुलिस कॉन्स्टेबल सुनील कदम का आत्मग्लानि वाला किरदार आपको सोचने पर मजबूर कर देता है कि किसी भी शहर के पुलिसकर्मी हमारे और आपकी तरह ही आम आदमी हैं और वो वाक़ई समाज के लिए अच्छा सोचते हैं. सुनील कदम का तुकाराम से बार-बार एक ही सवाल करना की पाटिल साहब (परेश रावल) हम लोग अभी तक बम ब्लास्ट के सारे आरोपियों को क्यों नहीं पकड़ पाए? आपको बताता है कि हमारी सुरक्षा के लिए पुलिस कभी-कभी चाह कर भी हमारे लिए ज़्यादा कुछ नहीं कर पाती. तुकाराम (परेश रावल) का अपने रिटायरमेंट के दिन का आत्मग्लानि वाले भाव के साथ भाषण और सस्पेंडेड साथी सुनील कदम (विजय मौर्य) को झूठा भरोसा देना आपकी आंखों में आंसू ला देगा.
इस फ़िल्म की दूसरी कहानी है रूपाली जोशी (सोहा अली ख़ान) की, जो प्रसिद्ध जर्नलिस्ट है और दो महीने में उसकी शादी होनेवाली है. अपने मंगेतर के साथ उनकी ज़िंदगी अच्छी चल रही होती है. रूपाली अपने मंगेतर के साथ शादी की प्लानिंग कर रही होती है और बम ब्लास्ट में उसके मंगेतर की मौत हो जाती है. इसके बाद रूपाली की ज़िंदगी बदल जाती है. रूपाली बहुत दिन तक ट्रॉमा में अपने दिन बिताती है. परंतु उसका न्यूज़ चैनल उसे ऐसे माहौल में भी अकेले नहीं छोड़ता है. रूपाली को फिर से ऑन एअर लाने की कोशिश करता है, जिससे उनका बिज़नेस टीआरपी बढ़ जाए. बहुत कोशिश के बावजूद रूपाली टीवी चैनल पर कुछ नहीं बोल पाती और उनका चैनल ऐसे में भी उसके मौजूदा हाल का फ़ायदा उठा लेता है. रूपाली फ़िल्म के आख़िर तक अकेले संघर्ष करती नज़र आती है.
तीसरी कहानी है थॉमस (इरफ़ान खान) की, जो मुंबई शहर के ग़रीब इलाक़े से आता है. थॉमस रात के वक़्त अपनी साइकल पर कॉफ़ी बेचता है. ग़रीबी-अमीरी के बीच अपने आप को समाज में छोटा महसूस करने के कारण उसकी मानसिक स्थिति के साथ उसका ग़ुस्सा बाहर आता है. शहर के अलग-अलग मॉल में जाकर बम होने की धमकी देने के बाद होनेवाली घटना के कारण एक वृद्घ शख़्स को ज़्यादा नुक़सान होने के बाद उस वृद्ध व्यक्ति के प्रति थॉमस की संवेदना और हृदय परिवर्तन आपको इरफ़ान की ऐक्टिंग का लोहा मानने को मजबूर करता है. छोटी-सी कहानी में भी इरफ़ान अपनी अदाकारी की छाप छोड़ते नज़र आते हैं.
पर्यावरण प्रेमी निखिल अग्रवाल (आर माधवन) सभी को वातावरण को प्रदूषण मुक्त रहने का उपाय बताता है. विदेश में नौकरी करने के विकल्प होते हुए भी मुंबई में रहने और नौकरी करने को प्राथमिकता देता है, जिसके कारण बहुत बार उसके दोस्तों से उसकी बहस हो जाती है. बम विस्फोट के दिन संयोग से वो दूसरे दर्जे में यात्रा कर रहा होता है और उसकी जान बच जाती है. बम विस्फोट की घटना के बाद लोकल ट्रेन से यात्रा करने की निखिल की मानसिक स्थिति का दर्द हर बार माधवन के किरदार में झलकता है.
बेरोज़गार कम्प्यूटर इंजीनियर सुरेश (केके मेनन) ऐसा व्यक्ति है, जो बम ब्लास्ट के बाद धर्म को लेकर ज़्यादा कट्टर हो जाता है. लगभग हर मुस्लिम व्यक्ति को संदेह की नज़र से देखता है. क़र्ज़ में डूबा सुरेश दिनभर एक होटल में बैठा रहता है, जिसका मालिक एक मुसलमान व्यक्ति है. सुरेश को कुछ मुस्लिम लड़कों पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने का संदेह होता है. सुरेश अपने दोस्तों के साथ उनका पीछा करता है और पता करने की कोशिश करता है आख़िर में वो लोग कौन हैं. सुरेश आख़िर में पीछा करते हुए उन लड़कों के घर तक पहुंच जाता है लेकिन वहां भी कोई जानकारी हाथ नहीं लगती. पीछा करते हुए सुरेश एक दिन बाबा हाजी अली के दरगाह तक पहुंच जाता है. दरगाह पर उसकी मुलाक़ात उसके पुराने मुस्लिम मित्र से होती है, जो उसे अपने कम्पनी में कम्प्यूटर ख़रीदने का ऑफ़र देता है. सुरेश उसे ज़्यादा सीरियस्ली नहीं लेता, लेकिन यही वो मुलाक़ात है, जहां से सुरेश की ज़िंदगी बदल जाती है और सुरेश को काम मिल जाता है.
फ़िल्म का क्लाइमैक्स इतना अच्छा है की फ़िल्म ख़त्म होते-होते आप ख़ुद की थोड़ा बदला हुआ महसूस करेंगे. फ़िल्म के आख़िरी में जब सुरेश को पता चलता है कि जिन लड़कों को वो आतंकवादी समझ रहा था, वो दरसल शिर्डी के साई बाबा का दर्शन करने गए थे. और वहीं मुस्लिम लड़के सुरेश को बाबा का प्रसाद देते हुए चाय भी पिलाते हैं और कहते हैं कि शिर्डी गए थे. जब बाबा का बुलावा आता है तो जाना पड़ता है. निखिल की पत्नी हॉस्पिटल में लेबर वॉर्ड में एडमिट है, उसकी डिलीवरी होने वाला है. निखिल दुखी मन से जल्दी जाने के लिए लोकल ट्रेन में चढ़ जाता है. थॉमस (इरफ़ान खान) रोज़ की तरह अपनी साइकल से जा रहा होता है. सुनील कदम अपने ड्यूटी पर होते हैं और रूपाली दुखी मन से बाहर निकलती है. फ़िल्म धमाकों में मारे गए लोगों को सच्ची श्रद्धांजलि तब देती है, जब क्लाइमैक्स में दो मिनट के मौन के तौर पर सब कुछ रुक जाता है. निखिल ट्रेन के अचानक रुक जाने पर डरा हुए पूछता है कि क्या हुआ? और उसके बाद उसकी आंखों में आंसू छलक जाते हैं. थॉमस को सुनील कदम रोकते हैं, उनकी साइकल पकड़ कर रुकने के लिए कहते हैं, थामस कहता है, मैंने कुछ नहीं किया. होटल के अंदर मौन के वक़्त सुरेश मुस्लिम लड़कों को झुकी हुई नज़रों में देखता है और रूपाली दुनिया से नज़र बचाती नज़र आती है. बैक्ग्राउंड में गाना बजता है ‘ऐ दिल है मुश्क़िल जीना यहां, ज़रा हट के ज़रा बच के ये है मुंबई मेरी जान’ मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में यह गीत ख़त्म होते हुए फ़िल्म को लाइट मोड पर छोड़ जाता है.
आज के हिंदुस्तान में अगर आप हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दों से परेशान हो चुके हैं और आपको लगता है हमारा सामाजिक सौहार्द ख़तरे में है तो आपको मुंबई मेरी जान अवश्य देखनी चाहिए, ताकि आप लोगों को बता सकें कि जब तक आप कुछ नया नहीं सोचते धर्म के नाम पर एक-दूसरे को धक्का देने का चैन कभी नहीं टूटेगा.