लड़की वह पौधा है, जिसे एक जगह अपनी जड़ें जमाने के सालों बाद, उखड़ाकर दूसरी जगह रोप दिया जाता है. अपने पहले घर यानी पहली ज़मीन की धुंधलाती यादों को याद कर रही एक लड़की, उखाड़ने और दोबारा रोपे जाने के दर्द को हर्फ़ दर हर्फ़ बयां कर रही है, डॉ शिप्रा मिश्रा की कहानी ‘बाबुल की देहरी’ में.
घर में प्रवेश करते ही नज़र आलमारी पर जा रुकी-शर्बत सेट, किताबें, कैसेट्स और न जाने क्या-क्या अबाड़-कबाड़. मन में आया अभी उठाकर सबसे पहले इन्हें बाहर फेंक दूं. मात्र 5-6 वर्षों में क्या कुछ नहीं बदल गया. कभी ये अलमारी मेरी अमानत थी. करीने से रखी किताबें, कार्ड-बोर्ड, स्केच पेन, पेंट की शीशियां, ख़ूबसूरत तस्वीरें, डायरी, मेरा मनी बैग, शो पीस और ढेर सारी लुभावनी चीज़ें. किसी की हिम्मत नहीं होती थी मेरी आलमारी छूने की. हमेशा ताला बंद रहता और चाभी मेरे हाथ में होती. ससुराल जाते वक़्त सख़्त हिदायत देकर गई थी,‘मेरी आलमारी के सामान को इधर-उधर नहीं करना.’ आज वही आलमारी अपने बदले रंग-रूप में मुंह चिढ़ा रही थी मुझे. चाय पीकर घर का कोना-कोना देखने की तीव्र लालसा रोक नहीं पाई. पापा के कमरे में जाले लगे थे. उनका स्टडी-टेबल धूल-गर्द से मढ़ा हुआ था. परदे के गाढ़े रंग भी दाग-धब्बों को छुपा पाने में असमर्थ थे. मन में आया, पहले झाड़ू लेकर अभी पूरा कमरा साफ़ करूं, लेकिन फिर कुछ सोच कर रुक गई. श्यामली की बातें याद हो आईं,‘दीदी! तुम सामान इधर-उधर नहीं करो, तुम तो रख कर चली जाती हो, पापाजी अपनी चीज़ों के लिए हमें नाहक डांटते रहते हैं. जैसे है वैसा ही पड़े रहने दो.’ और धूल से भरा पोंछा पल भर के लिए मेरे वजूद पर हंस पड़ा था. मैं आधी सफ़ाई बीच में छोड़ कर ही वापस चली आई थी.
रात में अन्ना और अंशु मिलजुल कर खाना बना रहे थे. मां को रात में तक़लीफ़ होती है देखने में. अन्ना और अंशु इतने स्वाभाविकता से खाना बनाने में मग्न थे जैसे उन्हें वर्षों का अभ्यास हो. यही अन्ना था जो किचन में आना तो दूर, जब तक खाना निकाल के न दो, नहीं खाएगा. एक बार व्यस्तता-वश यूं ही कह दिया था-ज़रा निकाल के खा लो ना-तो मुंह फुलाए सारा दिन ही कुछ नहीं खाया था. आज उनकी नरम-नरम फूली रोटियां और बैगन की सब्ज़ी खाते वक़्त मन कुछ अनमना-सा हो रहा था.
बेटे को गोद में लिए अगले दिन धूप सेंकने की इच्छा से बगीचे में आ गई थी. पीले दोहरे गेंदे के बीच इकहरा नारंगी गेंदा का फूल भद्दा-सा लग रहा था. और ये मनीप्लांट कितनी बेहूदगी से फैले हुए हैं और ये बेला का पौधा तो पीलिया-सा गया है. यही बाग थे, यही बगीचा था, यही पौधे थे, पीला गेंदा था तो पूरी लाइन पीली ही होती थी. न जाने कहां-कहां से लाकर, मांगकर ये पौधे लगाए थे हमने. एक बार तो उजला बोगनवेलिया देखकर अनजान घर के सामने खड़े होकर पौधा मांगा था हमने. वही बोगनवेलिया पुष्प-विहीन होकर उपेक्षित पड़ा था. मेरा मन नहीं लग रहा था. बेटे को कहीं से एक कांच की गोली मिल गई और खेलते-खेलते कहने लगा,‘मम्मी ये गोली मिट्टी में लगा दो ना. गोली का पौधा हो जाएगा, फिर हम ढेर सारी गोलियों से खेलेंगे.’
कितना प्यारा था ये घर, कितने प्यारे थे इसके कोने-कोने, ये बाग-बगीचे, ये तालाब और यहां के नंग-धड़ंग गांव के बच्चे. इतना अपनापन मुझे कहीं नहीं मिला. ये अशिक्षित, असभ्य बच्चे शहर के उन स्मार्ट बच्चों से ज़्यादा अपने लगते हैं क्योंकि बचपन से ये मेरे वजूद के गवाह हैं. घनी शीतलहरी में जब ये नंगे घूमते थे,धूल में लोटते थे तो उस अपार शक्तिदायिनी प्रकृति के आगे मैं नतमस्तक हो जाया करती थी. कहां से मिलती है इनके अंदर प्रकृति के कोप से बचने की सुरक्षा-कवच. प्रकृति के समभागी हैं ये, पहले इन बच्चों को देखकर मन करता था, बड़ी होकर सबके लिए मैं एक-एक स्वेटर-टोपी ख़रीदूंगी, स्लेट-पेन्सिल ख़रीदूंगी और ख़ुद पढ़ाऊंगी उन्हें. ग्रामीण परिवारों के आपसी कलह में कूद पड़ती थी मैं, औरतों का पक्ष लेकर. पता नहीं उन शराबी, जुआरी मज़दूरों से भय क्यों नहीं लगता था. आज मैं मूक दर्शक की तरह खड़ी हूं. उनके बच्चों के स्वेटर के लिए न तो मेरे पास पैसे हैं, न ही मुझे इस बेमतलब शौक़ के लिए वक़्त ही है. इन घरों में रोज़ मारपीट होती है, मैं टीवी सीरियल की तरह देखकर, सुनकर अपना मनोरंजन भर कर लेती हूं. इससे अधिक दिलचस्पी मेरे अंदर नहीं जगती.
प्रवी के जन्म के बाद छः महीने लगातार रह गई थी. यही गांव वाले पूछ-पूछ कर परेशान कर दिए थे,‘बबी ससुराल कब जाएंगी? ससुराल से आती हैं तो बिल्कुल दुबला के आती हैं, काली पड़ जाती हैं. भगवान नज़र न लगाएं, अच्छी भली हो गईं हैं. भगवान बनाए रखें ऐसा नईहर!’
उनकी शोध से तंग आकर मां ने कह ही दिया,‘बेटी! हर परिवार में दुःख-सुख तो लगा रहता है, ससुराल रहोगी तो धीरे-धीरे तेरा हक़ बनेगा. यहां हम पर तू भार नहीं है लेकिन समाज पर भारी बन गई है. प्रतिष्ठा दांव पर मत लगा देना. वैसे तेरा घर है, तेरे लिए तो हम हैं ही.’
मैंने बस संज्ञाशून्य होकर सुनभर लिया. औसतन आयु के हिसाब से जीवन का एक तिहाई भाग उम्र गुज़ारा था इस नीड़ में,अब यह मुझसे विरक्त-सा क्यों लग रहा था?
मुझे याद है जब भी ससुराल जाती थी, मेरे आंसू थमते न थे. लगता था शायद फिर मैं ये दीवारें, ये बगीचे, मां, पापाजी, अन्ना, अंशु, श्यामली को न देख पाऊं. ये काले-कलूटे, नंग-धड़ंग बच्चे, ये बूढ़े पीपल का पेड़-शायद ही मौक़ा मिले इन्हें देखने का. रास्ते-भर विशाल मुझे बांहों का सहारा दिए शांत कराता रहता. वहां पहुंचने के बाद भी मन उदास रहता. विशाल बड़े धैर्य से मुझे दिलासा देता. अब तो कभी अतीत के आंसू ढुलक भी जाते हैं तो विशाल चुपचाप देखकर भी आगे से गुज़र जाता है जैसे रोना तो मेरी दिनचर्या में हमेशा से ही शामिल रहा है, यह कोई नई बात नहीं.
घर में कोई सबसे प्रिय है मेरे लिए तो वे मेरे पापाजी. सीमित आय में ही कितने सुनियोजित तरीक़े से हम सभी भाई-बहनों को पाला था उन्होंने. मेरा रोम-रोम कृतज्ञ है उनका. गांव के उस असभ्य-अशिक्षित माहौल में हम भाई-बहनों को शिक्षा और संस्कार के आकाश की बुलंदियों तक पहुंचाने का एकमात्र श्रेय उन्हीं का था. कभी मेरे जीवन का उद्देश्य था उनके आदर्शों पर चलना. उनके मार्गदर्शन में एक स्कूल खोलना और उन्हीं की तरह एक आदर्श सिद्धांतवादी शिक्षक बनकर समाज में एक मिसाल बनना. आज ढेरों प्रश्न मुंह बाए मेरे सामने खड़े थे,‘कहां गए वे तेरे आदर्श! वे तेरे वादे! जीवन में कुछ कर गुज़रने के वे तेरे दावे! तू तो बड़ी कायर निकली रे!’
वापसी के समय जब तांगे पर बैठी तो मां निश्चिंत-सी देख रही थी, पापाजी कुछ सतर्क-से मेरे सामानों को व्यवस्थित कर रहे थे. अन्ना और अंशु निर्विकार भाव से हाथ हिला रहे थे, श्यामली उदास-सी खड़ी थी, मेरे लिए कम प्रवि के लिए अधिक. तांगा आगे बढ़ने लगा तो सारा गांव, सारे लोग, एक-एक करके छूटने लगे, ओझल होते गए, पीपल का बूढ़ा पेड़ और गांव का टूटा मन्दिर भी शांत भाव से आकर दृष्टि से गुजर गए. मैंने चश्मे के नीचे से अपनी आंखों को टटोला. मुझे आंसू के कोई चिह्न नज़र नहीं आए. विशाल उत्सुकता-से अपना स्वेटर देख रहा था जो पापाजी ने उसे इस बार दिया था. प्रवि ने अपने हाथ का चॉकलेट धीरे-धीरे खोलना शुरू कर दिया था.
मैं तय नहीं कर पाई कि यह ज़मीन मेरे लिए पराई हो गई है या मैं ही इसके लिए पराई हो गई हूं.
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