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Home ज़रूर पढ़ें

रौशनी की अमरबेल- शर्मिला चौहान की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 27, 2022
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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चाहे हमने सारा जीवन किसी के दबाव में जिया हो और उससे परे कुछ न सोचा हो तब भी कई बार ऐसा होता है कि अचानक एक हल्की सी रौशनी किसी अमरबेल की तरह हमारे भीतर चली आती है और हमारे भीतर सोई अच्छाई को चुपके से जगा देती है. यही बात कहती है यह कहानी भी.

“क्या हुआ संतो, थोड़ी देर सहन कर ले. अस्पताल पहुंच ही जाएंगे,” ट्रैक्टर में लेटी, कराहती बीबी को सुजान सिंह ने हिम्मत बंधाई.

“चिन्नी के बापू, अब सहा नहीं जाता. इस बार रब की मेहर बरस जाए. तीन-तीन लड़कियों के बाद तो अब लड़का दे दे,.” संतो की आंखें लड़के की आस से चमक रहीं थीं.

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“बीजी, शांत रहो.‌ अपनी तबियत संभालो, अस्पताल आ ही गया अभी,” संतो की जवान होती बेटी बिन्नी ने मां दिलासा दिया.

संतो कभी इन बच्चियों को प्रेम ना कर पाई. सास का डर उसके और उसकी बेटियों के बीच दीवार बन खड़ा हो जाता. संतो की सास के आंखों में लड़कियां खटकतीं थीं. बचपन में ही संतो की बेटियों ने बड़प्पन ओढ़ लिया था. अपनी दादी की आवाज़ सुनकर ही वो इधर-उधर घुस जाया करतीं थीं.

बेबे थी भी जबरदस्त, ऊंची कद काठी, चौड़े कंधे, सलवट पड़ा माथा, आंखें जैसे आरपार कर निकल जाएं. आज भी उम्र के इस पड़ाव पर साठ पार होने के बाद भी उतनी ही दबंग आवाज़ है बेबे की. संतो के साथ तो शुरुआत में बड़ी अच्छी रही थीं उसकी सास. त्यौहार पर नई सलवार कमीज़ सिलवाती थीं.

“संतो, तेरे अच्छा माप दे, मैं जाती हूं उस टेलर मास्टर की दुकान. जवान लड़कियों, औरतों को तो ख़ूब घूरा करे है नासपीटा.” अब दो-तीन सलवार कमीज़ एक ही डिजाइन के बनवा दिए थे साल भर में बेबे ने.

सालभर बाद, अचानक एक सुबह नींद खुली और संतो का सिर घूमने लगा. वापस मुंह लपेटकर बिस्तर पर पड़ गई.

“आज क्या चाय मैं बनाकर लाऊं मेम साब? देखो ज़रा मिज़ाज… कैसा ज़माना आ गया है!” बेबे की तेज़ आवाज़ से संतो उठकर बरामदे तक आई और चकरा कर गिर पड़ी.

“अरे ओ सुजान, ओ सुजाना! रब ने मेरी सुन ली पुत्तर, तू बाप बनने वाला है. मेरी गोद में तेरा पुत्तर खेलेगा.” बेबे की आवाज़ दीवारों को फांदकर गलियों में गूंजने लगी.

हल्के से झटके के साथ टैक्टर सड़क के मोड़ के साथ ही मुड़ता चला गया.
“जरा आहिस्ते चलो चिन्नी के बापू, जान ही निकल जाएगी.”
संतो की आंखों में दर्द लहरा गया.

“रोड तो सारी ख़राब हुई पड़ीं हैं, गड्ढे इतने कि सचमुच जान निकाल लें. गए साल ही बनी थी रोड, इस साल देखो हालत कैसी खस्ता है,” यह कहते हुए सुजान ने एक दो गालियां भी दीं, लेकिन बेटी बिन्नी के चेहरे पर तनाव देखकर अगली गाली मन में ही दे डाली.

“कुड़ियां ही कुड़ियां बख्शते थक नहीं रहा भगवान. अब तो संतो हिम्मत हार गई है. एक मुंडा दे दे, बेबे की आत्मा तृप्त हो जाएगी.” मन ही मन बड़बड़ाता सुजान बेसुध सी पड़ी अपनी घरवाली को देखने लगा.

“मेरे को भर्ती करके तुम दोनों वापस घर चले जाना. बेबे उन दोनों लड़कियों को संभाल नहीं सकेगी, ” संतो की कमज़ोर पड़ती आवाज़ थी.

“बीजी, मैंने उन दोनों के पास बिस्कुट के पैकेट रखवा दिए थे. बेबे से कुछ ना मांगेंगी वो,” बेबे के प्रति तटस्थ स्वर से बिन्नी बोल गई.
“अच्छा किया,” कहते हुए संतो ने पलकें बंद कर लीं.

ऐसे ही पहली बार डिलवरी के लिए जब शहर के अस्पताल गए थे तो साथ बेबे, मोंगा बुआ और गांव के दो-चार लोगों को समेट ले गई थीं.

अभी भी सिहर जाती है संतो कि जब नाल कटने के बाद इस गोरी चिट्टी, गोल मटोल बिन्नी को नर्स ने बेबे की गोद में डाला था तो चिल्ला पड़ी थी बेबे‌, “हटा मेरी गोद से. इसके लिए तेरी जतन की थी नौ महीने जो लड़की जनी.”
बिन्नी को झटके से नर्स के हाथों में थमा बेबे बस से वापस घर लौट गई थी .

बिन्नी के तीन साल बाद मान, और मान के चार साल बाद चिन्नी. अब तो बेबे ज़िद करके बैठ गई, “अब जब तक मुंडा ना जनेगी तू, मैं मरने वाली नहीं. मेरे बाद इस सुजान का वंश कौन चलाएगा? ये कुड़ियां? हाय-हाय! करमजली सबकी सब इसी घर में आ मरीं.”
बेबे की ये बातें अब बिन्नी बख़ूबी समझ लेती.

अमरबेल की तरह ये लड़कियां पनपने लगीं. बिना किसी जतन, बिना किसी प्रेम के सिर्फ लड़कियां ही पनप सकतीं हैं, अमरबेल की तरह. ना माटी में घुसी जड़ें, ना खाद पानी का ख़र्च. बस पड़ गईं जिस आंगन तो चढ़ जाती हैं. हल्की वासंती रूप-रंग की, कोमल काया वाली अमरबेल ही तो हैं ये लड़कियां. जब किसी को ज़रूरत पड़ी, तोड़कर पास रख लिया. कहते हैं कि पीले पड़े शरीर का दुख हर लेती हैं अमरबेल और ख़ुद पीली पड़ जाती हैं. लाख हटाओ, फिर उग आतीं हैं. ये जिनसे लिपटती हैं साथ निभा लेतीं हैं. साथ ही तो निभा रहीं हैं उसकी बेटियां, हज़ार बातें सुनकर फिर आपस में खिलखिलाने लगतीं हैं.

“अबके पांच साल बाद फिर पैर भारी हैं तेरे, इतने सालों में तो घूरे के दिन भी पलट जाएं,” महीना चढ़ते ही बेबे ने वार कर दिया.

“गांव भर की तेरे साथ वालियों को तीन-तीन, चार -चार बच्चे हो भी गए और बढ़ भी गए. हमारी किस्मत खोटी, तीन-तीन, चार-चार साल तेरी कोख बीज ही ना लेती. चल रही आराम से, कुड़ियों के व्याह बाद भी ये जनती रहेगी.” बेबे को लड़का भी चाहिए, अपने समय के अनुसार भी चाहिए संतो ने तो अपने मुंह पर ताला लगा लिया था.

गांव की लड़कियों में बिन्नी जैसी सुंदर कोई नहीं. बारह साल की कुड़ी, देखने दिखाने में पंद्रह सोलह की लगे. बेबे ने तो घर की भैंस का दूध भी लड़कियों को कभी पीने ना दिया. चंदी बंधी थी, ये लड़कियां दूध पहुंचा आती.

“बीजी, सब लोग दूध रोटी खाते हैं हमको कभी नहीं देतीं,” दुबली पतली मान ने पूछा था.
“हां तो! तुम लोगों को दूध घी खिला कर मुझे पुण्य नहीं कमाना,” कहती हुई एक बड़ा ग्लास भर के सुजान को थमा देतीं. और मजाल कि बेटा अपने ग्लास से अपनी बेटियों को पिला दे.

“संतो उठ, चल उतर जा,” ट्रैक्टर अस्पताल में दाख़िल करते हुए सुजान ने कहा.

व्हील चेयर पर बिठाकर वार्ड बॉय संतो को अंदर ले गया. कुछ कागज़ी कार्रवाई के बाद संतो को पलंग मिल गया.

सुजान अपना ट्रैक्टर ठीक लगाने बाहर चला गया और संतो दीवार पर लगी फ़ोटो को हाथ जोड़ने लगी.
“रब्बा ख़ैर करना, इस बार बेबे से हार जाना. तुम्हारी लड़ाई अब नहीं झेल सकूंगी मालिक…” भीगी पलकों को चुन्नी के किनारे से पोंछ लिया संतो ने.

“ओह… आह! मर गई मैं तो, हे भगवान रहम करना.” दो बिस्तर के बाद वाले पलंग पर पड़ी जनानी की आवाज़ से संतो के कान खड़े हो गए.
अब तक सुजान भी आ गया था.
“मालिक, जो भी दे सब तेरी मेहर. लड़की हो चाहे लड़का हो, बस औलाद है हमारी. मेरी भागो की गोद हरी है जाए, कितने सालों की मन्नतों बाद ख़ुशनसीबी आई है, बस पार लगा दे मालिक.” उस औरत का घरवाला, उसके हाथ मलता फ़ोटो की ओर देखकर दुआ मांग रहा था.

“लड़का हो लड़की हो, सब तेरी मेहर है मालिक. सब में तू ही समाया है, औलाद की भीख दे दे. हम दोनों बरसों से झोली फैलाए हैं…” उसकी आवाज़ संतो के कानों से उतरकर दिल में हलचल मचाने लगी.

“ईश्वर ने हम दोनों को तीन-तीन बार अपनी नेमत से बख्शा, घर में रौनक करवा दी परंतु बेबे के साथ हम दोनों की आंखों में पट्टी बंधी थी. इन हंसती मुस्कुराती लड़कियों से कभी हमने प्रेम नहीं किया और जिसका कहीं नामोनिशान नहीं उस लड़के का इंतज़ार कर रहे हैं.” संतो के मन पर जमी बर्फ़ पिघलने लगी.

ममता की आंच ने ख़ौफ़ और सोच की जमी बर्फ़ को पिघलाना शुरू कर दिया था. संतो ने बाजू की बैंच पर बैठी बिन्नी को देखा, भूरे लंबे बालों को कसकर रिबन से बांध रखा था. उसकी बेबे की तरह हठीले, कुछ दबंग बाल फिर भी चेहरे से लिपटने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे थे.

अपने गोरी पतली अंगुलियों से बिन्नी उन्हें हटाकर पीछे ले जाती. वह आंखें बंद करके कुछ बुदबुदा रही थी.

“क्या बोल रही है बेटा?” संतो ने प्यार से पूछा.

अपनी बीजी के मुख से पहली बार इतने प्यार भरे लहजे़ से बिन्नी अचकचा गई. कुछ देर शून्य में घूरती रही फिर हाथ जोड़ लिए.

संतो ने उसे अपने पास बुलाया और उसके बालों में उंगलियां फेरने लगी.
“मैं तो भगवान जी से भाई मांग रहीं हूं बीजी. भाई होगा तो बेबे खुश रहेगी, तू और बापू भी. हम तीनों को फिर बेबे ज़्यादा गालियां न देगी.” उसकी आंखों में एक दृढ़ विश्वास चमक रहा था, “अबकी लड़का हो गया तो तू मरेगी नहीं बीजी, जिंदा रहेगी. वरना तेरी हालत कितनी ख़राब हो गई है.” हल्की सी भूरी पुतलियां है बिन्नी की, कभी ग़ौर से, प्यार से निहारा ही नहीं था संतो ने.

भूरी पुतलियों से खारा पानी रिसने लगा. लगा सारी धरती जलमग्न हो रही है. सैलाब में एक पूरी ज़मीन तैर रही है. संतो ने बिन्नी को छाती से लगा लिया. कहने को ही वो तीन बच्चियों की मां थी, पर यूं लगा जैसे छाती से धार पहली बार फूटने को आकुल है.

रौशनदान से झांकती सूरज की कुछ किरणों ने पलंग के आसपास अपना वृत्त बना लिया. बिन्नी के भूरे बाल किरणों के सान्निध्य में और चमकदार लगने लगे.
“मेरी भूरी कुड़ी.” कहते संतो ने बिन्नी के गाल चूम लिए.
अब संतो को किसी भी प्रकार की पीड़ा का आभास नहीं हो रहा था. मन में बैठी बुराई का प्रसव हो चुका था और गर्भ की संतान अब सिर्फ़ उसका और सुजान का बच्चा है, जिसका लिंग उसके लिए अब कोई मायने नहीं रखता था.

पलंग से कुछ दूरी पर खड़ा सुजान बिन्नी को देखकर मुस्कुराने लगा. हाथ जोड़ लिए फ़ोटो वाले भगवान जी के सामने नहीं, अपनी बेटी के सामने जिसे कभी बच्चा समझा ही नहीं था उसने.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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