कहते हैं एक भारत में कई-कई भारत बसते हैं. कहानी आदमी का बच्चा में आदमी के बच्चे और कुत्ते के बच्चे का टेक लेकर एक मासूम बच्ची के माध्यम से अलग-अलग भारत में रहनेवालों की ज़िंदगियों पर बात की गई है. मासूम-सी बच्ची डॉली अनजाने ही हमारे समाज में जड़ जमा चुके वर्ग विभाजन की कड़वी हक़ीक़त पर से पर्दा हटा देती है.
दोपहर तक डॉली कान्वेंट (अंग्रेज़ी स्कूल) में रहती है. इसके बाद उसका समय प्रायः पाया ‘बिंदी’ के साथ कटता है. मामा दोपहर में लंच के लिए साहब की प्रतीक्षा करती है. साहब जल्दी में रहते हैं. ठीक एक बजकर सात मिनट पर आए, गुसलखाने में हाथ-मुंह धोया, इतने में मेज पर खाना आ जाता है. आधे घंटे में खाना समाप्त कर, सिगार सुलगा साहब कार में मिल लौट जाते हैं. लंच के समय डॉली खाने के कमरे में नहीं आती, अलग खाती है.
संध्या साढ़े पांच बजे साहब मिल से लौटते हैं तो बेफ़िक्र रहते हैं. उस समय वे डॉली को अवश्य याद करते हैं. पांच-सात मिनट उससे बात करते हैं और फिर मामा से बातचीत करते हुए देर तक चाय पर बैठे रहते हैं. मामा दोपहर या तीसरे पहर कहीं बाहर जाती हैं तो ठीक पांच बजे लौट कर साहब के लिए कार मिल में भेज देती हैं. डॉली को बुला साहब के मुआयने के लिए तैयार कर लेती हैं. हाथ-मुंह धुलवा कर डॉली की सुनहलापन लिए, काली-कत्थई अलकों में वे अपने सामने कंघी कराती हैं. स्कूल की वर्दी की काली-सफ़ेद फ्रॉक उतारकर, दोपहर में जो मामूली फ्रॉक पहना दी जाती है उसे बदल नई बढ़िया फ्राक उसे पहनायी जाती है. बालों में रिबन बांधा जाता है. सैंडल के पालिश तक पर मामा की नज़र जाती है.
बग्गा साहब मिल में चीफ़ इंजीनियर हैं. विलायत पास हैं. बारह सौ रुपया महीना पाते हैं. जीवन से संतुष्ट हैं परंतु अपने उत्तरदायित्व से भी बेपरवाह नहीं. बस एक ही लड़की है डॉली. पांचवें वर्ष में है. उसके बाद कोई संतान नहीं हुई. एक ही संतान के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर सकने से साहब और मामा को पर्याप्त संतोष है. बग्गा साहब की नज़रों में संतान के प्रति उत्तरदायित्व का आदर्श ऊंचा है. वे डॉली को बेटी या बेटा सब कुछ समझकर संतोष किये हैं. यूनिवर्सिटी की शिक्षा तो वह पायेगी ही. इसके बाद शिक्षा-क्रम पूरा करने के लिए उसका विलायत जाना भी आवश्यक और निश्चित है. संतान के प्रति शिक्षा के उत्तरदायित्व का यह आदर्श कितनी संतानों के प्रति पूरा किया जा सकता है? साहब कहते हैं,‘यों कीड़े-मकोड़े की तरह पैदा करके क्या फ़ायदा?’ मामा-मिसेज़ बग्गा भी हामी भरती हैं,‘और क्या?’
‘डॉली! …डॉली! …डॉली!…’ मामा तीन दफ़े पुकार चुकी थीं. चौथी दफ़े, उन्होंने आया को पुकारा. कोई उत्तर न पा वे खिसिया कर स्वयं बरामदे से निकल आईं. अभी उन्हें स्वयं भी कपड़े बदलने थे. देखा-बंगले के पिछवाड़े से, जहां धोबी और माली के क्वॉर्टर हैं, आया डॉली को पकड़े, लिए आ रही है. मामा ने देखा और धक्क से रह गईं. वे समझ गईं-डॉली अवश्य माली के घर गई होगी. दो-तीन दिन पहले मालिन के बच्चा हुआ था. उसे गोद में लेने के लिए डॉली कितनी ही बार ज़िद्द कर चुकी थी. डॉली के माली की कोठरी में जाने से मामा भयभीत थीं. धोबी के लड़के को पिछले ही सप्ताह खसरा निकला था.
लड़की उधर जाती तो उन बेहूदे बच्चों के साथ शहतूत के पेड़ के नीचे धूल में से उठा-उठाकर शहतूत खाती. उन्हें भय था, उन बच्चों के साथ डॉली की आदतें बिगड़ जाने का. आया इन सब अपराधों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर अनुभव कर भयभीत थी. मेम साहब के सम्मुख उनकी बेटी की उच्छृंखलता से अपनी बेबसी दिखाने के लिए वह डॉली से एक क़दम आगे, उसकी बांहें थामे यों लिए आ रही थी जैसे स्वच्छंदता से पत्ती चरने के लिए आतुर बकरी को ज़बरन कान पकड़ घर की ओर लाया जाता है.
मामा के कुछ कह सकने से पहले ही आया ने ऊंचे स्वर में सफ़ाई देना शुरू किया,‘हम ज़रा सैंडिल पर पालिश करें के तईं भीतर गएन. हम से बोलीं कि हम गुसलखाने जाएंगे. इतने में हम बाहर निकल कर देखें तो माली के घर पहुंची हैं. हमको तो कुछ गिनती ही नहीं. हम समझाएं तो उलटे हमको मारती है…’
इस पेशबंदी के बावजूद भी आया को डांट पड़ी.
‘दिस इज़ वेरी सिली!’ मामा ने डॉली को अंग्रेज़ी में फटकारा. अंग्रेज़ी के सभी शब्दों का अर्थ न समझ कर भी डॉली अपना अपराध और उसके प्रति मामा की उद्विग्नता समझ गई.
तुरंत साबुन से हाथ-मुंह धुलाकर डॉली के कपड़े बदले गए. चार बज कर बीस मिनट हो चुके थे, इसलिए आया जल्दी-जल्दी डॉली को मोजे और सैंडल पहना रही थी और मामा स्वयं उसके सिर में कंघी कर उसकी लटों के पेचों को फीते से बांध रही थी. स्नेह से बेटी की पलकों को सहलाते हुए उन्हें अचानक गर्दन पर कुछ दिखलाई दिया-जूं! वज्रपात हो गया. निश्चय ही जूं माली और धोबी के बच्चों की संगत का परिणाम थी. आया पर एक और डांट पड़ी और नोटिस दे दी गई कि यदि फिर डॉली आवारा, गंदे बच्चों के साथ खेलती पायी गई तो वह बर्ख़ास्त कर दी जाएगी.
बेटी की यह दुर्दशा देख मां का हृदय पिघल उठा. अंग्रेज़ी छोड़ वे द्रवित स्वर में अपनी ही बोली में बेटी को दुलार से समझाने लगीं,‘डॉली तो प्यारी बेटी है, बड़ी ही सुंदर, बड़ी ही लाड़ली बेटी. हम इसको सुंदर-सुंदर कपड़े पहनाते हैं. डॉली, तू तो अंग्रेज़ों के बच्चों के साथ स्कूल जाती है न बस में बैठकर! ऐसे गंदे बच्चों के साथ नहीं खेलते न!’
मचल कर फर्श पर पांव पटक डॉली ने कहा,‘मामा, हमको माली का बच्चा ले दो, हम उसे प्यार करेंगे.’
‘छी…छी…!’ मामा ने समझाया,‘वह तो कितना गंदा बच्चा है! ऐसे गंदे बच्चों के साथ खेलने से छी-छी वाले हो जाते हैं. इनके साथ खेलने से जुएं पड़ जाती हैं. वे कितने गंदे हैं, काले-काले धत्त! हमारी डॉली कहीं काली है? आया, डॉली को खेलने के लिए मैनेजर साहब के यहां ले जाया करो. वहां यह रमन और ज्योति के साथ खेल आया करेगी. इसे शाम को कम्पनी बाग ले जाना.’
डॉली ने मां के गले में बांहें डाल विश्वास दिलाया कि अब वह कभी गंदे और छोटे लोगों के काले बच्चों के साथ नहीं खेलेगी. उस दिन चाय पीते-पीते बग्गा साहब और मिसेज़ बग्गा में चर्चा होती रही कि बच्चे न जाने क्यों छोटे बच्चों से खेलना पसंद करते हैं. …एक बच्चे को ही ठीक से पाल सकना मुश्किल है. जाने कैसे लोग इतने बच्चों को पालते हैं. …देखो तो माली को! कमबख्त के तीन बच्चे पहले हैं, एक और हो गया.
बग्गा साहब के यहां एक कुतिया विचित्र नस्ल की थी. कागज़ी बादाम का सा रंग, गर्दन और पूंछ पर रेशम के से मुलायम और लम्बे बाल, सीना चौड़ा. बांहों की कोहनियां बाहर को निकली हुई. पेट बिल्कुल पीठ से सटा हुआ. मुंह जैसे किसी चोट से पीछे को बैठ गया हो. आंखें गोल-गोल जैसे ऊपर से रख दी गई हों. नए आने वालों की दृष्टि उसकी ओर आकर्षित हुए बिना न रहती. यही कुतिया की उपयोगिता और विशेषता थी. ढाई सौ रुपया इसी शौक़ का मूल्य था.
कुतिया ने पिल्ले दिए. डॉली के लिए यह महान उत्सव था. वह कुतिया के पिल्लों के पास से हटना न चाहती थी. उन चूहे-जैसी मुंदी हुई आंखों वाले पिल्लों को मांगने वालों की कमी न थी परंतु किसे दें और किसे इनकार करें? यदि इस नस्ल को यों बांटने लगें तो फिर उसकी कद्र ही क्या रह जाय? कुतिया का मोल ढाई सौ रुपया उसके दूध के लिए तो होता नहीं!
साहब का कायदा था, कुतिया पिल्ले देती तो उन्हें मेहतर से कह गरम पानी में गोता दे मरवा देते. इस दफ़े भी वे यही करना चाहते थे परंतु डॉली के कारण परेशान थे. आख़िर उसके स्कूल गए रहने पर बैरे ने मेहतर से काम करवा डाला.
स्कूल से लौट डॉली ने पिल्लों की खोज शुरू की. आया ने कहा,‘पिल्ले मैनेजर साहब के यहां रमन को दिखाने के लिए भेजे हैं, शाम को आ जाएंगे.’
मामा ने कहा,‘बेबी, पिल्ले सो रहे हैं. जब उठेंगे तो तुम उनसे खेल लेना.’
डॉली पिल्लों को खोजती फिरी. आखिर मेहतर से उसे मालूम हो गया कि वे गरम पानी में डुबो कर मार डाले गए हैं.
डॉली रो-रोकर बेहाल हो रही थी. आया उसे पुचकारने के लिए गाड़ी में कम्पनी बाग ले गई. डॉली बार-बार पूछ रही थी,‘आया, पिल्लों को गरम पानी में डुबो कर क्यों मार दिया?’
आया ने समझाया,‘डैनी (कुतिया) इतने बच्चों को दूध कैसे पिलाती? वे भूख से चेऊं-चेऊं कर रहे थे, इसीलिए उन्हें मरवा दिया.’ दो दिन तक डॉली के पिल्लों का मातम डैनी और डॉली ने मनाया फिर और लोगों की तरह वे भी उन्हें भूल गईं.
माली ने नए बच्चे के रोने की ‘कें-कें’ आवाज़ आधी रात में, दोपहर में, सुबह-शाम किसी भी समय आने लगती. मिसेज़ बग्गा को यह बहुत बुरा लगता. झल्ला कर वे कह बैठतीं,‘जाने इस बच्चे के गले का छेद कितना बड़ा है.’
बच्चे की कें-कें उन्हें और भी बुरी लगती जब डॉली पूछने लगती,‘मामा, माली का बच्चा क्यों रो रहा है?’
बिंदी समीप ही बैठी बोल उठी,‘रोयेगा नहीं तो क्या, मां के दूध ही नहीं उतरता.’
मामा और बिंदी को ध्यान नहीं था कि डॉली उनकी बात सुन रही है. डॉली बोल उठी,‘मामा, माली के बच्चे को मेहतर से गरम पानी में डुबा दो तो फिर नहीं रोएगा.’
बिंदी ने हंस कर धोती का आंचल होंठों पर रख लिया. मामा चौंक उठीं. डॉली अपनी भोली, सरल आंखों में समर्थन की आशा लिए उनकी ओर देख रही थी.
‘दिस इज़ वेरी सिली डॉली… कभी आदमी के बच्चे के लिए ऐसा कहा जाता है.’ मामा ने गम्भीरता से समझाया. परिस्थिति देख आया डॉली को बाहर घुमाने ले गई.
तीसरे दिन संध्या समय डॉली मैनेजर साहब के यहां रमन और ज्योति के साथ खेल कर लौट रही थी. बंगले के दरवाज़े पर माली अपने नए बच्चे को कोरे कपड़े में लपेटे दोनों हाथों पर लिए बाहर जाता दिखाई दिया. उसके पीछे मालिन रोती चली आ रही थी.
आया ने मरे बच्चे की परछाईं पड़ने के डर से उसे एक ओर कर लिया. डॉली ने पूछा,‘यह क्या है? आया, माली क्या ले जा रहा है?’
‘माली का छोटा बच्चा मर गया है.’ धीमे-से आया ने उत्तर दिया और डॉली को बांह से थाम बंगले के भीतर ले चली.
डॉली ने अपनी भोली, नीली आंखें आया के मुख पर गड़ा कर पूछा,‘आया, माली के बच्चे को क्या गरम पानी में डुबो दिया?’
‘छिः डॉली, ऐसी बातें नहीं कहते!’ आया ने धमकाया,‘आदमी के बच्चे को ऐसे थोड़े ही मारते हैं!’
डॉली का विस्मय शांत न हुआ. दूर जाते माली की ओर देखने के लिए घूमकर उसने फिर पूछा,‘तो आदमी का बच्चा कैसे मरता है?’
लड़की का ध्यान उस ओर से हटाने के लिए उसे बंगले के भीतर खींचते हुए आया ने उत्तर दिया,‘वह मर गया, भूख से मर गया है. चलो मामा बुला रही हैं.’
डॉली चुप न हुई, उसने फिर पूछा,‘आया, हम भी भूख से मर जायेंगे?’
‘चुप रहो डॉली!’ आया झुंझला उठी,‘ऐसी बात करोगी तो मामा से कह देंगे.’
लड़की के चेहरे की सरलता से उसकी मां का हृदय पिघल उठा. उसकी घुंघराली लटों को हाथ से सहलाते हुए आया कहने लगी,‘बैरी की आंख में राई-नोन! हाय मेरी मिस साहब, तुम ऐसे आदमी थोड़े ही हो! …भूख से मरते हैं कमीने आदमियों के बच्चे.’
कहते-कहते आया का गला रुंध गया. उसे अपना लल्लू याद आ गया… दो बरस पहले…! तभी तो वह साहब के यहां नौकरी कर रही थी.
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