हिंदी-डोंगरी की लेखिका पद्मा सचदेव द्वारा विभाजन की त्रासदी को बयां करती एक कहानी. दो सहेलियों के अलग-अलग मुल्क़ों में जाने, बाद में सरहद के पास के एक कुएं पर मिलने के बाद के दशकों के दर्द में पकी हुई कहानी है.
कुआं अभी-अभी पाट दिया गया है. यह समाचार गांव में फैलते देर नहीं लगी. अभी कुएं में डाली गई मिट्टी एकदम पोली थी. कहीं-कहीं पानी ऊपर उछलकर मिट्टी को गीला भी कर गया था. आखिर कुएं का पानी सारा गांव पीता था; थोड़ी सी छटपटाहट तो उसे होनी ही थी. गधे अपनी पीठ पर मिट्टी से लदे हुए बोरे अभी-अभी डालकर गए थे. कुएं में मिट्टी तब तक डाली जाती रहेगी, जब तक उसका नामोनिशान नहीं मिट जाता.
कुएं के किनारे लगा मेहंदी का बड़ा सा बूटा अपनी शाखाएं फैलाए डटा हुआ था. दोनों तरफ से औरतें उसकी पत्तियां लेने आती थीं. कुएं के बंद होते ही दोनों तरफ की औरतों की जबान पर ताले लग गए थे. जिन औरतों को कुएं के पटने का पता नहीं था, वे अपने सिरों पर घड़े, गगरियां, रस्सी, बालटी लटकाए स्तब्ध खड़ी थीं. किसी की बगल में बच्चा था, सिर पर बटलोई, कंधे पर रस्सी; किसी के हाथ में आसपास से तोड़ा गया सागर, किसी की उंगली से लगी आंखों में प्रश्न लिये कोई कन्या. दोनों तरफ जुबानों पर ताले लग गए थे. आंखें मुखरित हो गई थीं. कभी दूर से धड़ाम-धड़ाम गोलों के फटने की आवाज आती; इसे सुनकर कोई भी नहीं डरता था. गोला पाकिस्तान का है या हिंदोस्तान का, ये जान पाना मुश्किल था. तभी गेंद खेलते बच्चे की गेंद कुएं की मिट्टी पर गिरी. लड़का गेंद उठाकर भागने लगा तो गीली मिट्टी से पांव रपट गया. उसकी मां वहीं खड़ी थी. बच्चे को उठाते हुए उसने दो धौल उसकी पीठ पर जमाकर कहा, ”मुए, वहां पाकिस्तान की तरफ क्या लेने गया था?”
बच्चा हैरान हो गया. यह तो कुआं था, पाकिस्तान बीच में कहां से आ गया. कल तक तो सब यहीं पानी भरती थीं. आज कुआं ही पाट दिया, वह भी मिट्टी के साथ. मां ने उसे बांह से पकड़कर हिंदोस्तान की तरफ धकेल दिया. औरतें कुएं की तरफ एक हसरत भरी नजर डालकर अपने-अपने घरों को चली गई. बेरी के दरख्त के नीचे बैठी सोमा को किसी ने अपने साथ आने को नहीं कहा. हो सकता है, उसे किसी ने देखा भी न हो. सोमा घर से एक बड़ी बटलोई लाकर कुएं की जगत पर रख देती. गांव की कोई भी बहू-बेटी उसकी बटलोई भरकर उसके घर छोड़ आती थी. जिस बेरी के नीचे सोमा बैठती, वह उगी तो हिंदोस्तान की सरज़मी पर थी, पर उसकी टहनियां पाकिस्तान पर बिछी जातो थीं. जब बेरी फलों से लद जाती तो दोनों मुल्कों के बच्चे अपनी-अपनी तरफ के बेर खा लेते. तोते भी इस बात का ध्यान रखते थे. बेरी हर बरस जवान होती थी, पर सोमा अब हर बरस बुढ़ा रही थी. इसी बेरी के नीचे दो बैठने लायक पत्थर थे: एक हिंदोस्तान की तरफ, एक पाकिस्तान की तरफ. यहीं बैठकर रज्जो यानी रजिया और सोमा घंटों बातें किया करती थीं. यह नियम पिछले पचास सालों से चला आ रहा था. सोमा ने अपनी छड़ी से धूल में हिलते हुए कीड़े को टटोला. छड़ी लगते ही वह कीड़ा पाकिस्तान की तरफ भागा. सोमा चिंतित हो उठी, कहीं यह मुआ रज्जो के घर न चला जाए, लगता तो सांप ही का बच्चा है. आज पहली बार नियम टूटा है. उसके मुए मर्द ने न आने दिया होगा. मर्दों की कौम होती ही दिल की काली है. सोमा वहीं बैठी रही अकेली. उसे मिलिटरीवाले भी एक पिल्लर से ज्यादा न समझते थे. उसका दिल कांप रहा था. आंखें दूर पगडंडी पर लगी थीं, जहां से रज्जो सिर पर घड़ा रखे या कभी सिर्फ पोते को उंगली से लगाए आया करती थी. नहीं, आज रज्जो नहीं आएगी. मरे कमीनी, मुझे क्या. उसने आंखें बंद कीं. रील घूमने लगी.
सोमा का रंग तब ऊंची उठती आग जैसा था. इस मैंदे सिंदूर को अपनी पतली सी ओढ़नी में छुपाए वह कुहनी के सहारे लेटी-लेटी पता नहीं क्या सोच रही थी. शायद इस बारे में, जब भागती भीड़ का रेला उसे अकेली छोड़ गया था. भीड़ में गिरी तो उसे पता नहीं किसने घसीटकर कोने में उगी घास के एक टुकड़े पर लिटा दिया था. उसे जब होश आया तो वह इस कैंप में थी. यहीं उसे रजिया भी मिली थी. कई औरतें थीं, जो अपने-अपने रिश्तेदारों का इंतजार कर रही थीं, पर कोई नहीं आया था. पता नहीं कोई बचा भी या नहीं. तभी भागकर आती रजिया ने उसके मुंह पर चूल्हे की राख मलकर उसे काला कर दिया था.
“क्या कर रही हो रज्जो?’’
“चुप करके लेटी रह! ऐसा दमकता मुंह क्या अंधेरे में भी किसी की नजर से बच सकता है!” वह कुछ और कहे, उसके पहले ही धड़-धड़ करते हुए लोग कैंप में घुस आए थे. वे सबके मुंह पर टॉर्च की रोशनी डालते. जो भी मुंह दमकता, उसे उठाकर दीवार के सहारे खड़ा कर देते. सात-आठ औरतों को वे साथ ले गए. सुबह रात-भर जलती लालटेन की तरह धुआंई हुई ये औरतें लौटकर वहीं आ जातीं. मुरदों में मुरदा. फिर एक दिन कई ट्रक आकर अपनी- अपनी मिल्कियत संभाले हिंदोस्तान व पाकिस्तान को रवाना हो गए.
रजिया इस गांव के कैंप में आई तो उसे पता चल गया था कि उसके घर का कोई नहीं बचा है. यह कैंप सरहद के पास था. वहीं एक जुलाहे के साथ उसका निकाह कर दिया गया. जुलाहा खासी उम्र का था, पर कुंआरा था. उसने निकाह की सारी उम्मीदें छोड़ दी थीं, पर भला हो बंटवारे का, कुंआरा मरने से बच गया. उसने रजिया को बड़ी इज्जत से स्वीकार किया.
सोमा का ब्याह भी सरहद के पार एक रंडुजे दरजी से हो गया. उसके घर के किसी भी व्यक्ति के जिंदा होने की ख़बर न थी. दरजी को घर से खाना खाने के सिवा कोई मतलब न था. उसका कहना था, मेरा वंश चलना चाहिए. वंश चलाने के लिए सोमा बुरी न थी. उसने चार बेटों को जन्म दिया. दरजी ने सोचा, चार मशीनें खरीद दूंगा सालों को. दुकान चमकने लगेगी. पट्ठे मुझ पर ही तो जाएंगे. जरा सी हंसी सोमा. कैसे-कैसे पाले हैं ये मैंने, पर बाप तो वही है. नई-नई शादी हुई थी तो कितनी रीझ करता था.
“सोमा, दिन के उजाले में कुएं पर न जाया करो, लोग तुम्हें देखकर नजर लगा देंगे.’’ सोमा सुबह तारों की रोशनी में उठकर कुएं पर नहाती और पानी भर लाती. कपड़े धोने दरजी का चेला जाता था. चलो, ये तो आराम ही है, सोमा को कोई एतराज न होता.
एक दिन मुंहअंधेरे नहाकर जब घर पर पानी ले जाने के लिए उसने गागर कुएं में डाली तो दूसरी तरफ से भी एक बरतन कुएं में जा गिरा. सोमा का दिल धक्क से रह गया. इतने अंधेरे में न आना चाहिए. उसने कड़ककर पूछा, “इतनी सुबह पानी भरने आई हो, कौन हो तुम? ” सोमा ने देख लिया. हां, कोई औरत ही है. घड़ा जहां था, वहीं रुक गया. ऊपर खींचकर उसने जमीन पर रखा और भागकर सोमा के गले लग गई. तब सरहद पर बत्तियां न थीं.
उस औरत ने रोते-रोते कहा, ”मैं हूं तुम्हारी रज्जो. डेढ़ महीना उस कैंप में थी. कभी सोचा भी न था, फिर तुम्हें देखूंगी सोमा! नसीब हमें फिर एक जगह ले आया है. मैं सामनेवाले गांव में हूं. इस कुएं का पानी बड़ा मीठा है. कभी-कभी यहां पानी भरने आती हूं, पर तुम्हें तो कभी नहीं देखा!’’
“मेरा दरजी उजाले में बाहर नहीं निकलने देता. मुझे नजर लग जाएगी न! रज्जो, उस दिन मेरे चेहरे पर तुमने राख न मल दी होती तो पता नहीं ये मुंह कहां-कहां काला होता. हां रज्जो, मुंह सिर्फ औरत का काला होता हैं. चलो जाने दो, बड़ा शुक्र है ऊपरवाले का. कैंप में तो लगता था सारी जिंदगी वहीं बीत जाएगी.’’
“चलो भूल जाओ उन बातों को. कितना अच्छा है मेरा आदमी दरजी और तुम्हारा जुलाहा. एक कपड़ा बुनेगा, दूसरा सिएगा.’’
दोनों खिलखिलाकर हंस पड़ीं. जवान हंसी पर सुबह उठने की कोशिश करते पर्रिदे हड़बड़ी में भागे.
‘‘रज्जो, वादा करो, रोज आओगी. यहीं बैठकर बातें करेंगे. एक पत्थर बेरी के नीचे पड़ा है. तुम भी एक पत्थर पास में ले आओ. ठीक है.’’
“हां सोमा, जिंदगी एक दरजी और जुलाहे के साथ निभ तो सकती है, काटनी मुश्किल है. सुबह खड्डी पर बैठता है तो दिन में खाना खाकर फिर बैठ जाता है. बात करने को तरस जाती हूं.
‘‘चलो रज्जो, अब हम इसी बेरी के नीचे बातें किया करेंगे.”
ज्यों-ज्यों बेरी का दरख्त बड़ा होने लगा, सब इस कुएं को बेरी का कुआं कहते. सबसे ज्यादा रौनक सुबह और शाम को ही लगती. सुबह दोनों तरफ की औरतें बेरी की टहनियों पर दुपट्टा डालकर नहा लेतीं, एक-दूसरी से चुहलें करतीं. अगर कोई पानी भरने लगती तो वह छपाछप सारे बरतन भर डालती. देखा-देखी दूसरी ओर भी यही होता. होड़ सी लग जाती, पहले कौन सारे बरतन भर लेगी. बरतन भरते रहते, कुआं खाली होता रहता. कुंआरी लड़कियां कपड़ा बदन पर रखकर मल-मलकर नहाती और बहुएं परदे की ओट में. सबको पवित्र करता कुआं.
रजिया ने सोमा को बताया था, “’मेरा मर्द जुलाहा है. जमीं ढेरी भी है, अच्छी गुजर हो जाती है. उम्र तो खासी है, पर खटता बहुत है. देखने में भी बुरा नहीं है.”
सोमा ने कहा, “अरे, मेरे दरजी को तो सब छैला कहते हैं, पर जब हमारे नसीब में आया तो उतना छैला न था.”
रजिया ने कहा, ”चलो जिंदगी कट जाएगी. सिर छुपाने की जगह औरत के लिए सबसे बड़ी चीज होती है. गोद में क्या है?”
प्रफुल्लित होकर सोमा ने कहा, ”बेटा है और तुम्हारे?’’
शरमाकर रजिया बोली, “जुड़वां हो गए थे. दोनों ठीक हैं. एक तरफ एक लग जाता है, दूसरी तरफ दूसरा. ऊपर के दूध को तो मुंह ही नहीं लगाते. घर में दो भैंसें भी हैं.”
हंसकर सोमा ने कहा, “पर उन्हें तो गाय का दूध ही पसंद है.’’
“चल हट कमीनी, मैं गाय हूं क्या?” दोनों हंस पड़ीं.
फिर रजिया और सोमा पानी भरने आर्ती तो कितनी देर बातें करती रहतीं. ज्यों-ज्यों बच्चे बड़े होते गए, कुएं पर उनका बैठने का समय भी बढ़ता गया. अपने-अपने इलाके में पत्थरों पर वे दोनों सिर से सिर जोड़े पता नहीं क्या-क्या खुसुर-फुसुर करती रहतीं. अब उनके होने पर कोई ध्यान नहीं देता था.
1965 की भारत-पाक लड़ाई में दोनों तरफ से गोले भी चले, सिपाही भी मरे और सीमा पर मिलिटरी की गश्त से डर के मारे कुआं वीरान होता गया. आर-पार रहनेवाले एक-दूसरे की मां- बहनों को गाली देते, एक-दूसरे की तरफ गए अपने गाय-गोरुओं पर सारा गुस्सा निकालते और शाम को उन्हें अपने-अपने घर ले जाते. इन गाय-भैंसों को लड़ाई का मतलब पता न था, इसी तरह रजिया और सोमा की समझ में भी न आता था, अब किस चीज की लड़ाई थी. मुल्क बांट लिया. अब अपने-अपने इलाके में जाकर मरो, लेकिन नहीं, लड़ाई जरूर करेंगे. सीमा पर आए, दिन गाय-गोरुओं को लेकर तो लड़ाई होती ही थी. कभी-कभी वहां की मुरगी इस तरफ आ जाती, कभी कोई बंदरी ही नाममात्र की सीमा लांघ जाती. अकसर यहां की गाय-भैंसें चरते-चरते वहां चली जातीं और वहां की यहां आ जातीं. दोनों के पेट भरे रहते. कौन सी घास किस मुल्क की है, उन्हें इससे मतलब न था. जब कोई गाय-भैंस गाभिन हो जाती, तब भी पता न चलता कि बच्चा पाकिस्तान का है या हिंदोस्तान का. जब लड़ाई न होती, लड़ाई करने की कोई खास वजह किसी को दिखाई न देती. लड़ाई शुरू होते ही एक-दूसरे के दुश्मन बने लोग अपनी गाय-भैंसों को अपनी हद में रखने की कोशिश करते.
सोमा का बड़ा बेटा फौज में चला गया तो रज्जो का बेटा भी फौज में ड्राइवर हो गया. कुएं पर बैठकर दोनों कहतीं, “क्या कहूं कहीं मुए आपस में ही लड़कर न मर जाएं.” रज्जो बड़ी संजीदगी से सोमा के कान में कहती, “देखो सोमा, ये सब नंबरदारों की करतूतें हैं. यही लड़वाते हैं मुल्कों को. असली गुनाहगार यही हैं. हमने बेटे एक-दूसरे के साथ लड़ने को पैदा नहीं किए.’’
सोमा ने बहुत उदास होकर कहा, “मैंने बहुत मना किया था. असल में एक कप्तान ने इससे कपड़े सिलवाए थे. उसको इसके सिले कपड़े बहुत पसंद थे. इसने उसे कहा था, मेरे एक बेटे को सिपाही लगवा दीजिए. उसे याद रहा और जगह निकलने पर इसे लगवा दिया. क्या कहूं दम्मों का लोभी है इनका बाप. ये भी मुआ दरजी की औलाद, अच्छा-भला कॉलेज जाता था, ‘फौज में चला गया.”
“मेरे भी दूसरे ने दुकान खोल ली है. उसकी छीटें लेने तो चोरी-छिपे हिंदोस्तान से भी औरतें आती हैं.’’
“देख रज्जो, एक कमीज का कपड़ा मेरे लिए फड़वा लाना. पिछले साल की एक सुत्थन पड़ी है, उसके साथ कुरता नहीं है. मोतिया रंग पर लाल छापा हो तो खूब बनेगी.”
“सोमा, मैं खुद दुकान पर जाकर अपनी पसंद के छाप की कमीज फड़वा लाऊंगी. कुरता तो तुम्हें मेरा जीजा खूब फिटिंगवाला सी देगा.”
दोनों हंसने लगीं.
लड़ाई खत्म होने पर वैसे ही एक-दूसरी तरफ के लोग मिल जाते थे जैसे दूध और पानी. फिर सब वही जीने के अंदाज शुरू हो जाते.
1965 की लड़ाई में कुएं पर एक बार सन्नाटा छा गया. फौजियों की आवाज के डर से कोई पानी भरने न आती. फौजी ट्रकों में पानी लाद-लादकर छावनियों में पहुंचाते रहते. लड़ाई की वजह से आरपार होनेवाले सब रिश्तेदारों की शादियां रुक जातीं. लड़ाई का झमेला हटते ही पार का फकीरा अपने सगे भाई मुहम्मद के घर बरात ले गया. लड़ाई के बाद यह पहला खुशगवार वाकया था. वहीं शादी में सोमा और रजिया मिलीं तो एक-दूसरी के गले लग गई. लड़ाई के बाद दोनों के बच्चे सही सलामत थे.
रजिया ने रोते-रोते कहा, “अल्लाह का शुक्र है, मेरा बच्चा जंग से जीता-जागता लौट आया.’’
“शुक्र है रजिया, तेरा भांजा भी सही सलामत वापस लौटा है. मुओं ने इसके पांव पर गोली चलाई थी. वह तो जानो बूट बड़ा पक्का था, उसी के ऊपर से होकर निकल गई. मैं कल ही पंजपीर में नियाज देकर आई हूं.”
पंजपीर हिंदोस्तान में था. रजिया ने कहा, “सोमा, मन्नत तो मैंने भी वही मानी हुई है. अब किसी दिन गश्त कम होगी तो दे आऊंगी. मुझे जम्मू से खरीदारी भी करनी है.”
“पता नहीं रजिया कब लड़ाइयां खत्म होंगी. हमारी जिंदगी इसी डर में बीत जाएगी. पता नहीं.’’
“हां, अब हम दादी-नानी हो गई हैं. पता नहीं कितने दिन के और हैं. इधर-उधर मारकुटाई न हो तो पता ही नहीं चलता, दो मुल्क हैं.”
“पता तो तब चले, जब हम अलग हों. हमारे सुख-दु:ख साझे हैं. हमारी गरीबी एक है. हम इकट्ठे जवान हुए, इकट्ठे ही बूढ़े हो रहे हैं. तुम्हें क्या बताऊं, अब आंखों से ठीक सुझाई नहीं देता. इतनी बार लड़कों का बाप शहर में आंखवाले डॉक्टर को दिखाने के लिए कहता है, फिर भूल जाता है. उसकी अपनी आंख भी खराब है.”
“आंखें तो हमारी भी खराब हैं. लड़ाई बंद हो तो मैं भी तुम्हारे डॉक्टर के पास ही चलूंगी. सुना है, बड़ा सयाना डॉक्टर है.”
“कुछ दिन रुको, फिर इकट्ठे चलेंगे. अच्छा, मैं चलती हूं.” रजिया ने घुटनों पर बोझ डालकर उठते हुए कहा.
“सोमा, नया सत्तू निकला है, तेरे लिए ले आऊंगी. अपने बुड़ूढे को भी पिला देना.”
कुएं पर रौनक लगनी फिर शुरू हो गई. कोई नई बहुओं को कुआं पूजने लाती तो सामनेवालियों को भी बताशे बांटते. खूब रंगीन हो जाता कुआं. उसका पानी बरतनों के डूबने से कांपता रहता. कभी-कभी कोई बरतन, किसी की चाबियां, कुएं में से सामान निकालनेवाले यंत्र पर डालकर निकाले जाते. बरतनों पर झगड़ा होता.
“यह पाकिस्तान की बालटी है.”
“ये बटलोई हिंदोस्तान की है.’’
पर पानी दोनों में एक रहता. जैसे आसमान दोनों का था. उस पर कोई लड़ाई न होती थी. इसके बावजूद सीमा पर छुटपुट वारदातें होती रहती थीं. इसका अभ्यास दोनों को था. इस पर कभी-कभी बहस भी होती, पर ज्यादातर इस तरह की बात कोई न करना चाहता. शाम से सुबह तक खूब चौकसी रहती, तब कुआं सूना-सूना पड़ा रहता.
फिर सुनने में आया, हिंदोस्तान-पाकिस्तान में बस चल पड़ी है. रजिया ने पत्थर पर बैठते हुए कहा, “ऐ सोमा, यह बस चलने की क्या अफ़वाह है?’’
“यह अफ़वाह नहीं है. हमारे प्रधानमंत्री बस लेकर पाकिस्तान गए हैं. रास्ता खुल गया है, इसलिए एक बार जाकर कुजरांवाले (पाकिस्तान में एक शहर) में अपना घर देखना चाहती हूं.”
“अरी सोमा, मेरी तो मुमानी सास वहां रहती है. मैं भी चलूंगी. हम दोनों उन्हीं के घर रहेंगे. बड़े खानदानी लोग हैं. एक बार मुमानी ने मुझे घी की पीपी भी भेजी थी. जब जुड़वां हुए तो किसी ने बता दिया होगा.”
“चलो अच्छा हुआ, कहीं मां-जाए भी बिछड़ते हैं!’’
अब बेरी के दरख्त के नीचे सिर्फ कुजरांवाले की बात होती थी. एक दिन सोमा ने शरमाते हुए कहा, ”कुजरांवाले में एक हलवाई की दुकान थी, पता नहीं अब है या नहीं! मैं सुबह दही लेने जाती थी तो हलवाई का बेटा मलाई से दोना भर देता था. पता नहीं अब वह कहां होगा?”
रजिया ने कहा, ”अरे, वहीं होगा. जाओगी तो मलाई का दोना लेकर बैठा मिलेगा.’’
रजिया के हाथ पर पंखा मारकर सोमा ने कहा, “चल कमीनी कहीं की, शर्म नहीं आती. अरे, अब वे दिन कहां रहे. हम साथ-साथ बड़े हो रहे थे, जिंदगानियां बिछी हुई थीं. खाली वहां तक पहुंचना ही था कि यह मुआ पाकिस्तान बन गया.’’
“मुई गाली तो मत दो. बाकी बंटवारे में तो हमारी रजामंदी न थी.”
“तुम्हें पूछने कौन सा बाप आया था. हम तो परजा हैं. बंटवारे के फैसले तो राजा लोग करते हैं.’’
“हमने सरहद पर रहकर हमेशा मार-कुटाई ही देखी है सोमा, हर वक्त धड़का लगा रहता है.’’
“चलो, अब तो लड़ाई खत्म हो जाएगी. रहना न मिले तो भी सब अपनी-अपनी जन्मभूमि देख आएंगे.”
फिर एक शाम जोर के गोले फटने से कुएं पर जिंदगी थम गई. पानी भरने आईं औरतें अपने- अपने बरतन उठाए अपने घरों को भाग गईं. कइयों ने घड़े वहीं पटक दिए और अपने बच्चों को छाती से लगाकर भागीं. रजिया ने उठते हुए कहा, ”अल्लाह, मेरे हबीब को बख्शना.”
सोमा ने कहा, ”मेरा मोहन भी मिलिटरी में हैं. भगवान् उसकी रक्षा करना.”
आसमान की छाती को चीरते जहाज, जमीन की चुप्पी को दो फाड़ करते गोले; बस यही रह गया था. कितने दिन हो गए, कुएं पर कोई नहीं गया.
सोमा के बेटे की बुरी ख़बर आ गई थी.
कुआं पूरा भर गया था. उस पर एक बुत्ती सलीब की तरह खड़ी थी. सोमा ने अपनी आंखों को अपने आंचल से पोंछकर उसे देखा, फिर कहा, “मेरा मोहन मर गया है. मेरा कुआं भी मर गया है. रजिया का हबीब ही कहां बचा होगा!’’
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