हम जीवन की सांझ को सुहाना बनाने की चाहे कितनी ही प्लानिंग कर लें, पर नियति पर किसी का वश नहीं होता. बेटियों को पराया धन और बेटों को घर का चिराग समझने की पारंपरिक कहावत को आईना दिखाती आरती प्रणय की यह कहानी दिल छू जाती है.
घड़ी में पांच बजते ही… साफ़ कुर्ता-पायजामा पहन और हाथ में छड़ी लेकर, पंडित दयाशंकर पार्क की ओर चल देते. दोपहर के तीन बजे से ही उन्हें पांच बजने का इंतज़ार रहता था. आखि़रकार, यही वो पल थे जो उन्हें जीने की प्रेरणा देते थे. उन्हें अहसास दिलाते थे कि उनकी बची-खुची सांसें महत्वहीन और निरर्थक नहीं हैं.
भरा-पूरा घर था पंडित दयाशंकर का. पांच बेटे, पांच बहुएं और पोते-पोतियां. बस पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था. यूं तो घर का शोर बाहर सड़क से ही घर की रौनक बताता था, पर… घर के अंदर… पंडित दयाशंकर से बातें करने वाला कोई न था. कभी-कभी बेचारे ख़ुद ही बोलते रहते… रेडियो की तरह. उनकी आवाज़ सबके कानों तक पहुंचती… पर उधर से कोई उत्तर नहीं आता. बेचारे इकतरफ़ा बोलते रहते… एकाकीपन का स्वगत-भाषण.
एक दिन ग़लती से पंडित दयाशंकर के सब्र और सहनशीलता का बांध टूट गया. किसी से, कभी, कोई शिकायत न करने वाले दयाशंकर बोल उठे,“तुम सब तो अपने-आप में ही व्यस्त रहते हो…मेरे लिए तो किसी के पास समय ही नहीं है.” बस क्या था? उम्र से कमज़ोर पड़ी उस आवाज़ को जवाब घर के कोरस ने दिया. “हम आपकी तरह शान से…बेकार तो बैठे नहीं रहते… घर चलाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है… बच्चों को अपना भविष्य बनाना है… आपके साथ गप्प लड़ाने से इनका भविष्य तो नहीं सुधरेगा न… ”
पंडितजी को बोलने का पछतावा होने लगा. कोरस का उत्तर मन-ही-मन कई अनकहे विचार और अनुभूतियां दे रहे थे… ‘पोते… घंटों मोबाइल से चिपक कर कौन-सा भविष्य सुधार रहे हैं… बहुएं…घंटों टी.वी. सीरियल देखकर कौन-सा घर सवार रही हैं… और बेटे… छोड़ो भी…’ पंडित जी ने महाभारत को शुरू होने से रोकने के लिए मौन के ब्रह्मास्त्र को ही चुना.
कुछ दिनों बाद पंडितजी के बड़े पोते का जन्म-दिन था. पंडितजी ने एक दिन पहले ही अपना कुर्ता-पायजामा प्रेस करवाया. सैलून जाकर बाल बनवाए और दाढ़ी भी. फिर प्यारे पोते के लिए दस दुकान घूम कर एक अच्छी कलम ख़रीदी. रात देर तक जागकर उसके लिए ख़रीदे जन्म-दिन कार्ड पर संदेश लिखते रहे. सुबह जब पंडितजी की नींद खुली तो देखा कि घर में सब तैयार थे. लग रहा था कि सब कहीं बाहर निकलने ही वाले हैं. किसी से कुछ पूछ पाएं इससे पहले ही बड़े बेटे और बहू ने आकर कहा,“बाबूजी, बिट्टू का जन्म-दिन इस बार हम माथेरान में मनाएंगे. आप इतना चल नहीं पाएंगे. इसलिए, आप घर पर ही रहिएगा. आपके लिए सारी व्यवस्था कर दी है.” अपना आदेशपूर्ण फैसला सुनाकर सब चल दिए. पंडित जी के सारे अरमान, सारे प्लान उनके प्रेस किए हुए कुर्ते और पायजामे के बीच दबे रह गए. उस दिन भी पंडितजी शाम के पांच बजने का इंतज़ार ही करते रहे.
ठीक पांच बजे पंडितजी पार्क जा पहुंचे. पिछले कुछ दिनों की तरह आज भी शालिनी पार्क में उनका इंतज़ार कर रही थी. सहारा दे कर शालिनी ने पंडितजी को बेंच पर बिठाया, फिर अपने साथ लाई पानी की बोतल से पंडितजी को पानी पिलाया. पानी पीते-पीते पंडितजी की आंखें नम हो गईं. रुंधी हुई आवाज़ से वह बोले,“आज बिट्टू का जन्म-दिन था. घर के सभी लोग माथेरान गए हैं. बस… मैं यहां हूं… अकेला…” फिर एक सूखे हुए फूल को उठाकर बोले,“ बेटे, बुढ़ापा तब अभिशाप बन जाता है जब अपने ही अहसास दिलाने लगते हैं कि अब आप बूढ़े हो गए हैं… या कह लो महत्त्वहीन हो गए हैं.” शालिनी सुन रही थी. पंडितजी थोड़ा रुककर फिर बोले,“शरीर का साथ छूटने का दु:ख उतना नहीं होता जितना बुढ़ापे के साथ अपनों के छूटने का.” अचानक दयाशंकर को अहसास हुआ कि वह शालिनी की शाम क्यों ख़राब कर रहे हैं. उन्होंने बात बदलते हुए शालिनी से पूछा,“अरे! क्या हम आज नारियल-पानी नहीं पिएंगे?” फिर दोनों नारियल-पानी वाले के ठेले की ओर चल दिए. नारियल-पानी पीते हुए शालिनी ने दयाशंकर जी से कहा,“बाबा! आप समझ लीजिए कि आज मेरा ही जन्म-दिन है और मुझे ही अपने आशीर्वाद दे दीजिए.” दयाशंकर ने भरी आंखों के साथ अपना हाथ उसके सिर पर रख दिया.
शालिनी उस पार्क में जॉगिंग करने आती थी. वह नासिक के किसी कॉलेज में लेक्चरर थी. गर्मी की छुट्टियों में मुम्बई आई थी. एक दिन जब दयाशंकर के पैर में मोच आ गई थी तब उसने उन्हें सहारा देकर उनके घर के पास तक छोड़ा था. उस दिन से उन दोनों में दोस्ती-सी हो गई थी. शालिनी जॉगिंग के बाद कुछ समय उनके साथ बैठ जाया करती थी. वैसे भी उसके घर पर उसका इंतज़ार करने वाला कोई न था. माता-पिता गुज़र चुके थे. पर, उनके पुराने फ्लैट में आकर उसे अनुभव होता था कि वह उनके साथ है. पार्क में बना यह नया रिश्ता उसकी रिक्तता को कुछ और भर देता था. कभी-कभी अनायास ही ऐसे रिश्ते बन जाते हैं जो मन के किसी खाली कोने को भर कर शांति दे जाया करते हैं. शालिनी कभी-कभी दयाशंकर जी के लिए घर से कुछ खाने की चीज़ें भी ले आया करती. दयाशंकर जी बड़े प्यार से उसे खाते और प्यार से शालिनी के सिर पर हाथ फ़ेर देते.
एक दिन जब खाने का डब्बा लेकर शालिनी दयाशंकर जी के पास पहुंची तो देखा वह बैठे-बैठे बार-बार एक तस्वीर को देख रहे थे. उनकी आंखों से आंसू की एक धारा एक शांत नदी की तरह बह रही थी. शालिनी को कारण पूछने की आवश्यकता भी नहीं हुई. दयाशंकर का दर्द सहारे को पास पाकर शब्दों में बदल गया. कहने लगे,“आज सुलोचना, यानी मेरी पत्नी की बरसी थी. जब तक उसी हड्डियों में दम था, बेचारी हमें हमारी पसंद का खाना खिलाने के लिए रसोई में सिमटी रही. आज उसकी बरसी पर मेरी इच्छा थी कि उसकी पसंद का भोजन किसी ब्राह्मण को करवाया जाए. झूठ या सच, एक पल को अहसास तो हो कि वो हमारे बीच ही है. मैं न्यौता भी दे आया था और नौकर से उसी पसंद की चीज़ें भी मंगवा ली थीं. पर… .” दयाशंकर जी की आवाज़ पूरी तरह रुंध गई. थोड़ा संभल कर वह बोले,“बहुएं तो उसके जाने के बाद आईं ना. उन्हें उसकी पसंद-नापसंद क्या पता. पसंद का बनाना तो छोड़ो, बहुओं ने सीधे कह दिया कि इस बार हम मां की बरसी नहीं कर पाएंगे. …क्यों कि खाना बनाने वाली महरी छुट्टी पर है. बड़ी बहू ने तो इतना तक सुझाव दे दिया कि गाय को चावल खिला दीजिए, बराबर ही पुण्य होता है.” फिर अपने आप को संयत बरते हुए बोले,“’शालिनी, मैं चुप रहा. इस विडम्बना के समक्ष क्या बोलता. जिसकी पांच-पांच बहुएं हों उसे साल में एक बार भी उनके साथ का बना खाना नहीं मिले तो फिर बेटों के होने से क्या?” कुछ देर की ख़ामोशी के बाद दयाशंकर उठ खड़े हुए. आज वह शालिनी को रोज़ की तरह ‘गुड-बाय’ कहे बिना अपने घर की ओर चल दिए. यूं तो हर दिन वह थके हुए क़दमों और टूटे हुए मन के साथ पार्क में आते थे और शालिनी के साथ कुछ सुख के क्षण बिता कर प्रफुल्लित मन से वापस जाते थे, पर…आज उनके जाते हुए क़दम कुछ ज़्यादा ही बोझिल और बेमंजि़ल थे.
अगले दिन ठीक पांच बजे शालिनी जॉगिंग करने के बाद, दयाशंकर जी की प्रतीक्षा कर रही थी. घड़ी की सुइयां धीरे-धीरे जाती हुई शाम की सूचना दे रही थीं. आखि़रकार छ: बज गए. पर…दयाशंकर नहीं आए. शालिनी का मन चिंतित हो उठा. उसका भी घर लौटने का समय हो गया था. पर दयाशंकर के न आने का कारण जानने के लिए वह उनके घर की ओर चल दी. इतने थोड़े से दिनों में ही दयाशंकर जी के प्रति उपजे उसके स्नेह ने आशंकाओं से उसके मन को उद्वेलित कर दिया. आखि़र आज वह क्यों नहीं आए ? कहीं…
अगले मोड़ पर दयाशंकर जी का घर था. शालिनी उस मोड़ से पहले के चौराहे पर सड़क पार करने के लिए खड़ी थी. शहर के लौटते हुए शाम के ट्रैफि़क में सड़क पार कर पाना एक चुनौती ही होती है. शालिनी सोचने लगी कि किस तरह दयाशंकर जी इस यातायात के समुद्र को हर दिन पार कर वापस घर जाते होंगे. किस तरह उन्हें फिर अगले दिन यही सब झेलने की हिम्मत होती होगी….वह भी इस उम्र में.
तभी… सड़क के उस पार एक वृद्ध व्यक्ति एक कार से टकरा कर गिर पड़ा. उस व्यक्ति का हुलिया शालिनी को जाना-पहचाना सा लगा. शालिनी ने देखा कि वह व्यक्ति जान-बूझकर गाड़ी के सामने आ गया था. कुछ ही सेकंड में उसे लोगों ने घेर लिया. भीड़ के बीच से फिर से शालिनी ने उसे देखा. वह… दयाशंकर ही थे. ट्रैफि़क और सिग्नल की परवाह किए बिना शालिनी उनके पास जा पहुंची. लोगों को हटाकर उसने दयाशंकर जी को पकड़ लिया और आवेश में बार-बार पूछने लगी, “बाबा ! आपको कुछ हुआ तो नहीं. …चोट तो नहीं लगी.”
दयाशंकर जी को काई चोट नहीं आई थी. पर… वह बिलकुल सुन्न से हो गए थे. शालिनी को उनके घर का पूरा पता मालूम नहीं था. अत: वह दयाशंकर जी को टैक्सी में बिठा कर अपने घर ले आई. आकर उसने अधिक चीनी डालकर कॉफ़ी बनाई और प्लेट में उड़ेलकर उन्हें पिलाने लगी. दयाशंकर जी सोचने लगे, बेटियों में जितना प्यार होता है, ममता, संवेदना होती है, उतनी बेटों में शायद कभी नहीं होती है. हम क्यों शान से कहते हैं कि हम तो राजा की तरह अपना बुढ़ापा काटेंगे… हमारे तो तीन-तीन या पांच-पांच बेटे हैं. क्यों हम झूठा अभिमान करते हैं कि हमारी पगड़ी कभी किसी के सामने नहीं झुकेगी… हमारी बेटियां थोड़े ही हैं? क्या बहुओं के सामने बार-बार सर झुकाना बुढ़ापे का बोझ कई गुना ज़्यादा नहीं कर देता है?
दयाशंकर जी के आंसू उनके गाल की झुर्रियों में उलझ कर सूख गए थे. शालिनी ने उन्हें पोछते हुए पूछा,“बाबा , आप जान-बूझकर गाड़ी के सामने आ गए थे न? आपने ऐसा क्यों किया? आपने एक पल को भी यह नहीं सोचा कि आपके बेटे-बहू, पोते-पोतियों के सर से एक क्षण में आपका हाथ उठ जाएगा? क्या कोई, कभी… उनके जीवन में आपकी जगह भर पाता?”
दयाशंकर जी के सब्र का बांध फिर टूट गया. कहने लगे,“’शालिनी, इस बुढ़ापे में तिरस्कार और अपमान की मौत तो मैं अपनों के हाथ हर दिन मरता हूं. कभी-कभी लगता है कि हमारे मित्र उपाध्याय जी ठीक ही कहते थे कि पचहत्तर के बाद बूढ़ों को गोली मार देनी चाहिए. ….पर …आज तो मेरे बेटे-बहू ने मेरी आंखों के सामने मेरा अंतिम संस्कार ही कर दिया.” शालिनी की आंखों में प्रश्न था. दयाशंकर जी बोले,“आज में जब पार्क के लिए निकल रहा था तब मेरे बेटे ने मुझसे अपने छोटे पोते को पास के बस-स्टैण्ड से ले आने को कहा. …मैंने उससे बस इतना कहा ही कि मेरे पार्क को जाने का समय हो गया है तो बहू कहने लगी… हां-हां क्यों पार्क देर से जाएंगे… कहीं सहारा देकर इवनिंग वॉक करने वाली चली गई तो? …कैसे कोई ऐसी लांछन लगा सकता है? ”
दयाशंकर जी पहले और टूट से गए, फिर थोड़ा संयत होते हुए बोले,“मैं चुप रह गया शालिनी. जो कभी अपने पिता, अपने ससुर को सहारा देकर चला न सके उन्हें तुम्हारे और मेरे मानवीय संबंध शायद सबसे अनबूझ पहेली ही लगेंगे. पर अपने बेटे का चुप रह जाना तो मुझे मुखाग्नि देने की तरह ही लगा. …शालिनी, मुझे क्या पता था कि जिन बच्चों को मैं अपना कुलदीपक मानकर गर्व करता था उनकी लौ इतनी तेज़ होगी जो मेरा अस्तित्त्व ही जला देगी.” थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद उन्होंने पूछा,“शालिनी इतना कुछ होने के बाद क्या मैं उनके बीच रह सकता हूं? मैंने सोचा कि शायद मौत ही मुझे इस रोज़-रोज़ के मरने से मुक्ति दिला सकती है. इसलिए… शायद…”
शालिनी दयाशंकर जी की बातों को सुनकर सोचने लगी कि कहां तो वह स्वयं को ही अनाथ और अकेली समझती थी… पर… इतने अपनों के होते दयाशंकर जी शायद उससे भी अधिक अनाथ और अकेले हैं. फिर एक अधिकार के साथ उसने दृढ़तापूर्वक उनसे कहा,“बाबा, अब आप वहां वापस नहीं जाएंगे. कल मैं वापस नासिक जा रही हूं. आप मेरे साथ जा रहे हैं.” दयाशंकर जी एक टक शालिनी की तरफ़ देख रहे थे. कितना अंतर था उनके बेटे-बहू और शालिनी के आदेशों में. कहां तो उनके बेटे-बहू के शब्दों में वृद्ध पिता को साथ लेकर चलने की मज़बूरी की झुंझलाहट थी और कहां शालिनी के इस आदेश में एक छोटे बच्चे का अपने माता-पिता पर अधिकार झलक रहा था. दयाशंकर जी शालिनी के प्यार और आग्रह से ना नहीं कर पाए. और अगले दिन वह सारे संबंधों को पीछे छोड़ एक अनुबंध के भरोसे उसके साथ नासिक चल दिए.
अगले दिन नासिक में टाइम्स ऑफ इंडिया का मुंबई एडीशन देखकर दयाशंकर जी को मुंबई में छूटे हुए अपनों की याद आ गई. अंदर …..अख़बार में ‘मिसिंग’ कॉलम में उनकी तस्वीर थी……. साथ ही उनके परिवार वालों का औपचारिक आग्रह….. “बाबूजी ! आप जहां कहीं भी हों, घर वापस आ जाइए. आपके बिना घर सूना हो गया है…….” बेटों ने इश्तहार देकर अपने कर्तव्य का पालन कर लिया था. या तो फिर बेटों ने अपने पिता को अंतिम तिलांजलि दे दी थी.
***
शालिनी के साथ रहते हुए दयाशंकर जी को आज पांच साल हो गए. इन पांच वर्षों में शालिनी ने उनकी आंखों में कभी आंसू भी नहीं आने दिए. दयाशंकर जी के पांच बेटों ने तो अब तक उनका श्राद्ध भी कर दिया होगा. पर, दयाशंकर जी इस एक नए रिश्ते के साथ एक नई दुनिया में जी रहे थे. ऐसी दुनिया जिसमें उनकी इच्छाओं, भावनाओं और उनके अतीत की अहमियत थी. आज फिर उनकी पत्नी सुलोचना की बरसी थी. हर वर्ष की तरह शालिनी ने दयाशंकर जी से पूछ-पूछ कर उनकी पत्नी की पसंद की खाने की चीज़ें बनाई और ब्राह्मण-भोजन कराया. उस पल दयाशंकर जी को अहसास हुआ कि उनकी पत्नी अपने परिवार के साथ है और ख़ुश है. उन्हें लगा मानो उनकी पत्नी विजय से भरी मुस्कुराहट के साथ उन्हें कह रही है,‘देखो जी ! मैंने कहा था ना कि बेटियां बेटों से कई गुना अपनी होती हैं? कहने को पराई होती हैं पर वह हमें एक पल के लिए भी पराया नहीं करतीं. हमारे सुख के लिए वह जितना दु:ख सह सकती हैं उतना आपके पांच बेटे नहीं.’
दयाशंकर जी आत्म-ग्लानि से भर उठे. उन्हें वह दिन याद आ गया कि जब एक बार उनकी पत्नी गर्भवती थीं. सुलोचना को देखकर एक अनुभवी दाई ने कहा था कि इस बार निश्चय ही उसके बेटी होगी. सुलोचना इस अनुमान से बहुत ख़ुश थी और उसने बड़ी प्रसन्नता से यह समाचार दयाशंकरजी को सुनाया. पर, दयाशंकर जी ने अपनी पत्नी की ख़ुशी की उपेक्षा करते हुए कहा था,‘मैं तो चाहता हूं मेरे पांच पाण्डव ही हों. एक बेटी का बोझ हम क्यों उठाएं? आखि़र बेटियां अपनी होती ही कहां हैं?’ फिर उन्होंने सुलोचना को कोई दवा लाकर दी थी और वह उस बार बच्चे को जन्म नहीं दे पाई.
आज… अपने ही कहे शब्द बाणों की तरह दयाशंकर के हृदय में चुभ रहे थे. क्या पता उन्होंने स्वयं एक शालिनी को ही अपने हाथों से मारा था. दयाशंकरजी शालिनी को गले से लगा कर ज़ोरों से रोने लगे. शायद वह अपने आंसुओं से अपनी आत्म-ग्लानि को धो रहे थे. निश्चय ही आज शालिनी ने उनके पांच पाण्डवों को हरा दिया था.
Illustration: Pinterest